‘आलोचना’ से हमारा तात्पर्य किसी साहित्यिक रचना का अध्ययन कर उसके गुण-दोष दिखाने से है। इसके लिए यह आवश्यक है कि आलोचक निष्पक्ष भाव में रचना के सौंदर्य का सूक्ष्म और स्वच्छ विश्लेषण उपस्थित करें। हिंदी में आलोचना का प्रारंभ और विकास प्रायः इसी युग में हुआ है। इससे पूर्व भक्ति काल में सर्वप्रथम सूत्र रूप में सआलोचना की प्रणाली मिलती है। इस प्रकार की आलोचना जनता में निम्नलिखित रूप में प्रचलित रहती थी-
“सूर सूर तुलसी ससी, उडगन केशवदास।
अब के कवि खद्योत सम, जहँ तहँ करत प्रकास॥”
इसके अतिरिक्त भक्ति काल में ‘चौरासी वैष्णवों की वार्त्ता’, ‘दो सौ बावन वैष्णवों की वार्त्ता’, और ‘भक्तमाल’ शीर्षक ग्रंथों में उस समय के वैष्णव भक्त कवियों की जीवनियों को उपस्थित किया गया है। इनमें उनके काव्य की आलोचना नहीं मिलती। इसके पश्चात् रीति काल में संस्कृत के काव्य- शास्त्र के आधार पर ‘रस’, ‘अलंकार आदि आलोचना के लिए आवश्यक अंगों का कथन किया गया है। इस दिशा में रीति काल में सर्वश्री केशवदेव, भूषण, मतिराम, चिंतामणि, पद्माकर आदि अनेक आचार्यों ने रचनाएँ उपस्थित की हैं, किंतु उनकी कृतियों में गंभीर विश्लेषण के स्थान पर साधारण विवरण ही मिलते हैं। रीति काल के आचार्यों की इस असफलता का एक कारण तो यह है कि उस समय की परिस्थितियाँ आलोचना – साहित्य की रचना के लिए उपयुक्त नहीं थीं और दूसरा कारण यह है कि उस समय गद्य का अभाव था।
भारतेंदु–युग
हिंदी – आलोचना का प्रारंभ वास्तव में भारतेंदु-युग में ही हुआ। इससे पहले हिंदी आलोचना का जो कुछ भी रूप प्राप्त होता है वह साधारण होने के साथ-साथ अधिक मौलिक भी नहीं है। भारतेंदु-युग में सर्वप्रथम भारतेंदु जी ने अपनी ‘नाटक’ नामक पुस्तक में शास्त्रीय आलोचना का आधार लिया है। यह संक्षिप्त होने पर भी अपनी मौलिकता के कारण महत्त्वपूर्ण है। उनके समकालीन लेखकों में ‘प्रेमघन’ जी ने अपनी ‘आनंद – कादंबिनी’ नामक पत्रिका मैं अपने समय की पुस्तकों की समीक्षा की है। उन्होंने इन पुस्तकों के गुणों की अपेक्षा इनके दोषों की अधिक चर्चा की है। इसके अतिरिक्त इस युग में पंडित बालकृष्ण भट्ट ने हिंदी की उन्नति के संबंध में कुछ स्फुट निबंध लिखे हैं और पंडित अंबिकादत्त व्यास की बिहारी के काव्य पर एक समीक्षा की पुस्तक मिलती है।
द्विवेदी–युग
इस युग में पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी ही मुख्य आलोचक रहे हैं। उनके अतिरिक्त श्री बालमुकुन्द गुप्त और ‘रत्नाकर’ जी के भी कुछ आलोचना- संबंधी निबंध मिलते हैं। द्विवेदीजी ने आलोचना की भाषा-शैली में गंभीरता लाने पर बल दिया है। उन्होंने हिंदी की अनेक मौलिक और अनूदित पुस्तकों की समीक्षा की है। वह भी रचना के गुणों की अपेक्षा उसके दोषों की अधिक चर्चा किया करते थे। उनकी आलोचना निर्णयात्मक हुआ करती थी। ‘रसज्ञ – रंजन’ के कुछ निबंधों में उन्होंने सैद्धान्तिक आलोचना का भी साधारण परिचय दिया है। उनकी आलोचनात्मक कृतियों में ‘रसज्ञ – रंजन’, ‘नैषध चरित चर्चा’ और ‘हिंदी-कालिदास’ की आलोचना उल्लेखनीय हैं।
मिश्रबंधु–युग
