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हिंदी का वीरगाथाकालीन काव्य

हिंदी का वीरगाथाकालीन काव्य

हिंदी साहित्य का प्रारंभ सम्वत् 1050 से माना जाता है। तब से लेकर अब तक उसका अनेक रूपों में विकास हुआ है। मुख्य-मुख्य साहित्यिक प्रवृत्तियों के आधार पर उसे वीरगाथा काल, भक्ति काल, रीति काल और आधुनिक काल में विभाजित किया गया है। प्रस्तुत निबंध में हम वीरगाथा काल के काव्य- विकास का अध्ययन उपस्थित करेंगे। इस युग की स्थिति सम्वत् 1375 तक रही। इस युग की राजनैतिक, सामाजिक तथा साहित्यिक परिस्थितियों का स्वरूप इस प्रकार है-

राजनैतिक अवस्था

हिंदी साहित्य के प्रादुर्भाव और विकास के समय हमारे देश की राज- नैतिक अवस्था अत्यंत अनिश्चित थी। सम्राट् हर्षवर्धन की मृत्यु के कारण गुप्त युग का संपूर्ण वैभव नष्ट हो चुका था। देश की एकता खंडित हो गई थी और वह अनेक भागों में बँट गया था। उस समय कन्नौज, दिल्ली और अजमेर आदि के रूप में विभिन्न खंड राज्य पृथक्-पृथक् स्थित थे। उनमें प्राय: पारस्परिक द्वेष की अवस्था रहती थी। इस प्रकार के प्रत्येक भू-खंड का स्वामी अपने आस-पास के राज्यों की विदेशों में गणना करता था। सामूहिक प्रतिष्ठा के स्थान पर उस समय व्यक्तिगत प्रतिष्ठा को अधिक महत्त्व दिया जाता था। इस कारण प्रत्येक नरेश संपूर्ण देश की अपेक्षा अपने राज्य की उन्नति की ओर अधिक ध्यान देता था। इस समय भारत पर यवनों के आक्रमण भी प्रारंभ हो चुके थे, किंतु यहाँ के नरेश उन्हें पराजित करने के स्थान पर अपनी संपूर्ण शक्ति को पारस्परिक युद्धों में ही समाप्त कर देते थे। इसके साथ ही विदेशी शक्ति का सामना करने के लिए वे प्रायः परस्पर संगठित भी न होते थे। इसके फलस्वरूप प्रत्येक आक्रमण के पश्चात् उनमें से एक या दो नरेशों का राज्य समाप्त हो जाता था। इस प्रकार राजनैतिक दृष्टि से तत्कालीन वातावरण आन्तरिक और बाह्य संघर्षो के कारण अत्यंत विक्षुब्ध हो गया था।

सामाजिक अवस्था

सांस्कृतिक दृष्टि से भी वीरगाथा काल में पारस्परिक संघर्ष की स्थिति ही मुख्य रहती थी। उस समय विवाह, मेले और उत्सव आदि समस्त सामाजिक कार्य अंत में युद्ध अथवा संघर्ष में बदल जाते थे। हाल यह है कि उस समय प्रेम के स्थान पर बैर-साधन का भाव ही मुख्य हो गया था। इस प्रकार के वातावरण के कारण समाज के नैतिक बन्धन भी पर्याप्त शिथिल हो गए थे। यहाँ तक कि केवल स्त्रियों की प्राप्ति के विषय को लेकर ही उस समय बड़े से बड़े युद्ध हो जाते थे। उस समय की संपूर्ण संस्कृति का निर्माण ही युद्ध की भावना को लेकर होता था। इस विषय में अन्य सभी प्रकार के आदर्श प्रायः लुप्त हो गए थे। यदि इस युद्ध भावना का किसी एक ही राष्ट्रीय आधार पर संगठन किया गया होता तब भी ठीक होता, किंतु यहाँ स्थिति सर्वथा विपरीत थी। राष्ट्र का अर्थ केवल किसी एक राज्य विशेष से ही लिया जाने लगा था। इस प्रकार इस युग की संस्कृति हमारी शौर्य – भावना का तो प्रतिनिधित्व करती थी, किंतु हमारी परंपरागत शांति की भावना का वहाँ सर्वथा लोप था।

