हिंदी के अनेक अन्य प्राचीन कवियों की भाँति कविवर घनानंद जीवन के विषय में भी निश्चित रूप में अधिक बातें नहीं मिलतीं। प्रारंभ में आलोचकों ने उनका जन्म – काल संवत् 1746 माना था, किंतु पंडित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने अपने ‘घनानंद’ शीर्षक ग्रंथ में शोध के आधार पर उनका जन्म संवत् 1730 के आसपास माना है। उनका जन्म एक कायस्थ परिवार में हुआ था। वय-प्राप्त होने पर उन्होंने दिल्ली के मुग़ल सम्राट् मुहम्मदशाह रंगीले के दरबार में मीर मुंशी के पद पर कार्य करना आरंभ कर दिया। जनश्रुति के अनुसार बादशाह मुहम्मदशाह के राज दरबार में सुजान नाम की एक नर्तकी आया करती थी। उसका दरबार में अच्छा सम्मान था। संयोग से कविवर घनप्रानंद उसके सौंदर्य और व्यवहार पर मुग्ध हो गए। यह प्रेम क्रमशः विकसित होता गया। घनानंद के काव्य का अध्ययन करने पर उनके इस अनुराग के स्पष्ट संकेत प्राप्त किए जा सकते हैं।
सुजान के प्रति घनानंद के इस प्रेम भाव को देखकर कुछ राज- दरबारियों को उनसे द्वेष हो गया। वह बादशाह द्वारा उन्हें दंड दिलाने के विषय में सोचने लगे। एक योजना बनाकर उन्होंने बादशाह को यह सूचना दी कि घनानंद गान – विद्या में निपुण हैं – अतः उनसे किसी दिन दरबार में गाना सुनाने का आग्रह किया जाए। यद्यपि घनानंद को राग-रागिनियों और वाद्य संगीत का उचित ज्ञान था, तथापि बादशाह के कहने पर वह संकोच के कारण इस विषय में अपनी असमर्थता ही प्रकट करते रहे। इससे लाभ उठाकर उनके विरोधियों ने बादशाह से कहा है कि घनानंद सुजान से प्रेम करते हैं और उसके कहने पर दरबार में तुरंत आ सकते हैं। बादशाह ने उसी समय सुजान को दरबार में बुलाया। उसे देखकर घनानंद प्रायः आत्मविस्मृत हो गए और उन्होंने अपने संगीत से पूरी राजसभा को मुग्ध कर दिया। बादशाह ने इसे अपना अपमान समझा और घनानंद को देश त्याग का दंड दिया। घनानंद को इसमें कोई आपत्ति न हुई, किंतु जब सुजान ने उनका तिरस्कार करते हुए उनके साथ जाना स्वीकार नहीं किया तब उन्हें अत्यंत दुख हुआ। ऐसी स्थिति में संसार का मोह त्यागकर उन्होंने वृंदावन जाकर निम्बार्क भक्ति संप्रदाय में दीक्षा ले ली।
कविवर घनानंद के दीक्षागुरु श्रीयुत वृंदावनदेव थे। अपनी परमहंस- वंशावली’ शीर्षक कृति में घनानंद ने निम्बार्क संप्रदाय की गुरु परंपरा का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है। इस संप्रदाय के नियमों के अनुसार श्रेष्ठ भक्तों को ‘सखीनाम’ प्रदान किए जाते थे। जिन भक्तों को ऐसे नाम प्राप्त हो जाते थे उन्हें राधा-कृष्ण के अधिक निकट माना जाता था। घनानंद ने भी इस संप्रदाय में रहते हुए तन्मय होकर भक्ति की थी। इस कारण उन्हें भी ‘बहुगुनी’ नाम की सखी – पदवी प्रदान की गई थी। अपने ‘प्रियाप्रसाद’ शीर्षक काव्य में उन्होंने इसका इस प्रकार उल्लेख किया है-
“राधा धर्यो बहुगुनी नाऊँ।
टरि लगि रहौं बुलाएँ जाऊँ॥”
रीतिकाल में आनंद और आनंदघन नामक दो अन्य कवि भी हुए थेI कविवर घनानंद से इनके नाम की समता ने भी आलोचकों के कार्य को जटिल बनाया है अर्थात् नाम साम्य के कारण घनानंद के काव्य में शेष दोनों कवियों के काव्य का समावेश होने की आशंका रहती है। घनानंद ने अन्य रीतिकालीन कवियों की भाँति अपने काव्य की रचना मुक्तक रूप में की है। अतः इस प्रकार के पद समावेश की संभावना और भी अधिक हो जाती है। उनके काव्य अथवा काव्यांशों की अनेक सम्पादित प्रतियाँ उपलब्ध होती हैं। इनमें पंडित विश्वनाथप्रसाद मिश्र द्वारा सम्पादित ‘घनआनंद’ शीर्षक ग्रंथ सर्वप्रमुख है।
घनानंद के काव्य का महत्त्व उनके भावों की मार्मिकता और भाषा की स्वच्छता में निहित है। उनके भाव अनुभव से प्रेरित रहे हैं। अतः उनमें पाठक के हृदय को प्रभावित करने की शक्ति का पूर्ण रूप से समावेश हुआ है। रीतिकाल के अन्य कवियों की भाँति उनके काव्य में भी शृंगार रस को प्रमुख स्थान प्राप्त हुआ है। उन्होंने शृंगार रस के संयोग और वियोग नामक दोनों पक्षों का प्रभावशाली चित्रण किया है। इस दृष्टि से जहाँ उन्होंने संयोग शृंगार के विविध अंगों का स्वच्छ रीति से चित्रण किया है वहाँ उनके वियोग वर्णनों में भी ऊहात्मकता (बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन करना) को स्थान प्राप्त नहीं हुआ है। रसात्मकता की दृष्टि से उनके छंदों का प्रभाव रीतिकाल के किसी भी कवि के काव्य से कम नहीं है।
