मन की रागात्मक चेतना का स्पर्श करने के कारण कविता सदैव व्यक्ति को अपनी ओर आकर्षित करती रही है। हिंदी साहित्य का प्रारंभ भी कविता से ही हुआ है। विषय प्रसार की दृष्टि से हम उसे साधारणतः चार युगों में विभक्त कर सकते हैं। इन युगों के प्रचलित नाम इस प्रकार हैं-
(1) वीरगाथा काल
(2) भक्ति काल
(3) रीति काल
(4) आधुनिक काल
हिंदी – कविता के विकास को हृदयंगम करने के लिए हमें स्पष्टतः इन युगों की साहित्यिक प्रवृत्तियों का अध्ययन करना चाहिए। अतः आगे हम इन सब का पृथक् पृथक् परिचय उपस्थित करते है।
वीरगाथा काल
काल-क्रम की दृष्टि से वीरगाथा काल की अवधि को सामान्यतः सम्वत् 1050-1375 तक नियत किया गया है। इस समय यवन आक्रमण के फल- स्वरूप भारतवर्ष में सर्वत्र युद्ध का वातावरण उपस्थित रहता था और कविगण अपने आश्रयदाता नरेशों को उत्साह प्रदान करने के लिए वीर रसात्मक कविताओं की रचना किया करते थे। इस युग के काव्य की रचना प्रायः प्रबंध काव्य के रूप में हुई है, तथापि मुक्तक काव्य की पद्धति के अंतर्गत भी कुछ कवियों ने वीर-गीतों एवं स्वतंत्र छंदों को उपस्थित किया है।
वीरगाथा काल की प्रबन्धात्मक काव्य रचनाओं में कविवर चंदबरदाई का “पृथ्वीराज रासो’ श्रौर वीरगीतात्मक कृतियों में कविवर नरपति नाल्ह का ‘बीसलदेव रासो’ और जगनिक का ‘आल्हा-खंड’ उल्लेखनीय रचनाएँ हैं। इस युग के अन्य कवियों में कवि श्री दलपति विजय, भट्ट केदार और शांर्गधर का भी अच्छा काव्य प्राप्त होता है। कविवर नरपति नाल्ह के अतिरिक्त इन सभी कवियों ने अपनी रचनाओं में वीर रस को मुख्य स्थान प्रदान करते हुए शौर्यभाव की अभिव्यक्ति पर विशेष बल दिया है। यद्यपि भाषा तथा छंद-प्रयोग की दृष्टि से इन कृतियों का स्थान गौण ही है, तथापि वीर-भावों की दृष्टि से ये अनुपम हैं और इनका चिरकालीन महत्त्व है।
भक्ति काल
वीरगाथा युग के पश्चात् हमारे समक्ष भक्ति युग (सम्वत् 1375 – 1700) का शांत वातावरण आता है। कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, रहीम एवं रसखान जैसे हिंदी के सर्वप्रसिद्ध कवियों ने इसी युग में काव्य-रचना की थी। इस युग के कवियों ने साधना प्रणाली के भेद से अपनी भावनाओं को चार रूपों में उपस्थित किया है। भक्ति के ‘निर्गुण’ एवं ‘सगुण’ नामक दो रूपों को स्वीकार करते हुए इस युग में निर्गुण भक्ति मार्ग का आश्रय लेने वाले कवियों ने अपनी भावनाओं को ज्ञान प्रणाली एवं प्रेम प्रणाली के आधार पर विभाजित किया है। इसी प्रकार सगुण भक्ति शाखा के कवियों ने भगवान् राम और कृष्ण की उपासना की है।
निर्गुण-भक्ति-परंपरा
निर्गुण भक्ति के ज्ञानमार्गी पक्ष का समर्थन करने वाले कवि ब्रह्म को ज्ञान-साधना द्वारा प्राप्त करने की विधि पर बल देते थे। उनके काव्य में सामान्यतः एकेश्वरवाद, धार्मिक मत-मतान्तारों की रूढ़ियों का विरोध, अन्ध- विश्वासों की समाप्ति, संसार की क्षणिकता और हिंदू-मुस्लिम प्रेम आदि विषयों की चर्चा हुई है। इस धारा के कवि प्रायः अशिक्षित थे और उन्होंने सज्जन- सत्संग एवं हृदय की एकनिष्ठता के आधार पर भक्ति भावों का प्रतिपादन किया है। उनके काव्य में