Sahityik Nibandh

हिंदी काव्य में राष्ट्रीय भावना

Hindi Kavya Me Rashtreey BHavna Ka chitran

हिंदी काव्य में राष्ट्रीय भावना का चित्रण मुख्य रूप से आधुनिक युग में ही हुआ है। इससे पूर्व वीरगाथा काल में उसकी एक धारा प्राप्त अवश्य होती है, किंतु वह अपने आप में अत्यंत क्षीण है। इसका कारण यही है कि उस युग में उत्साह की भावना पूर्ण रूप से विकास प्राप्त करने पर भी एक सीमा से बाहर नहीं जा सकती थी। उस समय के चारण कवि अपने आश्रयदाता नरेशों को प्रसन्न करने के लिए जिस काव्य की रचना किया करते थे वह उत्साह से युक्त होने पर भी राष्ट्रीयता का केवल स्पर्श ही करता था। राष्ट्र-चेतना का पूर्ण विकास उस युग के काव्य में देखने को नहीं मिलता। यही कारण है कि उसकी ओर आकर्षित होने पर भी हम उसका अध्ययन करने पर पूर्ण आनंद प्राप्त करने में असमर्थ रहते है।

भक्ति काल में भारतवर्ष पर मुगलों का शासन स्थापित हो चुका था। पराजित होने के कारण जनता का सब उत्साह नष्ट हो चुका था। अतः उस समय राष्ट्रीय काव्य की रचना का प्रश्न ही नहीं उठता था। उस समय जनता शांति की खोज में थी। इस आवश्यकता को पहचानकर सर्वश्री कबीर, सूर, तुलसी तथा मीरा ने अपने भक्तिपूर्ण पदों द्वारा जनता को एक अपूर्व शांति प्रदान की। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि बदली हुई राजनैतिक परिस्थिति के कारण उस युग के कवियों के समक्ष राष्ट्रीय भावों को उपस्थित करने का अवकाश ही न था। अतः भक्ति काल में काव्य की यह धारा पूर्ण रूप से उपेक्षित ही रही।

रीति काल में कवियों का ध्यान मुख्य रूप से शृंगार रस की कविताएँ लिखने की ओर ही रहा। फिर भी इस युग में कविवर भूषण, लाल तथा सूदन ने अपने वीर रस से पूर्ण काव्य द्वारा राष्ट्रीय चेतना को फिर से जीवित करने का प्रयत्न किया। इन तीनों कवियों में भूषण को सबसे अधिक सफलता प्राप्त हुई। उनकी कविताओं में केवल वीरवर शिवाजी अथवा छत्रसाल की वीरता का ही वर्णन नहीं है, अपितु उन्होंने राष्ट्र का ध्यान रखते हुए उनमें अन्य अनेक उपयोगी तत्त्वों का भी समावेश किया है। खेद है कि उन्हें रीति काल में शृंगार काव्य की रचना करने वाले कवियों की ओर से उचित सहयोग नहीं मिला। यही कारण है कि राष्ट्रीय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने पर भी उनके काव्य का उस समय अधिक प्रचार नहीं हो सका।

आधुनिक काल हिंदी साहित्य के लिए प्रत्येक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण रहा है। आज साहित्य के जो अंग विकास कर रहे हैं, उनमें से अधिकांश का उदय आधुनिक काल के प्रारंभ में ही हुआ था। राष्ट्रीय कविता का पूर्ण ओज भी वास्तव में यहीं से प्रारंभ होता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र और उनके सहयोगी कवियों ने अपने समय की राजनैतिक स्थिति का ज्यों का त्यों चित्रण करते हुए देश की भलाई और बुराई, दोनों का ध्यान रखा है। भारतेंदु-युग के कवि अपनी कविताओं द्वारा जनता का ध्यान भी इस ओर आकर्षित करना चाहते थे। इस दिशा में उन्हें पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है। उदाहरणार्थं भारतेंदु हरिश्चंद्र की निम्नलिखित मर्मस्पर्शी पंक्तियाँ देखिए-

“रोबहु सब मिलि, आबहु भारत भाई।

हा ! हा ! भारत-दुर्दशा न देखी जाई!”

इसी युग में पंडित प्रतापनारायण मिश्र ने भारतवर्ष की भाँति भारत की लोकप्रिय भाषा हिंदी के गौरव की भी स्थापना की। उन्होंने अपने काव्य में इन दोनों की व्यापक स्थापना की है। उन्होंने जनता को नवीन स्फूर्ति और सजग उल्लास प्रदान किया है। उनके समकालीन कवि पंडित सत्यनारायण ‘कविरत्न’ ने भी इसी भाव को विकसित करते हुए अपने ‘भ्रमरगीत’ नामक काव्य में श्रीकृष्ण से भारतवर्ष का स्मरण कर उसकी रक्षा करने की प्रार्थना की। इसी समय पंडित श्रीधर पाठक ने राष्ट्रीय भावों की अभिव्यक्ति के लिए प्रकृति से सहायता ग्रहण की। उन्होंने भारतवर्ष के प्राकृतिक सौंदर्य का अत्यंत सुंदर चित्रण किया। इस प्रकार उनके वर्णनों ने भी हमारे हृदय में स्वदेश के प्रति अनुराग की भावना को जाग्रत किया।

