Sahityik Nibandh

हिंदी नाटक का विकास

hindi naatak ka vikas

गद्य – साहित्य के अन्य अंगों की भाँति हिंदी में नाटक रचना का प्रारंभ भी भारतेंदु-युग में ही हुआ। हिंदी से पूर्व संस्कृत साहित्य में अनेक नाटकों की सफल रचना की गई थी। हिंदी का सर्वप्रथम उल्लेखनीय नाटक ‘नहुष’ है। इसकी रचना बाबू भारतेंदु हरिश्चंद्र के पिता श्री गोपालचंद्र गिरधरदास ने की थी। इसके बाद राजा लक्ष्मणसिंह का ‘शकुन्तला’ (कालिदास के ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम’ का अनुवाद) नामक नाटक मिलता है। फिर हमारे सामने भारतेंदुजी के ‘भारत दुर्दशा’, ‘नील नगरी’, ‘मुद्राराक्षस’ इत्यादि अनेक मौलिक तथा अनूदित नाटक आते हैं। उन्होंने स्वयं श्रेष्ठ नाटक लिखने के साथ-साथ अपने युग के अन्य लेखकों को भी इस दिशा में प्रेरणा प्रदान की। उनके समाकालीन लेखकों में लाला श्री निवासदास ने ‘संयोगिता स्वयंवर’ तथा रणधीर प्रेममोहिनी’, ‘प्रेमघन’ जी ने ‘भारत-सौभाग्य’, बाबू तोताराम ने ‘केरो कृतांत’,  प्रतापनारायण मिश्र ने ‘गौसंकट नाटक’, ‘कलि प्रभाव’ और ‘हठी हमीर’, पंडित गदाधर भट्ट ने ‘रेल का विकट खेल’ और ‘बाल-विवाह’ तथा बाबू राधाकृष्णदास ने ‘दुखिनी बाला’ और ‘महाराणा प्रताप’ नामक नाटकों की रचना कर हिंदी नाटक के प्रारंभिक विकास में सराहनीय योग प्रदान किया।

भारतेंदु-युग में मौलिक नाटकों की रचना के अतिरिक्त सर्वश्री भारतेंदु हरिश्चंद्र, सत्यनारायण ‘कविरत्न’ तथा राजा लक्ष्मणसिंह ने संस्कृत के श्रेष्ठ नाटकों का हिंदी में अनुवाद किया। इस युग के मौलिक नाटकों में देश भक्ति और समाज-सुधार की भावनाओं को मुख्य स्थान प्राप्त हुआ है। इसके पश्चात् हिंदी में पश्चिम के नाटकों के अनुवाद किए गए इस दृष्टि से शेक्सपीयर और मोलियर (फ्रांस के नाटककार) के नाटकों की ओर अधिक ध्यान दिया गया। विदेशी नाटकों का अनुवाद करने वाले लेखकों में लाला सीताराम का मुख्य स्थान है। उन्होंने शेक्सपीयर के नाटकों का अनुवाद किया है, किंतु इसमें उन्हें अधिक सफलता नहीं मिली है। इसी समय के आस-पास पंडित रूप- नारायण पांडेय ने बंगाल के प्रसिद्ध नाटककार द्विजेन्द्रलाल राय के नाटकों के सुंदर अनुवाद उपस्थित किए। इन नाटकों में नाटक – कला को स्वस्थ रूप में उपस्थित किया गया है।

इस प्रकार हिंदी में नाटक रचना की एक निश्चित परंपरा की स्थापना हो गई, किंतु जनता में नाटकों का व्यापक प्रचार अभी नहीं हुआ था। इस आवश्यकता की पूर्ति पारसी नाटक कंपनियों ने की। ये कंपनियाँ विभिन्न लेखकों से नाटक लिखाकर उन्हें रंगमंच पर उपस्थित करती थीं। इन लेखकों में सर्वश्री नारायण प्रसाद ‘बेताब’, आगा हश्र कश्मीरी और राधेश्याम कथावाचक मुख्य हैं। उन्होंने प्रपने नाटकों में भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास और पुराणों की मुख्य घटनाओं को उपस्थित किया है। उन्होंने इनमें धर्म और नीति का स्थूल रूप में उल्लेख करते हुए इनमें मनोरंजन के तत्त्व को अधिक से अधिक स्थान देने का प्रयत्न किया है। इनमें साहित्यिकता का पर्याप्त प्रभाव रहा है, किंतु हिंदी रंगमंच की स्थापना का श्रेय इन्हीं को प्राप्त है।