कला-पक्ष की अपेक्षा भाव पक्ष विशेष समृद्ध रहा है। इस धारा के कवियों में महात्मा कबीर का स्थान उनके सर्वप्रमुख है और पदों तथा दोहों का संग्रह ‘बीजक’ नामक ग्रंथ में हुआ है। उनके अतिरिक्त सर्वश्री धर्मदास, दादूदयाल, मलूकदास, गुरु नानक, सुंदरदास और पीपा आदि कवियों ने भी साधारणतः श्रेष्ठ नीतिपरक तथा भक्तिमय काव्य की रचना की है। इस धारा के काव्य के सामान्य परिचय के लिए महात्मा कबीर के काव्य का अध्ययन पर्याप्त है।
निर्गुण भक्ति में प्रेम-पक्ष का समावेश करने वाले कवियों में जाएसी का प्रमुख स्थान है। उनके अतिरिक्त इस धारा को विकासोन्मुख रखने में कुतुबन, मंझन, शेख नबी, नूर मुहम्मद आदि अन्य कवियों ने योग प्रदान किया है। इन्होंने निर्गुण भक्ति का प्रतिपादन करते समय उसमें ज्ञान-तत्त्व के स्थान पर प्रेम-तत्त्व को स्थान दिया है। सामान्यतः इन्होंने आत्मा को पति तथा परमात्मा की पत्नी के रूप में कल्पना करते हुए अपने काव्य में एक आध्यात्मिक रूपक की स्थापना की है। इन्होंने प्रचलित हिंदू-जन-कथाओं के माध्यम से अध्यात्म- तत्त्व का स्पष्टीकरण किया है। इन काव्यों की रचना अवधी भाषा में चौपाई तथा दोहा नामक छंदों में हुई है। इनमें ‘पद्मावत’, ‘मृगावती’, ‘मधुमालती’ ‘और ‘इन्द्रावती’ उल्लेखनीय हैं। इनके अध्ययन से भारतीय दार्शनिक विचार- धारा के अतिरिक्त फारसी के प्रेम काव्य का साधारण परिचय भी मिल जाता है।
सगुण-भक्ति-परंपरा
सगुण भक्ति-धारा को भी सामान्यतः राम भक्ति और कृष्ण-भक्ति के दो पक्षों में विभाजित किया जा सकता है। राम भक्ति शाखा के कवियों में गोस्वामी तुलसीदास का प्रमुख स्थान है। उनके सहयोगी कवियों ने प्रायः उनका ही अनुकरण किया है। गोस्वामीजी की रचनात्रों में ‘रामचरितमानस’, ‘विनयपत्रिका’, ‘गीतावली’ और ‘कवितावली’ प्रमुख है। उन्होंने राम-भक्ति में शील और मर्यादा का समावेश करते हुए उसे अत्यंत आदर्श रूप प्रदान किया है। उनके काव्य में शांत रस का भव्य रूप प्राप्त होता है। भावना के अतिरिक्त कला क्षेत्र में भी उन्होंने अपनी प्रतिभा का पूर्ण परिचय दिया है। अवधी और ब्रजभाषा दोनों पर उनका समान अधिकार रहा है।
सगुण मार्ग के कृष्ण भक्त कवियों में कविवर सूरदास का सर्वश्रेष्ठ स्थान है। उनके अतिरिक्त अष्टछाप के नंददास, कृष्णदास, छीतस्वामी, परमानंद दास आदि अन्य कवियों तथा मीरा एवं रसखान ने भी उत्कृष्ट भक्ति-पदों की रचना की है। इन सभी कवियों का काव्य मुक्तक रूप में प्राप्त होता है। इन्होंने ब्रजभाषा को अत्यंत सरस रूप में उपस्थित किया है। इस धारा की कृतियों में भक्त सूरदास की ‘सूर-सागर’ तथा कविवर नंददास की ‘रास- पंचाध्यायी’ एवं ‘भँवरगीत’ नामक कृतियाँ उल्लेखनीय हैं। इस धारा के कवियों ने श्रीकृष्ण के चरित्र के वात्सल्य, शृंगार एवं शांत नामक रसों से सम्बद्ध पक्षों को अत्यंत सरस रूप में उपस्थित किया है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भक्ति युग की कृतियों में संत कबीर का ‘बीजक’, जाएसी का ‘पद्मावत’, सूरदास का ‘सूरसागर’, गोस्वामी तुलसीदास का ‘रामचरितमानस’ और मीराबाई का ‘ पदावली – साहित्य’ प्रमुख हैं। इन सभी रचनाओं में भक्ति और नीति के स्वर प्रमुख रहे हैं और प्रायः भाषा तथा भावना में सामंजस्य स्थापित करने की चेष्टा की गई है।
