Sahityik Nibandh

हिंदी काव्य में प्रगतिवाद

hindi sahitya ka itihaas pragativaad

हिंदी में प्रगतिवादी साहित्य की रचना इसी युग की देन है। इसकी रचना छायावादी काव्य के प्रति प्रतिक्रिया के रूप में हुई थी। इससे पूर्व छायावाद के कवि अपने भावों को सूक्ष्म रूप में उपस्थित किया करते थे। इस सूक्ष्मता के लिए कल्पना और सौंदर्य का आश्रय लिया जाता था। कुछ कवियों ने इस प्रगति का विरोध किया और साम्यवादी सिद्धांतों से प्रेरणा लेकर अपनी कविताओं में जन-जीवन के चित्र को प्रमुख स्थान प्रदान किया। इन कवियों को उस समय प्रगतिवादी कवि कहा गया। यद्यपि काव्य- रचना में प्रगति करने वाले किसी भी कवि को प्रगतिवादी कवि कहा जाना चाहिए, किंतु इस समय यह शब्द साम्यवादी भावनाओं को मुख्य स्थान प्रदान करने वाले कवियों के लिए ही प्रचलित हो गया है।

प्रगतिवाद का संबंध मध्यम और सामान्य वर्गों के व्यक्तियों की जीवन- धारा से है। उसमें समाज की विषमताओं के चित्रण की ओर सबसे अधिक ध्यान दिया जाता है। इसी कारण उसके कवि पूँजीपतियों का विरोध करते हुए साधारण जनता के जीवन का चित्रण करते हैं। उनकी कविताओं में कृषकों और मजदूरों के हितों की चर्चा को ही मुख्य स्थान प्राप्त रहता है। समाज की व्यवस्था बनाए रखने के लिए वे उसमें क्रांति लाने की आवश्यकता मानते हैं। उन्होंने अपने भावों को जनता की भाषा में अत्यंत सरल रूप में उपस्थित किया है। अपने विचारों को सरल और संक्षिप्त रूप में उपस्थित करने का उन्होंने निरंतर ध्यान रखा है। इसी कारण प्रगतिवादी काव्य की रचना प्रबंध-काव्यों के रूप में न होकर मुक्तक कविताओं के रूप में हुई है। इस दिशा में किसी प्रबंध-काव्य के न लिखे जाने का एक कारण यह भी हैं कि हिंदी में प्रगति- वादी साहित्य का विशेष स्वागत नहीं किया गया। आगे हम इस धारा के प्रमुख कवियों का संक्षिप्त परिचय देंगे।

(1) पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’

‘निराला’ जी ने छायावादी और रहस्यवादी कविताओं की भाँति प्रगतिवादी कविताओं की भी सफल रचना की है। उनकी ‘कुकुरमुता’ तथा ‘नये पत्ते’ शीर्षक रचनाएँ इसी काव्यधारा से संबंधित है। उनकी प्रगतिवादी कविताओं में मानवतावाद को मुख्य स्थान प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार वेदना और करुणा का चित्रण करना भी उनकी इस प्रकार की कविताओं की एक विशेषता है। इस दिशा में उन्होंने साम्यवाद के सिद्धांतों का प्रचार नहीं किया है, अपितु साधारण जनता के जीवन को देखने की ही उनकी इच्छा रही है। वह समाज की उपयुक्त व्यवस्था के लिए क्रांति का समर्थन करते हैं। उनकी प्रगतिवादी कविताओं में ‘भिक्षुक’ शीर्षक कविता सबसे अधिक प्रसिद्ध है। आगे हम उसकी कुछ पंक्तियाँ उपस्थित करते हैं-

वह आता,

दो टूक

कलेजे के करता,

पछताता पथ पर प्राता।

पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,

चल रहा लकुटिया टेक।

मुट्ठी भर दाने को,

भूख मिटाने को,

मुँह फटी-पुरानी झोली का फैलाता।।

(2) श्री सुमित्रानंदन पंत –

पंतजी की प्रगतिवादी कविताओं का संग्रह उनकी ‘ग्राम्या’ तथा युग- वाणी’ शीर्षक रचनाओं में हुआ है। उन्होंने इनमें मानवतावादद को मुख्य स्थान देते हुए सामाजिक जीवन की विषमताओं का उल्लेख किया है।

‘ग्राम्या’ में उन्होंने ग्राम-जीवन के विविध करुणापूर्ण चित्र उपस्थित किए हैं। इन चित्रों में प्रगतिवाद को लाने का आग्रह तो मिलता है, किंतु ग्राम- जीवन को निकट से अध्ययन न करने के कारण पंतजी को इनमें पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हुई है। ‘निराला’ जी की भाँति उन्होंने भी अपनी कविताओं में साम्यवाद का प्रचार नहीं किया है। इस समय वह प्रगतिवादी काव्यधारा को छोड़ चुके हैं, क्योंकि वह उनके हृदय से पूर्ण मेल न खा सकी। उन्होंने साम्यवाद का अन्य समर्थन कहीं भी नहीं किया है, किंतु वह उसे गांधीवाद के समान उपयोगी आवश्य मानते हैं। उदाहरण के लिए उनकी ‘गांधीवाद’ शीर्षक कविता की निम्नलिखित पंक्तियाँ देखिए-

