हिंदी में गद्य की अपेक्षा पद्य को प्रधान स्थान प्राप्त हुआ है, तथापि गद्य रचनाओं के संकेत भी हमें कहीं कहीं मिलते है। सर्वप्रथम हमें राजस्थानी गद्य का अपभ्रंश – मिश्रित रूप प्राप्त होता है। इस प्रकार के गद्य को महाराज पृथ्वीराज तथा चित्तौड़ के रावल समरसिंह के दान-पत्रों, शिलालेखों और सनदों में स्थान प्राप्त हुआ है। इसके पश्चात् हमें हिंदी गद्य का प्रथम विकसित रूप पंद्रहवीं शताब्दी में लिखे गए गुरु गोरखनाथ के ‘सिष्ट प्रमाण’ नामक ब्रह्म-ज्ञान संबंधी ग्रंथ में प्राप्त होता है। इसकी गद्य शैली भी स्थिर नहीं है। इसके उपरांत सोलहवीं शताब्दी में गोस्वामी विट्ठलनाथ ने ब्रजभाषा- गद्य में ‘शृंगार-रस-मंडन’ नामक ग्रंथ की रचना की, किंतु इसमें भी परिमार्जित गद्य का अभाव है।
इसके पश्चात् सत्रहवीं शताब्दी में गोस्वामी गोकुलनाथ ने सरल और बोल-चाल की ब्रजभाषा में ‘वन यात्रा’ चौरासी वैष्णवों की वार्ता’ और ‘दो सौ बावन वैष्णवों की वार्त्ता’ शीर्षक गद्य-ग्रंथ लिखे। उनकी भाषा में कृत्रिमता का अभाव है और कहीं-कहीं फारसी शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। उनके गद्य में भाव व्यंजना भी अच्छी हुई है। इसी समय के आस-पास नाभादासजी ने ‘अष्टयाम’ और बैकुण्ठमणि ने ‘अगहन माहात्म्य’ तथा ‘वैशाख- माहात्म्य’ नामक ग्रंथों को ब्रजभाषा-गद्य में लिखा। इसी प्रकार कुछ काव्य- ग्रंथों की टीकाओं में भी गद्य का प्रयोग किया गया, किंतु वह नितांत अव्यवस्थित और अशक्त है।
खड़ी बोली का हिंदी गद्य
सोलहवीं शताब्दी में गंग कवि ने ब्रजभाषा- मिश्रित खड़ी बोली गद्य में सर्वप्रथम ‘चन्द छंद बरतन की महिमा’ नामक पुस्तक लिखी, किंतु इसकी भाषा अपरिमार्जित और अपरिष्कृत है अर्थात् इसमें भाषा की स्वच्छता का अभाव है। इसी युग में जटमल की ‘गोरा- बादल की कथा’ शीर्षक गद्य-पुस्तक मिलती है, किंतु इसकी प्रामाणिकता में संदेह है। इसके बाद अठारहवीं शताब्दी में श्री रामप्रसाद ‘निरंजनी’ ने ‘भाषा योग वशिष्ठ’ नामक गद्य-ग्रंथ की पर्याप्त परिष्कृत खड़ी बोली में रचना की। उनके उपरांत किसी अज्ञात लेखक ने राजस्थानी – मिश्रित खड़ी बोली में ‘चकत्ता की पातस्याही की परंपरा’ नामक ग्रंथ लिखा। इसके बाद पंडित दौलतराम ने ‘जैन पद्मपुराण’ का खड़ी बोली में अनुवाद किया। उनकी भाषा विशेष परिष्कृत न होने पर भी स्वाभाविक है। इसी समय किसी अज्ञात राजस्थानी लेखक ने फारसी से प्रभावित अपरिष्कृत खड़ी बोली में ‘मंडोवर का वर्णन’ नामक पुस्तक की रचना की।
हिंदी गद्य की इस अव्यवस्थित प्रगति के बाद उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में निम्नलिखित चार लेखकों ने उसे विशेष गति प्रदान की-
(1) मुंशी सदासुखलाल –
मुंशीजी ने शांत और गंभीर भाषा में ‘श्रीमद्भागवत’ का ‘सुखसागर’ के रूप में स्वतंत्र अनुवाद किया है। इस ग्रंथ में लेखक ने संस्कृत के शुद्ध शब्दों में युक्त सरल भाषा का प्रयोग कर खड़ी बोली के भावी रूप का पूर्ण अभास दिया है। कहीं कहीं उन्होंने भाषा में पण्डिताउपन का भी परिचय दिया है।
(2) सैयद इंशाल्ला खाँ-