साहित्यिक अवस्था

वीरगाथा काल का साहित्य मूलतः वीर रस पर आधारित रहा है। उस में अन्य रसों का प्रयोग प्रायः गौण रूप से हुआ है और उन्होंने सर्वत्र वीर रस को ही उत्कर्ष प्रदान किया है। इस युग के ग्रंथों की रचना चारण कवियों ने राज्याश्रय में की थी। अतः इस प्रकार के अधिकांश काव्य राजकीय संग्रहालयों में सुरक्षित रहते थे। कुछ कृतियाँ उनकी वंश परंपरा में जीविकोपार्जन के लिए भी प्रयुक्त होती थीं। अनेक व्यक्तियों के व्यवहार में आने के कारण उनके मूल रूप में अंतर भी आ जाता था, किंतु प्रारंभ में ही इस दोष को समाप्त करने का प्रयत्न किसी ने भी न किया। ‘आल्हा-खंड’ एक इसी प्रकार की रचना है। सदियों से उत्तर भारत के गाँवों में प्रचलित रहने के कारण इसके अनेक रूप प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार इस युग के प्रायः सभी काव्यों में पाठ भेद की स्थिति भी रही है। इसके अतिरिक्त बाद के कवि भी अपनी ओर से काव्य-रचना कर उसे मूल कवि के नाम से ही उसके काव्य में समाविष्ट कर देते थे। वे प्रायः अपने आश्रयदाताओं के विषय में काव्य-प्रकरण लिखते थे और उन्हें प्रसन्न करने के लिए इन प्राचीन प्रतिष्ठित काव्यों में उनका समावेश कर देते थे। वीर-काव्य का विश्लेषण करते समय इस प्रकार की प्रक्षिप्त सामग्री भी पर्याप्त असुविधा उत्पन्न कर सकती है। अस्तु, रस- निर्वाह और सामान्य प्रवृत्ति की दृष्टि से ये सभी काव्य अत्यंत सुंदर बन पड़े हैं। ये प्रायः ‘रासो’ के नाम से प्रसिद्ध है, जिसकी उत्पत्ति संभवतः ‘रसायन’ शब्द से हुई है। इस युग के प्रमुख वीर-काव्यों का परिचय इस प्रकार है-

(1) खुमान रासो –

इस काव्य की रचना कविवर दलपति विजय ने की थी। यह एक प्रबन्ध काव्य है और इसमें चित्तौड़ राज्य के खुमाण द्वितीय ( सम्वत् 870 – 100 ) के राज्य काल का वर्णन किया गया है। इसके रचयिता के विषय में कुछ विद्वान् सन्देह प्रकट करते हुए इसे ब्रह्मभट्ट नामक कवि की रचना मानते हैं। इसमें वीर रस को मुख्य स्थान प्राप्त हुआ है। इस समय इसकी कोई भी शुद्ध प्रति प्राप्त नहीं होती।

(2) बीसलदेव रासो –

यह एक वीर गीतात्मक काव्य है। इसकी रचना नरपति नाल्ह नामक कवि ने की थी। इसमें कवि ने महाराज विग्रहराज चतुर्थ बीसलदेव’ के राज्य- काल का वर्णन किया है। भाव पक्ष की दृष्टि से यह काव्य अपने युग की अन्य कृतियों से भिन्न है। इसमें वीर रस के स्थान पर शृंगार रस को मुख्य स्थान प्राप्त हुआ है। इसकी रचना चार खण्डों में हुई है। भाव योजना की दृष्टि से कवि को इसकी रचना में पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है। अपने युग के अन्य काव्यों की तुलना में इसमें प्रक्षिप्तता (अन्य कवियों द्वारा बाद में जोड़े गए छंद) का अंश भी अधिक नहीं है।

(3) पृथ्वीराज रासो –

यह वीरगाथा काल की सर्वश्रेष्ठ रचना है। हिंदी का प्रथम महाकाव्य होने का गौरव भी इसे ही प्राप्त है। इस समय इसकी कोई भी शुद्ध प्रति नहीं मिलती। इसकी रचना कविवर चंदबरदाई ने की है। उन्होंने इसमें अपने आश्रयदाता महाराज पृथ्वीराज की जीवन घटनाओं का अत्यंत विस्तार से वर्णन किया है। इसमें वीर रस को प्रमुख और शृंगार रस को गौण स्थान प्राप्त हुआ है। अन्य रसों का प्रयोग इसमें वीर रस के सहायक रसों के रूप में हुआ है। इस काव्य में डिंगल  भाषा का प्रयोग हुआ है, तथापि इसमें अरबी, फारसी, तुर्की और संस्कृत आदि अन्य भाषाओं के शब्द भी प्राप्त होते हैं। इसमें छंदों एवं अलंकारों का व्यापक प्रयोग हुआ है। प्रक्षिप्त अंशों के समावेश के कारण इस कृति का अधिकांश भाग अप्रामाणिक है। रायबहादुर पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा, पंडित रामचंद्र शुक्ल आदि विद्वान इसे अप्रामाणिक मानते है और पंडित मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या, मिश्रबन्धु तथा डॉ. श्यामसुंदरदास आदि इसे प्रामाणिक मानते है।