द्विवेदी युग में श्रीयुत महावीरप्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से राष्ट्रीय कविता का स्वरूप निरंतर विकासमग्न रहा। उनके समकालीन कवियों में पंडित अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने इस भाव की पूर्ण रक्षा की। उन्होंने अपने काव्य में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में राष्ट्रीय भाव-धारा का पर्याप्त समावेश किया है। उन्होंने अपने प्रियप्रवास’ में कृष्ण और राधा, दोनों को ही लोक- सेवा में मग्न दिखाया है। इसी प्रकार ‘रस- कलश’ में नायिका भेद का उल्लेख करते हुए उन्होंने स्वदेश के प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन करने वाली नायिकाओं की कल्पना की है। द्विवेदी युग के एक अन्य महाकवि श्रीयुत मैथिलीशरण गुप्त हैं। उन्होंने अपनी कविताओं में भारतीय संस्कृति की मर्यादानों का पूर्ण निर्वाह किया है। इस दिशा में उनके ‘भारत-भारती’, ‘अजित’ और ‘जयभारत’ नामक काव्य-ग्रंथ विशेष सुंदर और प्रेरणाप्रद बन पड़े हैं। ‘साकेत’ और ‘यशोधरा’ जैसे अन्य काव्यों में भी उन्होंने स्थान-स्थान पर राष्ट्रीय भाव को अभिव्यक्ति प्रदान की है। ‘भारत-भारती’ में उन्होंने भारतवर्ष की प्राचीन सभ्यता और समृद्धि का उपयुक्त चित्रण किया है। इसके अतिरिक्त वर्तमान जीवन के प्रति असन्तोष प्रकट करते हुए उन्होंने उसके आधार पर भविष्य के प्रति भी चिन्ता व्यक्त की है। इस विषय में उनकी निम्नलिखित पंक्तियों पढ़ने योग्य है-

“हम कौन थे क्या हो गये हैं और क्या होगे अभी।

आओ विचारें आज मिलकर ये

समस्याएँ सभी॥”

गुप्तजी के पश्चात् कविवर जयशंकर प्रसाद का नाम विशेष उल्लेखनीय है। उन्होंने कविताओं के साथ-साथ नाटकों की भी रचना की है। और इन सभी में भारतीय इतिहास को राष्ट्रीय रूप में उपस्थित किया गया है। ‘कामायनी’ नामक महाकाव्य में उन्होंने मनु और श्रद्धा की कथा को जिस सांस्कृतिक रूप में उपस्थित किया है उसमें राष्ट्रीयता के सभी चिह्न वर्तमान हैं। ‘स्कन्दगुप्त’, ‘चंद्रगुप्त’ तथा ‘राज्य-श्री’ नाटकों में भी उन्होंने गुप्तकालीन तथा हर्षयुगीन संस्कृति को राष्ट्रीय रूप में प्रस्तुत किया है।

वर्तमान युग में पंडित माखनलाल चतुर्वेदी और बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ ने राष्ट्रीय भाव धारा को विशेष समृद्धि प्रदान की है। चतुर्वेदीजी की कविताओं में राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति विशेष श्रद्धा मिलती है। उन्होंने राष्ट्र के जीवन में जाने वाली सभी विषमताओं का खुलकर विरोध किया है। उनकी कविताओं में उद्बोधन शक्ति का सर्वत्र संचार रहा है। ‘हिम-तरंगिणी’ तथा ‘हिम – किरीटिनी’ में उनकी इस प्रकार की अनेक कविताएँ मिलती हैं। आगे हम उनकी ‘पुष्प की अभिलाषा’ शीर्षक कविता की कुछ अमर पंक्तियाँ उपस्थित करते हैं –

“मुझे तोड़ लेना वनमाली

उस पथ पर देना तुम फेंक।

मातृ-भूमि पर शीश चढ़ाने,

जिस पथ जावें वीर अनेक॥”