खाँ साहब ने अपनी ‘रानी केतकी की कहानी’ की ठेठ हिंदी में रचना की। उन्होंने उसमें संस्कृत के शब्दों के तद्भव रूपों का पर्याप्त प्रयोग किया है। उनकी गद्य शैली मनोविनोद से युक्त है। उस पर फारसी की गद्य-शैली का प्रभाव लक्षित होता है। तथा
“सिर झुकाकर नाक रगड़ता हूँ उस अपने बनाने वाले के सामने जिसने हम सब को बनाया।”
खाँ साहब की भाषा पर कहीं-कहीं ब्रजभाषा के व्याकरण का भी प्रभाव पड़ा है। इसी प्रकार उन्होंने उर्दू के मुहावरों का भी प्रचुर प्रयोग किया है। उनकी कृति का खड़ी बोली के गद्य में अपनी चपलता के कारण विशेष स्थान है।
(3) लल्लूलाल –
लल्लूलालजी ने ब्रजभाषा से प्रभावित खड़ी बोली में ‘प्रेमसागर’ नामक ग्रंथ लिखा है। इसमें भागवत के दशम स्कंध की कथा का आधार लिया गया है। उन्होंने संस्कृत के तत्सम शब्दों का सुंदर प्रयोग किया है किंतु उनकी भाषा अव्यवस्थित और अनियन्त्रित है। इस कृति के द्वारा उन्होंने हिंदी की गद्य शैली को कोई विशेष विकास प्रदान नहीं किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने ब्रजभाषा- गद्य में ‘राजनीति’ नामक पुस्तक लिखी है, किंतु इसकी भाषा भी अव्यवस्थित और शिथिल है।
(4) सदल मिश्र –
मिश्रजी ने बोलचाल की खड़ी बोली में ‘नासिकेतोपाख्यान’ नामक पुस्तक की रचना की है। उनकी भाषा पर ब्रजभाषा और पूरबी बोली का प्रभाव मिलता है। कहीं-कहीं उन्होंने उर्दू के शब्दों का भी प्रयोग किया है। इस प्रकार उनकी भाषा में एकरूपता का अभाव है। वह हमारे समक्ष परिमार्जित और शिथिल, दोनों ही रूपों में आई है।
इन चारों लेखकों में मुंशी सदासुखलाल का गद्य सर्वश्रेष्ठ है। उन्हें हिंदी- गद्य को जन्म देने वाला कहा जा सकता है।
हिंदी गद्य का रूप स्थिर हो जाने के बाद उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में उसका उपयोग धर्म प्रचार और शिक्षा के लिए होने लगा। धर्म प्रचार की दृष्टि से सर्वप्रथम ईसाई धर्म के प्रचारकों ने सरल भाषा में ईसाई धर्म पर अनेक संक्षिप्त गद्य-पुस्तकें प्रकाशित कराई। इसके उत्तर में राजा राममोहनराय ने हिंदू धर्म को स्थिर रखने के लिए वेदांत सूत्रों के भाष्यों का हिंदी में अनुवाद प्रकाशित कराया। इसके बाद स्वामी दयानंद ने आर्यसमाज के प्रचार के लिए ‘सत्यार्थप्रकाश’ और वेदों के भाष्यों को हिंदी में प्रकाशित कराया। उनके उपरांत पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी ने सरल हिंदी में आर्यसमाज के प्रचार के लिए पुस्तकें लिखीं।
शिक्षा में सहायक पुस्तकों की दृष्टि से सर्वप्रथम ईसाई मिशनरियों ने कुछ पाठ्य पुस्तकों को प्रकाशित कराया। कुछ अन्य लेखकों ने भी साधारण भाषा में पुस्तकें उपस्थित कीं। इस दिशा में राजा शिवप्रसाद सितारे-हिन्द’ ने, विशेष कार्य किया है। किंतु उनकी भाषा पर उर्दू का स्पष्ट प्रभाव था। इस प्रवृत्ति का विरोध करने के लिए राजा लक्ष्मणसिंह ने पुष्ट हिंदी गद्य की रचना की। उनकी भाषा शुद्ध और मधुर थी, किंतु कहीं कहीं उस पर आगरे की बोलचाल की भाषा का भी प्रभाव मिलता है।
नवीन हिंदी गद्य
