रूपक दृश्य काव्य है। यह श्रव्य काव्यों की अपेक्षा अधिक प्रभावोत्पादक है, क्योंकि इसमें कल्पना को दृश्यों का प्रत्यक्ष आश्रय मिलता है। नाटक में स्थापत्य, चित्रकला, संगीत, नृत्य और काव्य इन सभी कलाओं का सामंजस्य मिलता है। भरत मुनि ने कहा है योग, कर्म, सारे शास्त्र, सारे शिल्प और विविध कार्यों में कोई ऐसा नहीं है जो नाटक में न पाया जाए। नाटक में केवल वर्णन मात्र ही नहीं होता वरन् उनका प्रदर्शन भी नेत्रों के सम्मुख आता है। शास्त्रीय भाषा में नाटक को रूपक कहते हैं। नाटक में रस का संचार काव्य और अभिनय दोनों के ही द्वारा होता है, इसलिए अन्य काव्यों की अपेक्षा नाटक रस-प्रवाह में सबसे अधिक सफल हुआ है। नाटक अनुकरण का दूसरा नाम है। हम नाटक में दूसरों की आत्माभिव्यक्ति कर लेते हैं और इस प्रकार रसास्वादन करते हैं। नाटक में पारस्परिक परिचय प्राप्त होता है और अनुकरण द्वारा हम दूसरों के जीवन में अपनी पैठ कर लेते हैं।
नाटक के प्रधान तत्त्व-नाटक के कथानक में पात्रों की विशेषता रहती है। चरित्र चित्रण नाटककार अपने मुख से कहकर अभिनय अन्य पात्रों द्वारा कराता है। कथानक भी कथनीय कथनों द्वारा ही प्रस्फुटित होता है। पानों का भाव-भंगी और क्रिया-कलाप भी इसमें सहायक होते हैं। नाटक लिखने का कुछ-न-कुछ उद्देश्य भी अवश्य रहता है। उसका संबंध धर्म, समाज, जाति अथवा इतिहास किसी से भी हो सकता है। इस प्रकार इन सभी कार्यों की पूर्ति के लिए नाटक में कथावस्तु, पात्र, चरित्र चित्रण अभिनय और रस के उद्देश्य का होना नितांत आवश्यक है। नाट्य शास्त्र में नाटक के चार तत्त्व माने हैं-वस्तु, पात्र, रस और अभिनय। कुछ आचार्य वृत्ति को पांचवीं तत्त्व मानते हैं। वृत्ति वास्तव में क्रिया-प्रधान शैली है जो कि अभिनय के अंतर्गत भी आ सकती है।
कथावस्तु — नाटक का कथानक ‘कथावस्तु’ कहलाता है। अंग्रेजी में इसे प्लाट (Plot) कहते हैं। यह मुख्य और गौण दो प्रकार का होता है जिसका संबंध गौण पात्रों तथा समस्याओं से रहता है। रामायण में राम की प्रधान कथा है परंतु इसके अंतर्गत, सुग्रीव, विभीषण इत्यादि की भी कथाएँ आ जाती हैं। वह अपने में संपूर्ण हैं परंतु फिर भी काव्य में उनका स्थान गौण ही है। कथा-वस्तु विशेष रूप से पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक अथवा काल्पनिक होती है। इसमें से किन्हीं भी दो के सम्मिश्रण से एक नवीन प्रकार की कथावस्तु भी बन सकती है। कथावस्तु की पाँच श्रेणियों था अवस्थाएँ नाट्य शास्त्र में मानी हैं-
(1) प्रारंभ – इसमें किसी फल के लिए इच्छा होती है।
(2) यत्न-इच्छा पूर्ति का प्रयत्न इसके अंतर्गत आता है।
(3) प्राप्त्याशा – इच्छित फल की प्राप्ति की आशा इसमें होती है।
(4) नियताप्ति-इस दशा में प्राप्ति के विषय में कुछ निश्चय हो जाता है।