‘प्रसाद’ जी के नाटक

हिंदी नाटकों के प्रारंभिक विकास की समाप्ति श्री जयशंकर प्रसाद के नाटकों से हुई। उन्होंने भारतवर्ष के गुप्त युग के इतिहास को लेकर अनेक श्रेष्ठ ऐतिहासिक नाटकों की रचना की है। इस दृष्टि से उनके ‘चंद्रगुप्त’ और ‘स्कन्दगुप्त’ नामक नाटक अत्यंत सुंदर बन पड़े हैं। उन्होंने अपने नाटकों में बौद्ध धर्म का सुंदर चित्रण किया है। नाटक रचना के क्षेत्र में उन्होंने सर्वप्रथम मौलिकता और प्रतिभा का पूर्ण परिचय दिया। उनके नाटकों की भाषा- शैली कठिन और पूर्णतः साहित्यिक है। अनेक कारणों से उनके नाटकों को रंगमंच पर ज्यों का त्यों उपस्थित नहीं किया जा सकता, किंतु साहित्यिक दृष्टि से उनका अपार महत्त्व है। प्रसादजी के बाद लिखे गए हिंदी नाटकों पर उनकी कला का व्यापक प्रभाव पड़ा है। आगे हम आधुनिक युग में लिखे गए विभिन्न प्रकार के नाटकों के स्वरूप को स्पष्ट करेंगे।

(1) ऐतिहासिक नाटक –

प्रसादजी के बाद हिंदी के ऐतिहासिक नाटकों के विकास को हम निम्नलिखित तीन उपवर्गों में विभाजित कर सकते हैं-

(क) पौराणिक नाटक-

इस प्रकार के नाटकों में इतिहास और पुराणों की घटनाओं को मिलाकर उपस्थित किया गया है। इनमें श्री उदयशंकर भट्ट के ‘अम्बा’ और ‘सगर- विजय’ शीर्षक नाटक उल्लेखनीय हैं।

(ख) सांस्कृतिक नाटक

इस वर्ग के अंतर्गत हम उन नाटकों को रखेंगे जो भगवान् बुद्ध से लेकर सम्राट् हर्षवर्धन तक के समय को लेकर लिखे गए हैं। इन सभी नाटकों में आर्य संस्कृति के पूर्ण विकास को चित्रित किया गया है। इस कारण इनमें एक ओर तो सेवा और प्रेम द्वारा शांति की स्थापना पर बल दिया गया है और दूसरी ओर उपभोग और संयम में समन्वय की स्थापना की गई है। इन नाटकों की रचना भारतीय इतिहास के स्वर्ण युग के आधार पर की गई है। अतः इनमें उस समय के वैभव का पूर्ण उल्लेख हुआ है। हिंदी में इनकी रचना उस समय हुई थी जब काव्य के क्षेत्र में छायावाद को मुख्य स्थान प्राप्त था। यही कारण है कि इनमें जीवन की सूक्ष्मता, मधुरता और करुणा का सुंदर चित्रण हुआ है। इस वर्ग के नाटकों में श्री चंद्रगुप्त विद्यालंकर के ‘अशोक’ और ‘रेवा’, सेठ गोविन्ददास के ‘शशिगुप्त’ और ‘हर्ष’, श्री जगदीशचंद्र माथुर के ‘कोणार्क’ और श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र के ‘वत्सराज’ तथा ‘वितस्ता की लहरें’ उल्लेखनीय नाटक हैं।

(ग) मध्य युग के इतिहास के नाटक –  

इस प्रकार के नाटकों का संबंध भारतीय इतिहास के राजपूत-युग से रहा है। इनमें ओजपूर्ण राष्ट्रीयता और नैतिकता को मुख्य स्थान प्राप्त हुआ है। इनमें जीवन के स्थूल सत्यों को आदर्शवादी रीति से उपस्थित किया गया है। इनमें पात्रों को स्वतंत्र रीति से अपने चरित्र का विकास करने का अवसर नहीं मिला है। इस प्रकार के नाटकों की रचना मुख्य रूप से श्री हरिकृष्ण ‘प्रेमी’ ने की है। इस दिशा में उनके ‘रक्षाबंधन’, ‘शिवा – साधना’ और ‘स्वप्न भंग’ नाटक उल्लेखनीय है। इस वर्ग के अन्य नाटकों में श्री जगन्नाथ प्रसाद ‘मिलिन्द’ का ‘प्रताप – प्रतिज्ञा’, श्री उदयशंकर भट्ट का ‘दाहर’ और सेठ गोविन्ददास के ‘शेरशाह’ और ‘कुलीनता’ शीर्षक नाटक भी सराहनीय बन पड़े हैं।