भारतेंदु युग में हिंदी गद्य का पर्याप्त विकास हुआ और भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र तथा उनके सहयोगी लेखकों ने नाटक, उपन्यास, निबंध, आलोचना आदि के रूप में विविध प्रकार की गद्य रचनाएँ उपस्थित कीं। इस युग के लेखकों की गद्य-शैली प्रवाहपूर्ण तथा आकर्षक है, किंतु उसमें व्याकरण की दृष्टि से अनेक दोष मिलते हैं। इस अभाव को लक्षित कर द्विवेदी युग में पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इस प्रकार की भाषा का तीव्र विरोध किया और व्याकरण के अनुसार शुद्ध खड़ी बोली में गद्य लिखने की परंपरा को प्रारंभ किया। उनके बाद हिंदी में क्रमश: पद्य की अपेक्षा गद्य का अधिक विकास होता गया और आज हमें यह अत्यंत विकसित अवस्था में प्राप्त होता है। इस समय तक हिंदी गद्य का कहानी, नाटक, एकांकी नाटक, उपन्यास, निबंध तथा आलोचना आदि के रूप में विविध क्षेत्रों में विकास हुआ। गद्य के इन प्रमुख अंगों के विकास की हम पृथक्-पृथक् निबंधों में चर्चा करेंगे। इनके अतिरिक्त हिंदी गद्य के कुछ अन्य रूपों का भी सुंदर विकास हुआ है। इनका स्वरूप इस प्रकार है-
हिंदी गद्य का विकास
(1) गद्य-काव्य –
वर्तमान युग में अनेक लेखकों ने भावपूर्ण शैली में सुंदर गद्य-काव्यों की रचना की है। इनमें भावों को संक्षिप्त और कलापूर्ण ढंग से उपस्थित किया जाता है; इसमें प्राय: प्रकृति, भक्ति और प्रेम को लेकर भाव-वर्णन किया जाता है। इस धारा की रचनाओं में श्री चतुरसेन शास्त्री की ‘अंतस्तल’, श्री रामकृष्ण- दास की ‘साधना’ और ‘प्रवाल’, श्री वियोगी हरि की ‘अंतर्नाद’, डॉ. रामकुमार वर्मा की ‘हिम-हास’, श्री माखनलाल चतुर्वेदी की ‘साहित्य- देवता’ और श्रीमती दिनेशनन्दिनी डालमिया की ‘स्पन्दन’ तथा ‘उन्मन’ उल्लेखनीय रचनाएँ हैं।
(2) जीवनी, संस्मरण तथा आत्म-कथा –
आधुनिक युग में लेखकों ने इस दिशा में भी सराहनीय प्रगति की है। साहित्य के तीनों ही अंग अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। हिंदी लेखकों ने इन्हें एक ओर तो स्वतंत्र लेखों के रूप में विकसित किया है और दूसरी ओर इनमें से प्रत्येक के क्षेत्र में सुंदर ग्रंथों की भी रचना की है। इस दृष्टि से श्री महावीरप्रसाद द्विवेदी, डॉ. श्यामसुंदरदास, बाबू गुलाबराय, श्री बनारसीदास चतुर्वेदी, श्री पद्म सिंह शर्मा ‘कमलेश’ के नाम विशेष रूप से उल्लेख योग्य है
(3) पत्र-पत्रिकाएँ —
हिंदी गद्य को प्रौढ़ता प्रदान करने में पत्र-पत्रिकाओं का भी महत्त्वपूर्ण योग रहा है। इस समय हिंदी में साहित्यिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, व्यापारिक, औद्योगिक, धार्मिक तथा वैज्ञानिक आदि विविध विषयों को लेकर पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा है। इन सभी पत्रों में हिंदी गद्य को विषय के अनुसार स्वच्छ रूप में उपस्थित किया जाता है। यद्यपि यह सत्य है कि हिंदी में कुछ ऐसी पत्रिकाओं का प्रकाशन भी होता है जिनका गद्य रचना की दृष्टि से कोई विशेष महत्त्व नहीं होता, किंतु इस स्थान पर हमारा तात्पर्य केवल श्रेष्ठ पत्रिकाओं से ही है। इस प्रकार की पत्रिकाओं में ‘आजकल’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘धर्मयुग’, ‘सरस्वती’, ‘अवन्तिका’ आदि उल्लेखनीय है।