हिंदी अलोचना के क्षेत्र में मिश्रबंधुओं ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होंने आलोचना के लिए उपस्थित रचना के गुणों और दोषों की ओर एक ही समान ध्यान दिया है। अपने ‘मिश्रबंधु विनोद’ में उन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास को सर्वप्रथम सरल रूप में उपस्थित किया। अपने ‘हिंदी नवरत्न’ शीर्षक ग्रंथ में उन्होंने निर्णयात्मक आलोचना के अनुसार हिंदी के नौ श्रेष्ठ कवियों की समीक्षा की है। इसके अतिरिक्त उनका शास्त्रीय आलोचना से संबंधित एक ‘साहित्य पारिजात’ शीर्षक ग्रंथ भी मिलता है। उन्होंने अपने ‘हिंदी – नवरत्न’ में कविवर देव को बिहारी से श्रेष्ठ माना है। यहाँ से हिंदी में तुलनात्मक सआलोचना का जन्म हुआ। पंडित पद्मसिंह शर्मा ने बिहारी के काव्य-सौंदर्य पर व्यापक प्रकाश डाला और उनके काव्य की अन्य भाषाओं के काव्य से तुलना की। इसी प्रकार पंडित कृष्णबिहारी मिश्र ने देव के काव्य को बिहारी के काव्य से श्रेष्ठ बताया तथा लाला भगवानदीन ने बिहारी के काव्य को देव के काव्य से श्रेष्ठ माना। उस समय इस प्रकार की तुलनात्मक सआलोचना का पर्याप्त प्रचार हुआ, किंतु इसमें गंभीरता का अभाव है।
नवीन युग
मिश्रबंधु-युग में हिंदी आलोचना को एक निश्चित रूप प्राप्त हो गया। इसके पश्चात् हिंदी आलोचना के क्षेत्र में प्रर्याप्त नवीनताएँ आईं। श्रागे हम इस युग के पश्चात् हिंदी आलोचना के क्षेत्र में कार्य करने वाले प्रमुख आलोचकों का परिचय देंगे।
(1) डॉ. श्यामसुंदरदास–
डॉ. श्यामसुंदरदास ने शास्त्रीय आलोचना के क्षेत्र में ‘साहित्यालोचन’ और ‘रूपक – रहस्य’ नामक कृतियाँ उपस्थित की हैं। इनमें भारतीय काव्य- शास्त्र के साथ-साथ विदेशी काव्य-शास्त्र से भी सहायता ली गई है। व्यावहारिक आलोचना के क्षेत्र में उन्होंने ‘हिंदी भाषा तथा साहित्य’ और ‘महात्मा तुलसीदास’ शीर्षक मौलिक रचनाएँ लिखी हैं और ‘रानी केतकी की कहानी’, ‘नासिकेतोपाख्यान’, ‘हम्मीर रासो’ तथा ‘कबीर ग्रन्थावली’ का सम्पादन कर उनकी आलोचनात्मक भूमिकाएँ लिखी हैं। उनकी आलोचना-शैली स्पष्ट और प्रवाहपूर्ण है।
(2) आचार्य रामचंद्र शुक्ल –
शुक्लजी हिंदी में गंभीर आलोचना के जन्मदाता हैं। उनसे पूर्व मिश्रबंधुओं और डॉ. श्यामसुंदरदास के अतिरिक्त कोई भी समर्थ आलोचक नहीं हुआ था। उन्होंने आलोचना के शास्त्रीय पक्ष को लेकर ‘रस-मीमांसा’ और कुछ स्फुट निबंधों की रचना की है। व्यावहारिक आलोचना के क्षेत्र में उनका ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ अत्यंत श्रेष्ठ बन पड़ा है। इसके अतिरिक्त उन्होंने ‘महाकवि तुलसीदास’, ‘महाकवि सूरदास,’ ‘त्रिवेणी’ और ‘चिंतामरिण ‘ के द्वारा भी इस क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का अच्छा परिचय दिया है। उनकी आलोचनाएँ गहन अध्ययन से पूर्ण हैं। वह रचना के भाव पक्ष और कला -पक्ष पर उचित ध्यान देते हुए व्यवस्थित आलोचना किया करते थे। हिंदी के आलोचकों में उनका सर्वश्रेष्ठ स्थान है।
(3) प्राचीनतावादी सआलोचक–
