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द्विवेदी युग की हिंदी कविता

dwiwedi yug kii men kavita ka sthan hindi nibandh

द्विवेदी युग से पूर्व हिंदी में भारतेंदु-युग की स्थिति थी। उस युग के काव्य की रचना अधिकतर ब्रजभाषा में हुई है और उस समय के कवियों ने अपनी कविताओं में रीति काल की परंपराओं का पालन करते हुए नवीन सामाजिक और राष्ट्रीय जाग्रति को भी जन्म दिया है। द्विवेदी युग से हमारा तात्पर्य पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी और उनके समकालीन कवियों के युग से है। इस युग के काव्य की विभिन्न विशेषताएँ इस प्रकार है-

(1) द्विवेदी युग में राष्ट्रीय काव्य-धारा की ओर विशेष रूप से ध्यान दिया गया। राष्ट्रीय जागरण के अतिरिक्त इस युग के काव्य में समाज- सुधार की आवश्यकता की ओर भी संकेत किए गए। वर्तमान युग की विभिन्न सामाजिक समस्याओं को दूर करने के लिए इस युग के कवियों ने भारत की प्राचीन संस्कृति के आदर्शो से प्रेरणा ली है। अतः यह स्पष्ट है कि इस युग के हिंदी काव्य में सुधारवादी चेतना मिलती है।

(2) इस युग के कवियों ने ब्रजभाषा का मोह छोड़कर खड़ी बोली में काव्य-रचना की है। काव्य की भाषा के बदल जाने के कारण इस युग की कविताओं में कहीं-कहीं प्राचीन भावनाएँ भी नवीन के समान प्रतीत होती हैं।

(3) इस युग में प्राचीन काव्य की रूढ़ियों का त्याग कर नवीन विचारों के प्रति उत्साह दिखाया गया। इस दृष्टि से इस काव्य में रीति काल में प्राप्त होने वाले स्थूल शृंगार रस का विरोध करते हुए भक्ति और राष्ट्रीयता का सुंदर प्रतिपादन किया गया है।

(4) इस युग में साधारण विषयों को लेकर भी काव्य लिखा गया। प्रकृति चित्रण की ओर इस युग के कवियों ने भी पर्याप्त ध्यान दिया है। इस युग में गेय कविताओं की अधिक रचना नहीं हुई है और कवियों ने अधिकतर वर्णनात्मक शैली को अपनाया है।

(5) इस युग की भाषा और भावों, दोनों को सरल रूप में उपस्थित किया गया है। मुक्तक कविताओं के अतिरिक्त इस युग में अनेक श्रेष्ठ महाकाव्यों तथा खंडकाव्यों की भी रचना की गई है। अलंकार प्रयोग के क्षेत्र में भी इस युग के कवियों ने स्वाभाविकता का पूरा ध्यान रखा है। इस युग की मुख्य विशेषता खड़ी बोली के शुद्ध रूप का विकास करना है।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि द्विवेदी युग में भावना और कला, दोनों के ही क्षेत्रों में नवीनता लाने का प्रयत्न किया गया है। इस दृष्टि से इस युग के कवियों ने भाव-क्षेत्र में उतना महत्त्वपूर्ण काव्य नहीं लिखा है जितना कला क्षेत्र में। वास्तव में खड़ी बोली को काव्य-रचना के क्षेत्रों में जमाना इन्हीं कवियों की देन है। आगे हम इस युग के प्रमुख कवियों का संक्षिप्त परिचय देंगे।

(1) महावीरप्रसाद द्विवेदी-

द्विवेदीजी ने खड़ी बोली को काव्य भाषा बनाने के लिए सबसे अधिक आंदोलन किया था। इसी कारण इस युग के प्रतिनिधि कवि न होने पर भी यह युग उन्हीं के नाम से चलता है। उनकी कविताओं का संग्रह ‘द्विवेदी – काव्य-संग्रह’ शीर्षक ग्रंथ में हुआ है। मौलिक कविताएँ लिखने के अतिरिक्त उन्होंने संस्कृत कवि कालिदास के ‘कुमार-संभव’ के कुछ अध्यायों का हिंदी में अनुवाद किया है। उनकी भाषा में संस्कृत के शब्दों को व्यापक स्थान प्राप्त हुआ है।

(2) श्री बालमुकुन्द गुप्त –

गुप्तजी ने अपने काव्य में राष्ट्रीयता, सामाजिकता और हास्य – व्यंग्य को मुख्य स्थान दिया है। उनकी रचनाओं का संग्रह ‘बालमुकुन्द गुप्त ग्रंथावली’ नामक ग्रंथ में हुआ है। उनकी भाषा सरल और सजीव है तथा उन्होंने अपने भावों को सष्ट रूप में उपस्थित किया है।