रीति काल
भक्ति युग के अनंतर हमारे समक्ष रीति युग (सम्वत् 1700 – 1600) का शृंगारिक वातावरण आता है। इस अवधि में कवि-कर्म के साथ-साथ काव्य-रचना के नियमों की चर्चा करने का कार्य भी समानांतर रीति से हुआ है। प्रायः एक ही व्यक्ति ने कवि और आचार्य, दोनों रूपों में उपस्थित होने की चेष्टा की है। इस प्रकार के कवियों में सर्वश्री केशवदास, भूषण, देव, चिंतामणि मतिराम एवं भिखारीदास प्रमुख हैं। इन कवि-आचार्यों ने अपनी-अपनी रुचि के आधार पर रस संप्रदाय, अलंकार-संप्रदाय अथवा ध्वनि- संप्रदायों में से किसी एक का अपने काव्य शास्त्रों तथा कविताओं में समर्थन किया है।
इनके अतिरिक्त केवल कवि-कर्म में लीन व्यक्तियों में कविवर बिहारीलाल, वृंद, घनानंद और लाल के नाम मुख्य है। बिहारी की ‘सतसई’ रीति काल के शृंगार-काव्य में सर्वश्रेष्ठ रचना है। शृंगार रस के अतिरिक्त इसमें कतिपय भक्ति और नीति-संबंधी दोहों द्वारा शांत रस का भी समुचित समावेश हुआ है। वीररस की दृष्टि से इस युग में महाकवि भूषण ने ‘शिवराज-भूषण’, ‘शिवा बावनी’, और ‘छत्रसाल – दशक’, लाल ने ‘छत्र- प्रकाश’, और सूदन ने ‘सूदन – रत्नावली’ नामक ग्रंथ उपस्थित किए हैं। इसके अतिरिक्त इस युग के प्रमुख काव्यशास्त्रों तथा काव्य-ग्रंथों में महाकवि केशवदास के ‘रामचन्द्रिका’, ‘कविप्रिया’ और ‘रसिकप्रिया’; देव के ‘सुजान – बोध’ और ‘भवानी – विलास’ ; घनानंद के ‘घनानंद-ग्रंथावली’; वृंद के ‘वृंद सतसई’ और भिखारीदास के ‘काव्य- निर्णय’ उल्लेखनीय है।
आधुनिक काल
रीति युग के उपरांत हमारा प्रवेश सीधे आधुनिक काल में होता है। काल-क्रम की दृष्टि से इस युग का प्रारंभ सम्वत् 1900 से होता है। भावों की विभिन्नता और व्यापकता की दृष्टि से इस युग का अपना पृथक् महत्त्व है। इस अवधि की काव्य-रचनाओं को हम मूलतः भारतेंदु-युग, द्विवेदी युग, प्रसाद-युग और प्रसादोत्तर-युग में विभाजित कर सकते हैं। इस श्रेणी – विभाजन के अनुसार विचार करते समय सर्वप्रथम हमारे समक्ष भारतेंदु-युग आता है। इस युग में शृंगार रस की तीव्रता का विरोध करते हुए उसका भक्ति के साथ सह-भाव स्थापित किया गया और राष्ट्र-प्रेम की कविताओं की रचनाओं की आवश्यकता के संकेत उपस्थित किए गए। इस युग के कवियों में सर्वश्री भारतेंदु हरिश्चंद्र, बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’, प्रतापनारायण मिश्र और सत्यनारायण ‘कविरत्न’ प्रमुख हैं। इन सभी कवियों ने प्रायः कृष्ण-भक्ति, शृंगार रस, राष्ट्र प्रेम और हास्य रस को लेकर काव्य- रचना की है।
द्विवेदी युग में राष्ट्रीय काव्य-धारा को विशेष प्रोत्साहन प्राप्त हुआ और कविगण ब्रजभाषा के क्षेत्र से विमुख होकर खड़ी बोली में काव्य-रचना करने लगे। भावनाओं की दृष्टि से भी इस युग में प्राचीन विचारधारा का परित्याग कर नवीन विचारों के प्रति उत्साह प्रदर्शित किया गया। इस युग में स्फुट कविताओं के अतिरिक्त अनेक उत्कृष्ट महाकाव्यों तथा खंड-काव्यों की भी रचना की गई। इन कृतियों में ‘साकेत’, ‘जयद्रथ वध’, ‘प्रियप्रवास’, ‘वैदेही- वनवास’, ‘पथिक’, ‘मिलन’, ‘कादम्बिनी’ और ‘भारत-भारती’ मुख्य है। इस युग के कवियों में सर्वश्री महावीरप्रसाद द्विवेदी, बालमुकुन्द गुप्त, मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ और गोपाल शरण- सिंह उल्लेखनीय हैं।
