‘भ्रमरगीत’ से हमारा तात्पर्य उन मुक्तक गीतों से है जिनमें गोपियों ने भ्रमर को संबोधित करते हुए कृष्ण और उद्धव के प्रति व्यंग्य किए हैं। कृष्ण के मथुरा चले जाने पर गोपियाँ उनके वियोग में उदास रहने लगी थीं। जब श्रीकृष्ण ने उनके पास उद्धव को अपना दूत बनाकर भेजा तब वे समझती थीं कि वह उनके दुख के साथ सहानुभूति प्रकट करेंगे, किंतु उद्धव ने इसके स्थान पर उन्हें ज्ञान का उपदेश दिया। यह उपदेश सुनकर गोपियाँ अत्यंत निराश हुई। उसी समय कहीं से एक भ्रमर उड़ता हुआ वहाँ आया और राधा के चरणों में बैठकर गुंजार करने लगा। गोपियों को इससे अपनी बातें कहने की सुविधा प्राप्त हो गई और वे भ्रमर पर दोष लगा लगाकर उद्धव तथा कृष्ण पर व्यंग्य करने लगीं। कुछ पदों में उन्होंने उद्धव को स्पष्ट रूप से भी संबोधित किया। हिंदी के भ्रमरगीत-काव्य की पृष्ठभूमि में यही कथा मिलती है। आगे हम हिंदी में भ्रमरगीत की रचना करने वाले मुख्य- मुख्य कवियों की चर्चा करेंगे।
(1) महाकवि सूरदास –
कविवर सूर ने अपने भ्रमरगीत – काव्य की रचना ‘श्रीमद्भागवत पुराण’ के आधार पर की है। हिंदी में भ्रमरगीत की रचना-परंपरा को प्रारंभ करने का श्रेय उन्हीं को प्राप्त है। उन्होंने अपने ‘सूरसागर’ में इस विषय को लेकर अनेक श्रेष्ठ पदों की रचना की है। उनके भ्रमरगीत में गोपियों ने उद्धव और कृष्ण के प्रति अनेक तीखे व्यंग्य किए हैं। उन्होंने अपनी भाषा को यथासंभव सरल तथा मधुर रखा है। उनकी शैली भी प्रवाहपूर्ण तथा आकर्षक है। उन्होंने इस प्रसंग का इतने विस्तार के साथ वर्णन किया है कि बाद के सभी कवियों ने इस विषय पर काव्य लिखते समय उनसे प्रेरणा ली है। इस विषय में सूर का भाव प्रतिपादन मौलिक और प्रभावशाली रहा है। आगे हम गोपियों द्वारा उद्धव के योग के उपदेशों के प्रति किए गए व्यंग्य से संबंधित दो पंक्तियाँ उपस्थित करते हैं–
“जोग ठगौरी ब्रज न बिके है।
यह व्यापार तिहारो ऊधो, ऐसोई फिरि जैहै॥”
(2) गोस्वामी तुलसीदास-
यद्यपि तुलसी मुख्य रूप से श्रीराम के भक्त थे और उन्होंने अपने साहित्य की रचना उन्हीं के चरित्र को लेकर की है, तथापि उन्होंने कृष्ण-काव्य के क्षेत्र में भी कार्य किया। उनके काव्य में मर्यादा भाव को मुख्य स्थान मिला है। अतः उन्होंने गोपियों के चरित्र में चंचलता के स्थान पर गंभीरता का समावेश किया है। उन्होंने इस प्रसंग की विस्तारपूर्वक चर्चा नहीं की है, तथापि उनका प्रयत्न मौलिक होने के कारण सराहनीय है।
(3) कविवर नंददास-
नंददासजी के ‘भँवरगीत’ का हिंदी भ्रमरगीत काव्य में महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने इसमें व्यर्थ के विस्तार का त्याग कर प्रत्येक पद से नवीन भाव उपस्थित करने का ध्यान रखा है। इस काव्य में संक्षिप्तता और सरसता का इतना उत्कृष्ट रूप में समावेश किया गया है कि इसे सूरदास जी के भ्रमरगीत के समान ही महत्त्व प्राप्त है। इसमें गोपियों ने अपने भावों को मनोविज्ञान के आधार पर मार्मिक रूप में उपस्थित किया है। इसमें कवि ने उद्धव को भी अपना पक्ष स्पष्ट करने का पर्याप्त अवसर प्रदान किया है। गोपियों की निम्नलिखित उक्ति से इस काव्य की सरल शैली का सरलता से अनुमान
किया जा सकता है-
कौन ब्रह्म को जोति, ज्ञान कासौं कहो ऊधो?
हमरे सुंदर स्याम प्रेम को मारग सूधो !