पंडित बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ की कविताओं में राष्ट्र के प्रति एक विशेष आवाहन की भावना मिलती है। उन्होंने हमें भाव और कर्म, दोनों ही की दृष्टि से एक नवीन संदेश प्रदान किया है। व्यक्तित्व को दबाकर रखने की अपेक्षा वह उसको प्रकट करने में अधिक विश्वास रखते है। कविवर सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की कविताओं में भी लगभग यही भावना मिलती है। अंतर केवल यहीं है कि उन्होंने अपनी राष्ट्रीय कविताओं में ‘नवीन’ जी के उपर्युक्त भाव के अतिरिक्त माधुर्य भाव का भी समन्वय कर दिया है। आधुनिक युग के अन्य कवियों में कविवर रामधारीसिंह ‘दिनकर’ का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उन्होंने अपने काव्य में राष्ट्रीय चेतना का अंकन करते समय क्रांति की भावना को मुख्य रूप से अपनाया है। उनकी ‘हुँकार’, ‘कुरुक्षेत्र’ और ‘सामधेनी’ यादि सभी कृतियों में यही प्रवृत्ति मिलता है। वास्तव में वह भाव प्रतिपादन की दृष्टि से कविवर ‘नवीन’ की परंपरा में आते हैं और उन्होंने उन्हीं की विचारधारा की एक नवीन रीति से व्याख्या की है। स्वदेश के प्रति अपने सहज अनुराग के कारण वह उसमें व्याप्त विषमता के विष को किसी भी उपाय से नष्ट कर देना चाहते हैं-

“छिप जाऊँ कहाँ तुम्हें लेकर?

इस विष का क्या उपचार करूँ?

– प्यारे स्वदेश ! खाली जाऊँ?

या हाथों में तलवार धरूँ?”

वर्तमान युग के कुछ कवियों ने अपने राष्ट्रीय काव्य की रचना करते समय गांधीवाद से विशेष प्रेरणा प्राप्त की है। इन कवियों में कवि श्री सियाराम- शरण गुप्त और पंडित सोहनलाल द्विवेदी मुख्य है। द्विवेदीजी ने इस दिशा में गुप्तजी की अपेक्षा कहीं अधिक गंभीर कार्य किया है। उन्होंने राष्ट्र हित के लिए वर्तमान संघर्षवादी युग को छोड़कर ग्रामों की ओर लौट चलने की आवश्यकता पर विशेष बल दिया है। राष्ट्रीय भाव की पूर्ण प्रगति के लिए वह अहिंसा को अनिवार्य मानते है। इस प्रकार उन्होंने इस दिशा में अपने अन्य सहयोगी कवियों की अपेक्षा एक नवीन प्रयोग किया है, और इसमें उन्हें पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है।

साहित्य के अन्य क्षेत्रों की भाँति वर्तमान युग में महिलाओं ने भी राष्ट्रीय काव्य के सृजन की ओर ध्यान दिया है। इस दृष्टि से सुश्री सुभद्राकुमारी चौहान का नाम विशेष उल्लेखनीय है। उन्होंने राष्ट्र के प्रति अपनी श्रद्धांजलि को अत्यंत सरल और पवित्र शब्दों में व्यक्त किया है। उनकी कविताओं में उत्साह का अत्यंत सुंदर रीति से समावेश हुआ है। इस दृष्टि से उनकी ‘झाँसी की रानी’ शीर्षक कविता सर्वप्रमुख है। उन्होंने इस कविता में राष्ट्रीय भाव का सर्वत्र समान रूप से ध्यान रखा है। उनके अतिरिक्त कवयित्री महादेवी वर्मा और श्रीमती सुमित्रा कुमारी सिन्हा ने भी अपनी कुछ मुक्तक कविताओं में राष्ट्रीय विचारधारा को उपस्थित किया है।

संक्षेप में हिंदी काव्य में राष्ट्रीय भावना का विकास इसी क्रम से हुआ है। वर्तमान काल में श्रीयुत नरेंद्र शर्मा, शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ तथा रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ के नाम उल्लेखनीय है, किंतु उन्हें राष्ट्रीय काव्य की रचना में अधिक सफलता प्राप्त नहीं हुई है। इसका कारण यही है कि उन्होंने अपनी काव्य-वस्तु का संकलन भारत से न कर रूस की लाल भूमि से किया है। इस प्रकार उनके काव्य का आधार ही प्रारंभ दोषपूर्ण रहा है ! वास्तव में उन्हें राष्ट्रीय काव्य की रचना में केवल तभी सफलता प्राप्त हुई है जब ‘उन्होंने अपने प्रतिनिधि कवि श्रीयुत सुमित्रानंदन पंत की भाँति भारत के सांस्कृतिक आदर्शो की ओर उन्मुख होकर काव्य-रचना की है। अंत में हमारा प्रतिपाद्य यही है कि हिंदी की राष्ट्रीय काव्यधारा का उपर्युक्त अध्ययन करने पर उसके उज्ज्वल भविष्य के बारे में कोई शंका नहीं रह जाती। वर्तमान हिंदी कवियों ने लोक-गीतों के प्रति अपनी उपेक्षा का त्याग कर दिया है। उनकी यह सहृदयता अंत में लाभप्रद ही सिद्ध होगी। लोक-गीतों के अंचल में राष्ट्र-प्रेम की धारा अत्यंत निर्मल रूप से प्रवाहित हुई है। उनके अध्ययन से हमारे राष्ट्रीय काव्य को एक नवीन दिशा प्राप्त होगी।

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