(2) सामाजिक नाटक-

वर्तमान युग में विभिन्न सामाजिक समस्याओं को लेकर अनेक नाटकों की रचना की गई है। पश्चिम में इब्सन और बर्नार्ड शॉ से प्रभावित होकर अनेक लेखकों ने समस्या नाटकों की रचना की थी। हिंदी में समस्या- नाटक लिखने वालों ने इस नाटक – साहित्य से भी पर्याप्त प्रेरणा ग्रहण की। इन नाटकों में जीवन के वास्तविक सत्य को प्रकट किया गया है। इसके लिए इनमें केवल आधुनिक जीवन को ही ग्रहण किया गया है। इनमें कल्पना और भावुकता के स्थान पर तर्क, बुद्धि और विवेक का सहारा लेकर वर्तमान जीवन की समस्याओं का समाधान किया गया है। इनमें संस्कृत नाटकों में प्राप्त होने वाली ‘आकाश भाषित’ नियत ‘श्राव्य’ और ‘अश्राव्य’ जैसी अस्वाभाविक बातों को छोड़कर नाटकों को वर्तमान जीवन के अधिक से अधिक पास लाने का प्रयास किया गया है। इन नाटकों में प्राय: वर्तमान युग की आर्थिक और काम-वासना संबंधी समस्याओं का विवेचन हुआ है। इनकी रचना मनोविज्ञान के आधार पर की गई हैं और इनकी शैली में स्वतंत्र – कथन, व्यंग्य तथा कटु उक्तियों का समावेश हुआ है। हिंदी में दो प्रकार के समस्या-नाटक लिखे गए हैं.

(क) व्यापक समस्याओं वाले नाटक-

इस प्रकार के नाटकों में समाज, राजनीति और अर्थ (धन) की समस्याओं के विभिन्न पहलुओं का चित्रण रहता है। ये समस्याएँ पूरे समाज से संबंध रखती है।

(ख) व्यक्तिगत समस्याओं वाले नाटक-

इन नाटकों में व्यक्ति विशेष की प्रार्थिक और काम-वासना-संबंधी समस्याओं का चित्रण किया जाता है।

हिंदी में इन दोनों प्रकार की समस्याओं को लेकर मुख्य रूप से पंडित लक्ष्मीनारायण मिश्र ने नाटक लिखे हैं। उनके इस प्रकार के नाटकों में ‘सन्यासी’, ‘राक्षस का मन्दिर’, ‘मुक्ति का रहस्य’, ‘राजयोग’ और ‘सिन्दूर की होली मुख्य हैं।

(3) शैली प्रधान नाटक –

इस प्रकार के नाटकों में कथानक और उद्देश्य की अपेक्षा नाटकीय शैली पर अधिक ध्यान दिया गया है। हिंदी में इनके निम्नलिखित रूप उपलब्ध होते हैं-

(क) नाट्य रूपक

‎इनमें नाटकीय संवादों को कविता की भाँति भावमय रूप में उपस्थित किया जाता है। श्री जयशंकर प्रसाद की ‘कामना’, श्री सुमित्रानंदन पंत की ‘ज्योत्स्ना’, पंडित भगवतीप्रसाद वाजपेयी की ‘छलना’ और सेठ गोविन्ददास की ‘नवरस’ शीर्षक रचनाएँ इसी प्रकार की हैं।

(ख) गीति नाट्य –

इस प्रकार की रचना में नाटक को पद्य में लिखा जाता है। आवश्यकता होने पर इसमें कहीं-कहीं गद्य का भी प्रयोग किया जा सकता है। इस दृष्टि से श्री उदयशंकर भट्ट की ‘विश्वमित्र’, ‘मत्स्यगन्धा’ और ‘राधा’ शीर्षक रचनाएँ; श्री सुमित्रानंदन पंत की ‘शिल्पी’ और ‘रजत शिखर’ शीर्षक कृतियाँ ; श्री भगवतीचरण वर्मा की ‘तारा’; और श्री हरिकृष्ण ‘प्रेमी’ की ‘स्वर्ण विहान’ उल्लेखनीय ‘गीति नाट्य’ रचनाएँ हैं।

(ग) एकांकी नाटक तथा रेडियो रूपक

इस प्रकार के नाटकों की रचना एक ही अंक में की जाती है। रेडियो रूपक एकांकी नाटक का ही एक अंग विशेष है। हिंदी में सर्वश्री रामकुमार वर्मा, उपेन्द्रनाथ अश्क’ उदयशंकर भट्ट और विष्णु प्रभाकर ने इन दोनों की रचना में समान रूप से भाग लिया है।

अंत में हम यह कह सकते हैं कि आधुनिक युग में नाटक पर्याप्त विकास हुआ है। हिंदी रंगमंच की स्थिति न होने से में बाधा पहुँचती थी, किंतु अब यह कमी दूर होने लगी है नाटक साहित्य का भविष्य उज्ज्वल दिखाई देता है।

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