(3) श्री मैथिलीशरण गुप्त –

गुप्तजी द्विवेदी युग के प्रतिनिधि कवि है। उन्होंने वैष्णव भक्ति को लेकर अनेक सुंदर रचनाएँ उपस्थित की हैं। राष्ट्र-भावना को भी उनके काव्य में मुख्य स्थान प्राप्त हुआ है। उनकी ‘साकेत’, ‘पंचवटी’, ‘भारत-भारती’ ‘जयद्रथ वध’ आदि अनेक सुंदर कृतियाँ प्राप्त होती है। उन्होंने महाकाव्य, खंड-काव्य और मुक्तक काव्य, तीनों की रचना की ओर उपयुक्त ध्यान दिया है। प्रकृति वर्णन को भी उनके काव्य में पर्याप्त स्थान प्राप्त रहा है। उनकी रचनाओं का संबंध अधिकतर भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास और संस्कृति से रहा है। उनके काव्य में चिंतन को मुख्य स्थान प्राप्त हुआ है। उन्होंने खड़ी बोली को भी सरल, स्वाभाविक, ओजपूर्ण और निखरे हुए रूप में उपस्थित किया है।

(4) श्री जगन्नाथदास रत्नाकर

‘रत्नाकर’ जी ने अपने काव्य की रचना ब्रजभाषा में की है। उनकी रचनाओं में ‘उद्धव- शतक’ का सर्वश्रेष्ठ स्थान है। उनके भाव मार्मिक है और उनमें अनुभव, चिंतन तथा कल्पना का सुंदर समावेश हुम्रा है। उनके काव्य में भक्ति काल और रीति काल की काव्य- विशेषता का सुंदर समन्वय प्राप्त होता है। उन्होंने हिंदी के प्राचीन काव्य का व्यापक अध्ययन किया था। उनकी भाषा सरल तथा साहित्यिक है।

(5) श्री अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध‘ –

‘हरिऔध’ जी ने अपने काव्य में चिंता के स्थान पर भावुकता और कोमलता को प्रमुख स्थान दिया है। उनकी काव्य रचनाओं में ‘प्रिय प्रवास’ और ‘वैदेही वनवास’ मुख्य हैं। ये दोनों ही महाकाव्य उनकी मौलिकता का पूर्ण परिचय देते हैं। कला क्षेत्र में उन्होंने प्रतुकांत कविताओं की रचना द्वारा भी अपनी मौलिकता दिखाई है। उनके काव्य में मुहावरों और लोकोक्तियों का व्यापक प्रयोग हुआ है, किंतु उनकी भाषा में अधिक प्रवाह प्राप्त नहीं होता। इसका कारण यह है कि कहीं-कहीं उन्होंने संस्कृत के शब्दों का अत्यधिक प्रयोग किया है। उनके काव्य में भक्ति, नीति और देश-प्रेम को मुख्य स्थान मिला है। प्रकृति को उन्होंने शुद्ध और कृत्रिम दोनों रूपों में उपस्थित किया है। उनके काव्य में उपदेश देने की प्रवृत्ति भी पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होती है।

(6) श्री गोपालशरण सिंह-

ठाकुर गोपालशरण सिंह ने अपनी कविताओं में खड़ी बोली को प्रत्यन्त मधुर रूप में उपस्थित किया है। उनका काव्य मुक्तक रूप में लिखा गया और उनके ‘कादम्बिनी’ तथा ‘माधवी’ नामक कविता-संग्रह प्रत्यन्त सुंदर बन पड़े है। उनके काव्य में प्रकृति-वर्णन को सबसे अधिक स्थान प्राप्त हुग्रा है। उन्होंने चाँदनी, भ्रमर, कोकिल आदि प्रकृति के विविध अंगों का मनोहारी वर्णन किया है। उनकी कविताएँ सरल, संक्षिप्त तथा स्वाभाविक हैं। प्रकृति-वर्णन की भाँति ही उन्होंने ईश्वर भक्ति को लेकर भी सुंदर कविताएँ’ लिखी हैं।

इन प्रमुख कवियों के प्रतिरिक्त द्विवेदी युग में पंडित रामचरित उपाध्याय, पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय और पंडित गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ का भी सुंदर काव्य प्राप्त होता है। इस युग के कवियों ने अपनी मौलिकता का स्थान- स्थान पर सुंदर परिचय दिया है। यही कारण है कि भक्ति, राष्ट्रीयता, प्रकृति-वर्णन, समाज-सुधार और भाषा संस्कार सभी क्षेत्रों में उन्होंने नवीन दृष्टिकोण उपस्थित किए है। इस युग के काव्य में आदर्शवाद को मुख्य स्थान प्राप्त हुआ है और कवियों ने कल्पना के स्थान पर अनुभव और चिंतन की और अधिक ध्यान दिया है। इस समय कुछ व्यक्ति इसमें स्थूल विषयों की अधिक चर्चा के कारण इसे रूढ़िवादी कहकर इसकी निंदा करते हैं, किंतु इसमें कोई सन्देह नही है कि इस काव्य ने हिंदी कविता के विकास में महत्त्वपूर्ण योग दिया है। इस युग के कवियों में से श्री मैथिलीशरण गुप्त आज भी काव्य रचना कर रहे हैं। इस बीच में उनकी कविताओं में भावना और कला, दोनों ही की दृष्टि से अनेक परिवर्तन हुए है, किंतु उनकी कविताएँ अब भी मुख्य रूप से द्विवेदी युग के काव्य के आदर्शों को ही लिए हुए होती हैं।

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