(5) फलागम-क्योंकि नाटकों को सुखांत माना है इसलिए अंत में फल प्राप्ति आवश्यक है।
यूरोपीय नाट्य शास्त्रों में भी यह पाँच अवस्थाएँ-Exposition, Incident, Rising Action, Crisis, Denoument, Catastrophe के नामों से प्रसिद्ध हैं। इन्हीं अवस्थाओं द्वारा नाटक का उतार-चढ़ाव होता है।
अर्थ-प्रकृतियाँ-
अर्थ-प्रकृतियाँ
कथावस्तु के वह चमत्कार-पूर्ण अंग हैं जो कथावस्तु को कार्य की ओर ले जाते हैं। यह ‘बीज’, ‘बिन्दु’, ‘पताका’, ‘प्रकरी’ और ‘कार्य’ पाँच होती हैं।
संधियाँ –
संधियों में अवस्थाओं और अर्थ-प्रकृतियों का मेल कराया जाता है। यह संधियों एक-एक अवस्था की समाप्ति तक चलती है और प्रकृतियों से मेल कराती हैं। संख्याएँ भी अर्थ प्रकृतियों की भाँति पाँच हैं-‘मुख’, ‘प्रति-मुख’, ‘गर्भ’, ‘विमर्श’ और ‘निर्वहण’।
अर्थोपेक्षक-
नाटक में कुछ सामग्री ऐसी होती है जिसकी दर्शक को केवल पात्रों द्वारा सूचना भर दिलाई जाती है; उसे सूच्य कहते हैं और सूच्य की सूचना देने के साधन अर्थोपेक्षक कहलाते हैं। यह भी पाँच होते हैं।
(1) विष्कम्भक-इसमें पहले हो जाने वाली या बाद में होने वाली घटना की सूचना दी जाती है। केवल दो अप्रधान पात्रों के कथोपकथन द्वारा ऐसा कराया जाता है। नाटक के प्रारंभ अथवा दो अंकों के बीच में यह आ सकता है। शुद्ध और सकर इसके दो प्रकार हैं।
(2) चूलिका-पर्दे के पीछे में जिस कथा भाग की सूचना दी जाती हैं वह चूलिक कहलाता है।
(3) अंकास्य-अंक के अंत में मंच छोड़कर जाने वाले पात्रों से आगामी अंक की जो सूचना दिलाई जाती है वह अंकास्य कह-लाता है।
(4) अंकावतार-अंकावतार में बिना पात्रों के बदले हुए ही पिछले अंक की कथा को आगे चलाया जाता है। पहले ही अंक के पात्र बाहर जाकर फिर लौट आते हैं।
(5) प्रवेशक-प्रवेशक घटनाओं की सूचना देने के लिए होता है।
कथोपकथन-
कथोपकथन चार प्रकार का होता है।
(1) सर्वश्राव्य-जो सबके सुनने के लिए होता है।
(2) अश्राव्य-जो अन्य पानों के सुनने के लिए नहीं होता।
(3) नियत काव्य-जो कि कुछ नियत पात्रों के सुनने के लिए होता है और
(4) आकाशभाषित-जिसमें कि आकाश की ओर मुँह करके किसी कल्पित व्यक्ति से बात की जाती है।
पात्र-
नाटक में पात्रों की विशेषता रहती हैं। नाटक के सभी तत्त्व पात्रों के ही आश्रित रहकर चलते हैं। कथा का प्रधान पात्र नायक कहलाता है और उसे परखने की कसौटी यह है कि कथा का फल जिस पात्र से संबंधित हो, बस वही नायक है। श्रोता, दृष्टा और पाठक नायक के ही उत्थान और पतन में अधिक रुचि रखते हैं। हमारे नाट्य शास्त्रों में नायक को सभी उच्च और उदार गुणों से संपन्न माना है। वह विनयशील, त्यागी, कर्त्तव्य-परायण, कार्य-कुशल, वीर, पराक्रमी, उच्च वंशज, साहसी, स्वाभिमानी, कलाकार, सुंदर इत्यादि गुण वाला होना चाहिए। आज का नाटककार अपने नायक को सर्वगुण संपन्न तो चाहता है परंतु वह उच्च वंशज