(4) कविवर रहीम –
रहीम कवि ने भ्रमरगीत को सरल और स्वाभाविक रूप में उपस्थित किया है। उन्होंने गोपियों की विरह वेदना का मार्मिक वर्णन किया है। उन्होंने अपने भ्रमरगीत की रचना बरवै के समान संक्षिप्त छंद में की हैं। फिर भी इस छंद में उन्होंने व्यापक भावों का कुशलता के साथ समावेश किया है, यथा
“कहा छलत हो ऊधो दे परतीती।
सपने हूँ नहि बिसरे, मोहनी प्रीति॥”
(5) रीति काल के कवि-
रीति काल में कविवर मतिराम, देव, पद्माकर और घनानंद ने भ्रमरगीत- काव्य-परंपरा में उल्लेखनीय योग दिया है। इनमें से मतिराम ने इस दिशा में सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होंने इस विषय पर स्वतंत्र काव्य नहीं लिखा है, किंतु इस विषय में उनकी उक्तियाँ कहीं-कहीं अत्यन्त सुंदर बन पड़ी है। उदाहरण के लिए गोपियों का निम्नलिखित स्पष्ट कथन देखिए–
“पग प्रेम नंदलाल के, हमे न भावत जोग।
मधुप राजपद पाइ के, भीख न माँगत जोग॥”
(6) भारतेंदु युग के कवि-
इस युग में कवित्रर भारतेंदु हरिश्चंद्र ‘प्रेमघन’ और सत्यनारायण ‘कविरत्न’ ने श्रेष्ठ भ्रमरगीत-काव्य की रचना की है। इनमें से भारतेंदुजी ने गोपी- उद्धव-संवाद को अत्यंत स्वाभाविक रूप में उपस्थित किया है। कला पक्ष की दृष्टि से अधिक प्रौढ़ न होने पर भी उनका भ्रमरगीत संबंधी काव्य ‘भाव पक्ष’ की दृष्टि से सुंदर बन पड़ा है। प्रेमघन’ जी ने अपने ‘भ्रमरगीत’ में कृष्ण के वियोग में गोपियों को अत्यंत विकल दिखाया है। इस युग के कवियों में भ्रमरगीत के क्षेत्र में ‘कविरत्न’ जी ने पर्याप्त मौलिकता दिखाई है। उन्होंने उनमें अपने समय की देश-प्रेम और नारी-शिक्षा जैसी समस्याओं का समावेश कर राष्ट्रीयता का प्रतिपादन किया है। इसी प्रकार उन्होंने कृष्ण के मथुरा जाने पर गोपियों की विरह वेदना के साथ-साथ माता यशोदा की विकलता का चित्रण करते हुए मौलिकता दिखाई है।
(7) श्री अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध‘-
‘हरिऔध’ जी ने ‘प्रियप्रवास’ नामक काव्य की रचना द्वारा भ्रमरगीत- काव्य की परंपरा में योग दिया है। उन्होंने इसमें मनोविज्ञान और तर्कशास्त्र का आश्रय लेकर कृष्ण और राधा के चरित्रों को नवीन रूप में उपस्थित किया है। इस काव्य की रचना खड़ी बोली में हुई है। अतः इसमें भावों की मौलिकता के साथ-साथ कला क्षेत्र में भी नवीनता को स्थान दिया गया है। आगे हम परिचय के लिए इस काव्य का एक छंद उपस्थित करते हैं –
“कोई ऊधौ यदि यह कहे काढ़ दें गोपिकायें,
प्यारा-प्यारा निज हृदय तो वे उसे काढ़ देंगी।
हो पावेगा न यह उनसे देह में प्राण होते,
उद्योगी हो हृदय-तल से श्याम को काढ़ देवें॥”
(8) श्री जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ –
‘रत्नाकर’ जी ने अपने ‘उद्धव- शतक’ नामक काव्य में भ्रमरगीत को प्रशंसनीय रूप में उपस्थित किया है। उन्होंने गोपियों के विरह का उल्लेख करने के साथ-साथ श्रीकृष्ण के विरह का भी सुंदर चित्रण किया है। उन्होंने उद्धव को भी गोपियों से अच्छा तर्क करते हुए दिखाया है और उनके द्वारा निर्गुण भक्ति के स्वरूप को भली प्रकार स्पष्ट कराया है। इस कृति में भाव पक्ष और कला -पक्ष दोनों के ही प्रौढ़ रूप में दर्शन होते है।
(6) श्री मंथिलीशरण गुप्त –
गुप्तजी ने ‘द्वापर’ नामक काव्य में भ्रमरगीत का सुंदर समावेश किया है। उन्होंने गोपियों को चपल, चतुर तथा भाव-कुशल दिखाया है। उनके उद्धव भी केवल बुद्धिवादी नहीं है। अन्य कवियों ने उसे गोपियों का प्रेम-भाव समझने में असमर्थ दिखाया है, किंतु गुप्तजी ने उन्हें इस रूप में चित्रित नहीं किया है। गुप्तजी के भ्रमरगीत-काव्य की शैली भी अत्यन्त रमणीय है। उदाहरण के लिए गोपियों की निम्नलिखित प्रभावशाली उक्ति देखिए-
“ज्ञानी हो तुम,
किंतु भाग्य तो,
अपना अपना होता।
वक्ता भी क्या करे, न पावे,
यदि अधिकारी श्रोता?”
इन कवियों के अतिरिक्त कृष्ण – काव्य में रुचि रखने वाले सभी कवियों ने प्रायः भ्रमरगीत को लेकर कुछ न कुछ लिखा है। इन सभी कवियों ने इस विषय में महाकवि सूरदास के काव्य से अनिवार्य प्रेरणा ली है। यद्यपि इस धारा के सभी कवियों ने वर्णन के लिए एक ही विषय को अपनाया है, तथापि हमें अनेक स्थानों पर कुछ नवीनताएँ भी प्राप्त होती हैं। इस नवीनता की योजना की ओर आधुनिक युग के कवियों ने अधिक ध्यान दिया है। अपनी मधुर भावनाओं के कारण हिंदी का भ्रमरगीत-काव्य ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों में सरस रूप में उपस्थित किया है।