रस-योजना की भाँति कविवर घनानंद के काव्य में चरित्र-चित्रण की और भी उपयुक्त ध्यान दिया गया है। उन्होंने अपने काव्य की रचना श्रीकृष्ण और गोपियों के प्रचलित कथानक को लेकर की है। अत उनके काव्य में चरित्र-चित्रण का स्वरूप एक विशेष परंपरा पर आधारित रहा है। उनके छंदों में प्रेम की पीर के चित्रण को मुख्य स्थान प्राप्त हुआ है। नर्तकी सुजान के अनुराग में मग्न होने के कारण घनानंद के हृदय में इस प्रेम-पीड़ा का चित्रण करने के लिए आवश्यक भावात्मकता पूर्ण रूप से विद्यमान थी। उन्होंने अपने काव्य की रचना सर्वत्र एक भावुक कवि के रूप में की है। इस कारण उनके पात्रों में भी भावुकता के विकास की अधिक स्पष्ट सम्भावनाएँ हो सकी हैं।
भाव – सौंदर्य की योजना के लिए रस और चरित्र चित्रण के अतिरिक्त रीतिकाल के कवि कल्पना के प्रयोग और प्रकृति चित्रण की ओर भी पर्याप्त ध्यान दिया करते थे अत: घनानंद के काव्य में भी कल्पना का सामान्यतः अच्छा प्रयोग प्राप्त होता है। इस कल्पना का स्वरूप प्रायः स्वाभाविक ही रहा है और इसमें कृत्रिमता का आश्रय नहीं लिया गया है। श्रीकृष्ण के जीवन से संबंधित होने के कारण कृष्ण-काव्य में प्रकृति-चित्रण के लिए भी पर्याप्त सुविधा रहती है। इस दिशा में वृंदावन, यमुना, कुंज छवि आदि अनेक तत्त्वों का प्रासंगिक रूप से सहज ही वर्णन किया जा सकता है। कविवर घनानंद के काव्य में भी प्रसंग आने पर प्रकृति का चित्रण किया गया है। उपर्युक्त विशेषताओं द्वारा उन्होंने अपने काव्य के भाव पक्ष को अत्यंत श्रेष्ठ रूप में उपस्थित किया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि रीतिकाल की सभी भाव- संबंधी विशेषताएँ उनके काव्य में सहज रूप से प्राप्त हो जाती है।
भाव – सौंदर्य की भाँति काव्य की सफलता के लिए उसमें कला – सौंदर्य की योजना भी नितांत आवश्यक होती है। कविवर घनानंद ने इस आवश्यकता की ओर उपयुक्त ध्यान दिया है। इस दृष्टि से हम सर्वप्रथम उनकी भाषा पर विचार करेंगे। उन्होंने अपने काव्य की रचना सरल ब्रजभाषा में की है। ब्रजभाषा के मधुर स्वरूप का प्रयोग करने में उनके समान सफलता केवल कविवर रसखान को ही प्राप्त हो सकी है। उन्होंने ब्रजभाषा को जो मधुर प्रवाह प्रदान किया है और उसके स्वाभाविक रूप की जिस प्रकार रक्षा की है वह निश्चय ही प्रशंसनीय है। उनकी भाषा सर्वत्र विषय के अनुरूप रही है और उसमें कृत्रिमता को स्थान प्राप्त नहीं हुआ है। इससे काव्य-रचना में उनकी दक्षता का पूर्ण रूप से परिचय प्राप्त हो जाता है। उनकी भाषा की स्वच्छता की सभी आलोचकों ने प्रशंसा की है। उनके बाद ब्रजभाषा में काव्य- रचना करने वाले कवियों ने उनके काव्य की मधुर भाषा का अनुकरण करने का प्रयास किया है।
कविवर घनानंद ने अपने काव्य में अलंकारों का भी स्वाभाविक रूप में प्रयोग किया है। कवि श्री केशवदास काव्य में अलंकारों की किसी-न-किसी रूप में निश्चित प्रयोग करने की प्रवृत्ति में विश्वास नहीं रखते थे। यहीं कारण है कि उनकी रचनाओं में शब्द – सौंदर्य और अर्थ – सौंदर्य, दोनों के विकास में सहायक अलंकारों का प्रयोग हुआ है। उन्होंने अपने काव्य की रचना करते समय एक ओर तो छंदों का आश्रय लिया है और दूसरी ओर राग-रागिनियों के आधार पर गीति काव्य की रचना की है। उन्हें संगीत – शास्त्र का व्यापक ज्ञान प्राप्त था। अतः अपने पदों की रचना करते समय उन्हें पूर्ण सफलता मिली है। आगे हम उनका एक विरह पद उपस्थित करते हैं-
“आइ सुधि लेहु सबेरी स्याम।
औसर गएँ बहुरि कहा ऐहो ब्रजजीवन घरि नाम॥
रही निपट मुरझाइ बिलखि बलि प्रबल बिरह के धाम।
आनंदघन रस सींचि हीं करौ बेलि बिचारों बाम॥”