भी हो इसकी ओर विशेष जोर नहीं देता। वह तो कीचड़ से कमल खोजने का प्रयत्न करता है और मिट्टी से हीरा निकालता है। आज का नाटककार नायक को मानव मानकर चलता है, इसलिए उसके चरित्र में कमजोरियाँ आ सकती हैं। नायक कुछ विशेष गुण संपन्न होता है परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि वह सांसारिक कमजोरियों से मुक्त है। नाट्य शास्त्र में नायक चार प्रकार के माने हैं।
(1) धीरोदात्त-यह नायक शोक और क्रोध में विचलित नहीं होता, गंभीरता, क्षमादान, आत्म-श्लाघा न करने वाला, अहंकार-शून्य, दृढ़-व्रत होना यह इसके प्रधान गुण हैं। महाराज रामचंद्र धीरोदत्त के आदर्श हैं।
(2) धीरललित-यह नायक सरल स्वभाव वाला, सुख-संतोषी, कलाविद् और निश्चिंत होता है। शकुन्तला के महाराज दुष्यंत इसके उदाहरण हैं।
(3) धीरप्रशांत-यह नायक ब्राह्मण या वैश्य होता है, क्षत्रिय नहीं, क्योंकि संतोष इसका प्रधान गुण है। ‘माधवी-माधव’ का माधव इसका उदाहरण है।
(4) धीरोद्धत-यह नायक मायाबी और आत्मप्रशंसापरायण होता है धोखा और चपलता इसकी नस-नस में भरा रहता है। अहंकार और दर्प इसके गुण हैं। रावण इसका उदारण है।
नायकों के शृंगारिक दृष्टिकोण को सामने रखकर उन्हें चार भेदो में विभाजित किया गया है
(1) अनुकूल ऐसा नायक एक पत्नी व्रत होता है जैसे श्री रामचंद्र।
(2) दाक्षिण्य – जो नायक कई रानियों रखकर भी प्रधान महिषी का आदर करता हो और यथासंभव सबको प्रसन्न रखता हो। उदा-हरणस्वरूप श्रीकृष्ण को ले सकते हैं। (3) शठ-यह नायक अन्य स्त्रियों से भी प्रेम प्रकट अवश्य करता है परंतु निर्लज्जता के साथ नहीं।
(4) घृष्ट-यह नायक खुले रूप में दुराचार करता है और निर्लज्ज भी होता है। वह अपनी स्त्री का दिल दुखाने में भी नहीं चूकता।
विदूषक-
संस्कृत नाटकों में रहस्योद्घाटन के लिए विदूषक का प्रयोग किया जाता था। अंग्रेजी नाटकों में इस प्रकार के पात्र को क्लाउन कहते हैं। यह पात्र नाटक के गंभीर वातावरण में हास्य की पुट लाता है। नायक का यह विश्वासपात्र होता है। संस्कृत नाटकों में उसका ब्राह्मण होना आवश्यक था। नायक के प्रेम-कार्य में यह विशेष सलाहकार रहता है।
अन्य पात्र –
नायक और विदूषक के अतिरिक्त प्रतिनायक, नायिका, प्रति-नायिका यह तीन अन्य प्रधान पान होते हैं। नायक का कार्य बिना प्रतिनायक के संपन्न हो ही नहीं सकता और नायिका का इसी प्रकार प्रतिनायिका के बिना। इसलिए ये पात्र भी नाटक में उतने ही आवश्यक हैं।
चरित्र चित्रण-
नाटक में चरित्र चित्रण उपन्यास की भाँति विश्लेषणात्मक ढंग से न होकर परोक्ष या अभिनयात्मक ढंग से होता है। नाटक के पात्र एक दूसरे के चरित्र पर प्रकाश डालते हैं और कभी-कभी पात्र स्वयं अपने चरित्र का भी उद्घाटन करते हैं। स्वगत कथा अस्वाभाविक अवश्य लगती है, परंतु वह चरित्र पर प्रकाश डालने के लिए कहीं कहीं पर आवश्यक हो जाता है।