प्रसाद-युग में हिंदी – कविता के क्षेत्र में छायावाद’ के शीर्षक से एक नवीन काव्य-धारा का प्रारंभ हुआ। इसमें प्रकृति-सौंदर्य के चित्रण की ओर विशेष ध्यान दिया गया और कविगरण कल्पना के आधार पर अव्यक्त को भी व्यक्त रूप प्रदान करने के लिए सचेष्ट रहने लगे। इन कवियों में श्री जयशंकर ‘प्रसाद’, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ और महादेवी वर्मा प्रमुख है। इन्होंने अपनी रचनाओं में छायावाद को प्रमुख अभिव्यक्ति प्रदान की है। ‘प्रसाद’ जी का ‘कामायनी’ नामक महाकाव्य भी इस युग में लिखा गया और पंत जी ने अपने ‘पल्लव’ तथा ‘निराला’ जी ने अपने ‘परिमल’ की रचना भी इसी समय की। इसी युग के आस-पास सुश्री महादेवी वर्मा ने अपनी ‘यामा’ नामक काव्य-रचना द्वारा तथा डॉ. रामकुमार वर्मा ने अपनी विभिन्न कविताओं के माध्यम से छायावाद के साथ-साथ रहस्य- वाद की भी सरस व्याख्या उपस्थित की।
प्रसादोत्तर युग के अधिकांश कवि प्रसाद-युग से ही संबंधित हैं अर्थात् उनका काव्य-रचना-काल उसी युग में प्रारंभ हो गया था। तथापि इस युग में सर्वश्री बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, माखनलाल चतुर्वेदी, हरिकृष्ण ‘प्रेमी’, ‘दिनकर’ उदयशंकर भट्ट, नरेन्द्र शर्मा और सोहनलाल द्विवेदी आदि अनेक नवीन कवियों ने हिंदी – काव्य-क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान बनाया। काव्य-धारा की दृष्टि से इस अवधि में श्रीयुत् हरिवंशराय ‘बच्चन’ ने हालावाद और कविवर सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ ने प्रयोगवाद का प्रवर्तन किया। इन दोनों नवीन काव्य धाराओं का कुछ आलोचकों द्वारा समर्थन किया गया है और कुछ ने इनके प्रति विरोध प्रदर्शित किया है। इन दोनों के मध्य में पर्याप्त समय तक साम्यवाद के सिद्धांतों पर आधारित प्रगतिवाद को भी प्रमुख स्थान प्राप्त रहा, किंतु अब उसकी ओर कवियों का अधिक ध्यान नहीं रहा है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि वर्तमान हिंदी कविता में राष्ट्रीयता, सामाजिकता और प्रकृति प्रेम का व्यापक आधार पर समावेश किया गया है। कला- क्षेत्र में छन्दोबद्ध कविताओं के अतिरिक्त काव्य में प्रबन्धात्मकता, गीति- तत्त्व, मुक्त छंद-प्रणाली और अतुकांत रचना का समावेश किया गया है। नवीन काव्य विषयों में सबसे अधिक उल्लेखनीय विषय कविताओं में ग्रामगीतों की भावनाओं का समावेश करना है। भारतीय ग्राम गीतों में विविध पारिवारिक आदर्शो तथा मानव स्नेह का जो सहज समावेश उपलब्ध होता है, उससे समन्वित होने पर हिंदी कविता निश्चित ही विशेष गौरव को प्राप्त कर सकेगी। विभिन्न प्रान्तीय भाषाओं के काव्य के हिंदी अनुवाद और उनसे प्रेरणा लेकर काव्य लिखने की भी आज अत्यंत प्रावश्यकता है।