इस वर्ग के अंतर्गत हम उन आलोचकों का उल्लेख करेंगे जिन्होंने आलोचना करते समय आधुनिक तत्त्वों का उपयोग करते हुए भी मुख्य रूप से प्राचीन भारतीय काव्य-दृष्टि को ही अपनाया है। इस प्रकार के आलोचकों में बाबू गुलाबराय पंडित रामदहीन मिश्र और पंडित विश्वनाथप्रसाद मिश्र के नाम उल्लेखनीय है। इन्होने अपनी रचनाओं में पश्चिमी काव्य शास्त्र के स्थान पर संस्कृत के काव्य-शास्त्र का अधिक आधार लिया है।
(4) छायावाद के समर्थक आलोचक–
इस वर्ग के आलोचकों ने हिंदी में अपनी आलोचनाओं का संबंध सर्वप्रथम छायावादी काव्य से रखा था। इन्होंने छायावादी काव्य-दृष्टि का पूर्ण समर्थन किया है। इनमें श्री नंददुलारे वाजपेयी, श्री शांतिप्रिय द्विवेदी, डॉ. नगेन्द्र और श्री गंगाप्रसाद पांडेय के नाम उल्लेखनीय है। इस समय वाजपेयी जी और डॉ. नगेन्द्र का आलोचना-साहित्य केवल छायावाद की सीमा में न रह कर वर्तमान युग की आवश्यकताओं के अनुकूल विस्तृत हो गया है। द्विवेदीजी और पांडेयजी की आलोचना-शैली में अधिक अंतर नहीं आया है। उपर्युक्त आलोचकों के अतिरिक्त कुछ छायावादी कवियों ने भी छायावाद को स्पष्ट करने के लिए आलोचनाएँ लिखी हैं। इनमें सर्वश्री जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा मुख्य हैं।
(5) प्रगतिवादी आलोचक
इस वर्ग के आलोचकों ने साहित्य की आलोचना करते समय उसने मार्क्सवादी सिद्धांतों की खोज करने का प्रयास किया है। इनमें डॉ. रामविलास शर्मा, श्री शिवदानसिंह चौहान और श्री प्रकाशचंद्र गुप्त मुख्य है। डॉ. शर्मा ने इस धारा को विशेष आग्रह के साथ ग्रहण किया है और शेष दोनों आलोचकों ने इस दिशा में उनकी अपेक्षा अधिक स्वस्थ और संतुलित आलोचना उपस्थित की है। केवल मार्क्सवाद को ही साहित्य का मापदंड मानने के कारण इस आलोचना-पद्धति का विशेष प्रचार न हो सका।
(6) डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी–
द्विवेदीजी ने प्राचीनतावाद, छायावाद तथा प्रगतिवाद में से किसी भी आलोचना प्रणाली के प्रति विशेष आग्रह न रखकर स्वतंत्र रूप में आलोचनाएँ उपस्थित की है। शुक्लजी के पश्चात् हिंदी के आलोचकों में उनका ही स्थान है। उनकी आलोचनाओं में सर्वत्र गंभीर अध्ययन का परिचय मिलता है। उनके आलोचना-ग्रंथों में ‘नाथ संप्रदाय’, ‘हिंदी – साहित्य का आदिकाल’, ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’, ‘कबीर’ और ‘मध्यकालीन धर्म – साधना’ मुख्य हैं।
उपर्युक्त प्रमुख आलोचकों के अतिरिक्त आधुनिक युग में सौ से भी अधिक अन्य आलोचकों ने हिंदी आलोचना-साहित्य के विकास में महत्त्वपूर्ण योग दिया है। इस युग में शोध ग्रंथों (थीसिस) के रूप में भी आलोचना के अनेक ग्रंथ निकले हैं। इसी प्रकार ‘साहित्य-संदेश’, ‘आलोचना’ और ‘सरस्वती सम्वाद’ आदि पत्रों के द्वारा भी आधुनिक युग में अनेक श्रेष्ठ आलोचनात्मक निबंधों का प्रकाशन हुआ है। इस युग के अन्य आलोचकों में डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, डॉ. रामकुमार वर्मा, डॉ. सत्येन्द्र, श्री परशुराम चतुर्वेदी, श्री कन्हैयालाल सहल, श्री प्रभुदयाल मीतल, श्री दीनदयालु गुप्त, डॉ. भगीरथ मिश्र और प्रोफ़ेसर विजयेन्द्र स्नातक मुख्य हैं।