रस-सिद्धांत-
रस सिद्धांत की विवेचना हमारे यहाँ नाटकों से ही आरंभ होती है। प्रत्येक नाटक में कोई-न-कोई रस अंगी रूप से ले लिया जाता है और अंग रूप से दूसरे रस भी उसमें आते हैं। पश्चिमी नाटककारों ने इसकी अपेक्षा उद्देश्य को प्रधानता दी है। जैसे हमारे नाटककार किसी प्रधान रस को लेकर रचना करते हैं वैसे पाश्चात्य नाटककार किसी विशेष उद्देश्य को व्यक्त अथवा अव्यक्त रूप से लेकर चलते हैं। यह उद्देश्य आंतरिक और बाह्य रूपों से संबंध रखते हैं।
दुखांत और सुखांत नाटक-भारतीय साहित्य की आदर्शवादी बपौती है। इसी के आधार स्वरूप संस्कृत साहित्य में दुखांत नाटकों का समावेश नहीं किया गया। अच्छे काम करने वाले का अंत दुखमय दिखाकर समाज में अच्छे कामों के प्रति अभिरुचि नहीं हो सकती। यही कारण था कि नाटक में घोर करुणा रस का प्रवाह होने पर भी नाटककार उन्हें अंत में सुखांत हो कर देते थे। पाश्चात्य साहित्य में आदर्शवादिता का अभाव और यथार्थचादिता की प्रधानता मिलती है। दुखांत नाटक में दर्शक की सहानुभूति पात्रों के साथ स्वाभाविक रूप से हो जाती है। इस स्वाभाविक आकर्षण को भारतीय कलाकारों ने कला की कमजोरी मानकर उसे नहीं अपनाया। साथ ही भारतवासी जीवन का आदर करते थे और मंच पर मानव को इस प्रकार कष्ट होता हुआ देखकर आनंद का अनुभव नहीं कर सकते थे। यही कारण है कि भारतीय नाटककारों ने दुखांत नाटक न लिखकर सुखांत नाटक ही लिखे हैं। आज के युग में दुखांत नाटक का लिखा जाना भी प्रारंभ हो गया है।
अभिनय-
अभिनय नाटक का प्रधान अंग है। भरत मुनि ने अभिनय की विशद विवेचना की है। अभिनय के चार प्रधान प्रकार हैं।
(1) आंगिक-आंगिक अभिनय का संबंध पात्रों के रंगमंच पर अंग-संचालन विधि से है। वह किस प्रकार चलता है, उठता है, बैठता है, हाथ चलाता है, पैर चलाता है, नेत्र घुमाता है, भौंहें चलाता है, मुस्कराता है इत्यादि।
(2) वाचिक — इसके अंत-गंत वाणी और स्वर का संबंध है। वाणी द्वारा आंगिक अभिनय को स्पष्टता मिलती है। भरत मुनि ने वाणी के अभिनय में सार शास्त्र, व्याकरण तथा छंद-शास्त्र को लिया है। इसके अंतर्गत भिन्न-भिन्न श्रेणी के पात्रों से भिन्न-भिन्न स्वराघात के साथ भाषा बुलवाई जाती है।
(3) आहार्य अभिनय-इसके अंतर्गत पात्रों के विभिन्न प्रकार के आभूषणों, वस्त्रों और उनके रंगों का विवेचन किया जाता है। पात्रों के वर्णों का भी संबंध आहार्य अभिनय से ही है।
(4) सात्विक अभिनय-स्तम्भ, स्वेद, रोमांच, कंपन और अश्रुप्रभृत्ति द्वारा अवस्थानुकरण को सात्विक अभिनय कहते हैं।
वृत्तियाँ-
नाटक में चार वृत्तियाँ होती हैं
(1) कौशिकी वृत्ति-इसका संबंध शृंगार और हास्य से है।
(2) सात्विती बुत्ति-इसका संबंध शौर्य, दान, दया और दाक्षिण्य इत्यादि से है।
(3) आरभटी वृत्ति-माया, इंद्रजाल, संग्राम, क्रोध, संघर्ष, आघात-प्रतिघात इत्यादि इसके अंतर्गत आते हैं।