(4) आल्हा-खंड-

इस काव्य के रचयिता कविवर जगनिक महोबे के चन्देल राजा परमाल के राजकवि थे। उन्होंने इसमें राजा परमाल के दो सामन्तों आल्हा और ऊदल की जीवन घटनाओं और उनके द्वारा किए गए युद्धों का विस्तृत वर्णन किया है। कुछ ऐतिहासिक पात्रों के होने पर भी इसके अधिकांश पात्र अनैतिहासिक हैं और इसमें प्रक्षिप्त घटनाओं का बाहुल्य रहा है। चरित्र चित्रण की दृष्टि से यह कृति अत्यंत सजीव बन पड़ी है। आल्हा का दृढ़ और ऊदल का भावुक चरित्र इसका प्रमाण है। वास्तव में इस कृति में ओज और उत्साह को प्रमुख स्थान प्राप्त हुआ है। इसकी भाषा नितांत व्यावहारिक है। समय के साथ-साथ उसमें परिवर्तन हुए है और आज उसने 12वीं शताब्दी की भाषा की अपेक्षा आधुनिक कन्नौजी बोली का रूप धारण कर लिया है। यह वीरगीतात्मक कृति है और प्रयोग की अधिकता के कारण इसकी प्रतियों में एकरूपता उपलब्ध नहीं होती।

(5) अन्य काव्य-

इन प्रमुख रचनाओं के अतिरिक्त वीरगाथा काल मे कविवर भट्ट केदार की ‘जयचंद प्रकाश’ और श्रीधर कवि की ‘रणमल्ल छंद’ नामक रचनाएँ प्राप्त होती हैं। इस युग के कुछ काव्य इस समय प्राप्त नहीं होते। इस प्रकार की रचनाओं में मधुकर कवि की ‘जयमयंक जस चन्द्रिका’ और शांर्गधर की ‘हम्मीर रासो’ नामक रचनाओं का उल्लेख मिलता है। वीर रस के अतिरिक्त इस युग में अमीर खुसरो तथा विद्यापति का मुक्तक काव्य भी उपलब्ध होता है, किंतु उसका उल्लेख इस निबंध के विषय से बाहर है।

विश्लेषण

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि साहित्यिक रूप में इस युग की परिस्थितियाँ अत्यंत धनी हैं। इस समय के संपूर्ण साहित्य की रचना चारण कवियों द्वारा हुई है। ये कवि अपने आश्रयदाताओं की वीरता और ख्याति का अत्युक्तिपूर्ण वर्णन करने में सिद्धहस्त थे। इन वर्णनों में ओज की अत्यधिक मात्रा रहती थी। इस युग का वातावरण ही इस प्रकार का था कि वीर रस के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार की रचना संभव न थी। यही कारण है कि इस समय के साहित्य में नीति तथा शृंगार आदि से संबंधित स्वतंत्र छंदों का प्रायः अभाव ही है। चारण कवि मुक्तक तथा प्रबंध, दोनों ही प्रकार के काव्य की रचना किया करते थे। उनके काव्य का भाव पक्ष अधिकांश में प्रत्यक्ष रूप से देखी गई घटनाओं पर आधारित रहता था और कल्पना का उपयोग प्रायः इन घटनाओं को अतिरंजना देने के लिए ही किया जाता था। ये वीर- काव्य प्रबंध तथा वीरगीत, दोनों ही रूपों में अत्यंत सुंदर बन पड़े है। इन सभी में कवियों ने अपने आश्रयदाताओं की अत्युक्तिपूर्ण चर्चा की है। कल्पना का अतिरंजित प्रयोग किया है, सरसता के लिए शृंगार का पुट दिया है और युद्धों का ओजस्वी वर्णन किया है।

वीरगाथा काल की सार्थकता यही है कि राजनैतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से विक्षुब्ध होने पर ही इस युग ने हमें ‘पृथ्वीराज रासो’ और ‘आल्हा खंड’ जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ प्रदान किए है। इस प्रकार के वातावरण में जनता में निराशा का फैल जाना स्वाभाविक था, किंतु चारण कवियों ने स्थिति को समझते हुए इस विषय में अपने कर्तव्य का पूर्ण रूप से पालन किया। यद्यपि यह सत्य है कि इन कवियों ने शौर्य को प्रायः अतिरंजित रूप में उपस्थित किया है, किंतु तत्कालीन वातावरण में जनता की रुचि को इस ओर प्रेरित करने के लिए यही आवश्यक भी था। उस समय की धार्मिक स्थिति को देखते हुए इस साहित्य का महत्त्व हमारे लिए और भी अधिक बढ़ जाता है। इस युग में सिद्ध और नाथ संप्रदायों के योगी अपने उपदेशों द्वारा जनता को कर्म से विरक्त कर जड़ता की ओर उन्मुख कर रहे थे। इस स्थिति में उनके प्रभाव को नष्ट करने में वीरगाथाकालीन साहित्य ने निश्चित रूप से युगान्तरकारी योग दिया। इस साहित्य की सार्थकता यही है कि यह मानव के मन में अखंड विश्वास की ज्योति को जगा सका और उसके लिए एक निश्चित कल्याणमय कर्म-पथ की ओर निर्देश कर सका। चेतना के लाभ और विकास की यह अवस्था किसी भी साहित्य के लिए निश्चित रूप से नितांत गौरव की वस्तु है।

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