मनुष्यत्व का तत्त्व सिखाता,

निश्चय हमको गांधीवाद।

सामूहिक जीवन विकास की,

साम्य योजना है अविवाद॥  

(3) श्री रामधारीसिंह ‘दिनकर’ –

‘दिनकर’ जी प्रगतिवाद के एक प्रमुख कवि हैं। उन्होंने भारतीय जनता के हित के लिए सामाजिक जीवन में क्रांति की आवश्यकता का प्रबल शब्दों में प्रतिपादन किया है। उनकी प्रगतिवादी कविताओं का संबंध भारतवर्ष से ही रहा है। उन्हें रूस की ओर ले जाने की भावना का उन्होंने तीव्र विरोध किया है। उनकी कविताओं में समाज के पीड़ित वर्ग की वेदना का खुलकर चित्रण हुआ है। इस प्रकार के चित्रों में करुणा का भी मार्मिक रूप में समावेश हुआ है। उनकी प्रगतिवादी कविताओं में राष्ट्रीयता को भी स्थान प्राप्त हुआ है। इन कविताओं की भाषा सरल है तथा वाणी ओजपूर्ण है।

(4) श्री भगवतीचरण वर्मा –

वर्माजी ने मुख्य रूप से प्रेम गीतों की रचना की है, किंतु उनकी कुछ प्रगतिवादी कविताएँ भी प्राप्त होती हैं। इन कविताओं में निम्न वर्ग की जनता की वेदनाओं का सरल और मार्मिक रूप में चित्रण हुआ है। इनमें शांति की आवश्यकता की ओर भी संकेत किया गया है। इस प्रकार की कविताओं में उनकी ‘भैसा गाड़ी’ शीर्षक कविता विशेष प्रसिद्ध है।

(5) श्री नरेंद्रशर्मा

नरेंद्रजी ने प्रेम, प्रकृति और प्रगतिवाद को लेकर काव्य-रचना है। उनकी प्रगतिवादी कविताओं का स्वर प्रमुख रहा है। उनमें उन्होंने सरल भाषा का प्रयोग करते हुए अपने भावों को अत्यंत स्पष्ट रूप में उपस्थित किया है। इस समय वह प्रगतिवाद को छोड़ चुके है।

(6) श्री शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ –

‘सुमन’ जी ने प्रगतिवादी काव्य की पर्याप्त मात्रा में रचना की है। उन्होंने समाज की विषमताओं का प्रबल विरोध किया है। उन्होंने क्रांति-भाव की आवश्यकता का भी प्रबल प्रतिपादन किया है। हिंदी के तरुण प्रगतिवादी कवियों में उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है।

उपर्युक्त कवियों के अतिरिक्त प्रगतिवादी कविताओं की और भी अनेक कवियों ने रचना की है। इनमें श्री रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’, ‘नवीन’, डॉ. रांगेय राघव, डॉ. रामविलास शर्मा और धर्मवीर ‘भारती’ का मुख्य स्थान है। इन कवियों ने प्रगतिवादी सिद्धांतों को अपनी कविताओं में पर्याप्त स्थान दिया है। इनके काव्य में प्रगतिवाद को ही मुख्य स्थान प्राप्त हुआ। इनमें से ‘नवीन’ जी इस समय प्रगतिवादी काव्यधारा को छोड़ चुके है और उन्होंने उसका प्रबल विरोध किया है। शेष कवियों में से डॉ. रामविलास शर्मा और रांगेय राघव प्रगतिवाद के प्रबल समर्थक हैं। इन्होंने अपनी कविताओं में उसके सिद्धांतों का उग्र प्रतिपादन किया है। वैसे ‘नवीन’ जी के अतिरिक्त ये सभी कवि अब भी प्रगतिवाद में विश्वास रखते हैं।

यद्यपि यह सत्य है कि इस समय प्रगतिवाद का अधिक प्रचार नहीं रहा है, किंतु उसकी पूर्ण समाप्ति अभी नहीं हुई है। ‘निराला’, पंत, ‘दिनकर’ और ‘नवीन’ जैसे प्रसिद्ध कवि अपने काव्य से लगभग उसका बहिष्कार कर चुके है, किंतु उनका स्थान अनेक नवीन कवियों ने ले लिया है। इन कवियों में नागार्जुन, गोपालदास ‘नीरज’ और रामावतार त्यागी प्रमुख है। इस स्थान पर यह उल्लेखनीय है कि इन नये कवियों की रचनाओं में संतुलन की कमी मिलती है। इनसे पूर्व प्रगतिवाद के प्रमुख कवियों ने क्रांति की आवश्यकता की ओर संकेत करते हुए भी अपने विचारों को गंभीर रूप में उपस्थित करने का ध्यान रखा था। उन्होंने इस प्रकार के विचार व्यक्त नहीं किए थे जो उत्तरदायित्व से शून्य हों। सच तो यह है कि यदि प्रगतिवाद में किसी प्रकार के श्रेष्ठ काव्य की रचना की गई थी तो उसे उन्हीं कवियों ने उपस्थित किया था। अब वे नए कवियों के उन विचारों से असहमत होकर इस काव्यधारा को ही छोड़ बैठे हैं।

यदि प्रगतिवादी काव्य में राजनीति को स्थान न दिया जाए और उसकी रचना केवल शुद्ध जन-कल्याण को दृष्टि में रखकर ही की जाय तो निश्चय ही उसका अधिक महत्त्व होगा। जो काव्य साधारण जनता के सुख-दुख से संबंध रखता है उसकी कभी उपेक्षा नहीं की जाती। प्रगतिवादी काव्य की उपेक्षा इसलिए की गई कि उसने जनता के एक विशेष वर्ग के प्रति घृणा का प्रचार किया ओर शासन की भी अनावश्यक रूप मे कटु निंदा की। नवीन प्रगतिवादी कविताओं में कही-कही रचनात्मक सुझाव देने के स्थान पर समाज के प्रचलित रूप को समाप्त कर देने की आवश्यकता पहले बताई गई। अतः यह काव्य पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित नहीं हो सका। इस समय भी प्रगतिवादी कविताओं की पूर्णतः स्वस्थ रूप में रचना नहीं हो रही है।

Leave a Comment

You cannot copy content of this page