(4) भारती वृत्ति-इसका संबंध स्त्रियों से न होकर पुरुष नटों से रहता है। साहित्य दर्पणकार का मत है कि यह सभी रसों में प्रयोग की जाती हैं। इनका संबंध केवल शब्दों से है।
रूपकों के भेद-नाटक शब्द से रूपक शब्द अधिक व्यापक है। इसलिए भारतीय नाट्य शास्त्रज्ञों ने रूपक शब्द का ही प्रयोग किया है। रूपक रस प्रधान होते हैं और उपरूपक भाव प्रधान। रूपक दस प्रकार के होते हैं।
(1) नाटक – नाटक में पाँच संधियाँ, चार वृत्तियाँ और चौंसठ संध्य माने गए हैं। पाँच से दस तक अंक इसमें होते हैं। इसका विषय कल्पित नहीं होता और नायक धीरोदात्त होता है। उदाहरण में भवभूति के उत्तर रामचरित नाटक को ले सकते हैं। (2) प्रकरण-इसकी कथावस्तु नाटक की-सी होती है, परंतु इसका विषय कल्पित होता है। शृंगार रस की इसमें प्रधानता रहती है।
(3) भाण-यह एक अंक और एक पात्र होता है। इसमें धूर्त पात्र हास्य-प्रधान अभिनय करके दर्शकों को हँसाता है।
(4) व्यायोगं-यह वीर रस प्रधान एकांकीय नाटक होता है। इसमें स्त्री पात्र का अभाव रहता है।
(5) समवकार-12 तक इसके नायक हो सकते हैं। देवता और दानवों की इसमें कथा रहती है।
(6) डिम-इसमें 4 अंक और 16 नाटक होते हैं। रौद्र रस का इसमें प्राधान्य रहता है। (7) ईहामृग-इसमें धीरोदात्त नायक और एक प्रतिनायक रहता है। इसमें चार अंक होते हैं और कथा में प्रेम प्रधान रहता है।
(8) अंक-यह एक अंक का करुण रस प्रधान नाटक होता है।
(9) बीथी-यह शृंगार रस का कल्पित एक अंक का नाटक होता है।
(10) प्रहसन — इसमें हास्य रस की प्रधानता रहती है। उपरूपकों के यह अठारह भेद हैं-नाटिका, त्रोटक, गोष्ठी-सट्टक, नाट्य-रासक, प्रस्थानक, उल्लाप्य, काव्य, प्रेखण, रासक, संलापक श्रीगदित, शिल्पक, विलासिका, दुर्मल्लिका, प्रकरणिरा, हल्लीश और भाणिका।
रंगमंच –
अभिनय नाटक का प्रधान गुण है और इसके लिए रंगमंच की आवश्यकता है। हिंदी का रंगमंच अपूर्ण और अधूरा है। भरत मुनि ने तीन प्रकार की नाट्यशालाएँ बतलाई हैं – चतुरस्त्र, विकृष्ट और व्यस्य। वर्तमान युग में रंगमंच बहुत उन्नत दशा को प्राप्त हो चुका है। बिजली ने रंगमंच में कुछ ऐसी विशेषताएँ पैदा कर दी हैं कि दर्शक देखकर चकित रह जाता है। नवीन अविष्कारों ने रंगमंच के उत्थान में बहुत सहयोग दिया है। जो नाटक रंगमंच पर सफल नहीं हो सकते वह अधूरे हैं और उन्हें वह सम्मान प्राप्त नहीं हो सकता जो रंगमंच पर सफल उतरने वाले नाटकों को प्राप्त होगा।
इस प्रकार हमने रूप-शीर्षक के अंतर्गत नाटक के प्रधान तत्त्वों, नाटक की कथावस्तु, संधियाँ, अर्थप्रकृतियाँ, कथोपकथन, पात्र चरित्र चित्रण, रस-सिद्धांत, वृत्तियाँ और रंगमंच पर विचार किया। यह नाटक के प्रधान तत्त्व हैं और उत्तम नाटककार इन सबका सामंजस्य करके अपने ग्रंथ की रचना करता है।