हिंदी साहित्य के इतिहास-पंडितों ने भाषा के इतिहास को चार भागों में विभाजित किया है। वीरगाथा-काल, भक्ति-काल, रीतिकाल तथा आधुनिक काल। इस प्रकार वीरगाथा-काल का स्थान इन चार कालों में ऐतिहासिक दृष्टिकोण में सर्वप्रथम आता है। इस काल का समय संवत् 1050 से 1375 तक माना गया है और भाषा के उत्थान और क्रमिक विकास के विचार से यह बहुत महत्त्वपूर्ण काल है।
जिस समय से यह काल प्रारंभ होता है उस समय भारतवर्ष में व्यवस्थित राज्य सत्ता का अभाव था और समस्त देश छोटे-छोटे मनचले राजाओं के राज्यों में विभाजित था। प्रत्येक राज्य का पृथक्-पृथक् निरंकुश राजा था और वह अपनी मनमानी आकांक्षाओं के अनुसार राज्य करता था। राजा भी सभी प्रायः वीर थे परंतु संगठन न होने के कारण देश बहुत दुर्बल बना हुआ था और इसलिए विदेशियों की लालच से भरी दृष्टि भारत की धन-संपत्ति पर जमी हुई थी। भारत के राजाओं की शक्ति का ह्रास आपस में लड़-भिड़कर होता जा रहा था और एक दूसरे की कन्याओं को बलपूर्वक स्वयंवरों में से भगा लाना मात्र ही केवल उनके युद्ध कौशल के प्रदर्शन का क्षेत्र था। इस प्रकार आपस में वैमनस्य बढ़ाकर अपनी शक्ति का अपव्यय करना ही उनका गौरव बन गया था।
हिंदी कविता इस काल में केवल दरबारों में पलती थी और कवि लोग विशेष रूप से चारण होते थे। जिनका उद्देश्य अपने आश्रयदाता वीर राजाओं का गुणगान गाना होता था। देश में फूट थी, विलासिता थी, आलस्य था परंतु फिर भी वीर राजाओं का एकदम ह्रास नहीं हो गया था। इसी समय वीर पृथ्वीराज दिल्ली का राज्यधिकारी हुआ परंतु स्वयंवरों से डोला लाने वाली प्रथा से अपने को मुक्त वह भी न कर सका। संयोगिता का डोला उठाकर लाने का मूल्य उसे क्या देना पड़ा, यह भारत निवासी युग-युग तक नहीं भुला सकेंगे।
इस काल में हिंदी का जितना भी साहित्य-सृजन हुआ वह विशेष रूप से दो ही रसों से ओत-प्रोत था-एक शृंगार तथा दूसरा वीर रस। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, इस काल में वीरता का प्रदर्शन भी शृंगार के आश्रित ही होकर चलता था, अर्थात् शृंगारिक भावनाओं की पूर्ति के लिए ही वीरता का प्रदर्शन किया जाता था और कवियों ने भी अपने नायकों में दोनों ही गुणों की प्रधानता दिखलाई है। इसलिए इस काल के कवियों के नायक रसिक भी हैं और वीर भी। रसिकता उनका प्रधान गुण है और उस रसिकता के क्षेत्र में आने वाली बाधाओं को जड़ मूल से उखाड़ फेंकने के लिए उन्होंने अपने बल-कौशल तथा पराक्रम का प्रयोग किया है। इस काल के प्रायः सभी ग्रंथ नाम-मात्र के सुनने तथा देखने से ऐतिहासिक से प्रतीत होते हैं परंतु यदि उनको आद्योपांत पढ़कर देखा जाए तो उनमें ऐतिहासिकता का अभाव पाया जाता है। इन ग्रंथों की कथाओं में केवल नाम के लिए ऐतिहासिकता रहती तो है परंतु वास्तव में सब कथाएँ आख्यायिकाओं पर आधारित हैं। कल्पना और कवि-स्वच्छंदता को उनमें विशेष स्थान दिया गया है। इन ग्रंथों में अतिशयोक्तियों की इतनी भरमार है कि कहीं-कहीं पर तो पाठक संसार को भूलकर आकाश में उड़ने लगता है और वास्तविकता उस समय उसे कोरा उपहास-मात्र प्रतीत होती है।
इस काल के ग्रंथों में वीरतापूर्ण युद्धों के बहुत सजीव चित्रण मिलते हैं और उन वर्णनों में जिन छंदों तथा जिस भाषा का प्रयोग किया गया है वह वीर रस को व्यक्त करने में बहुत उपयुक्त सिद्ध हुए हैं। एक विशेष बात इस काल के ग्रंथों में यह है कि कई-कई प्रकार की भाषाओं का प्रयोग है और उसमें यह भी भ्रम हो जाता है कि वह ग्रंथ उस समय और उस लेखक का लिखा हुआ भी है अथवा नहीं, कि जिस काल में जिस लेखक द्वारा लिखित उन्हें माना जाता है। यही कारण है कि इन ग्रंथों की प्रामाणिकता जाँचने के लिए काफी खोज करनी पड़ी है।
प्रायः सभी ग्रंथ वीरगाथा काल में देशज और अप्रभ्रंश भाषा में लिखे गए हैं। दोहा, छप्पय, कवित्त तथा कुंडलियाँ इत्यादि छंदों का प्रयोग इन सब ग्रंथों में है। काव्य प्रबंध तथा मुक्तक दोनों ही प्रकार के पाए जाते हैं। उर्दू और फारसी भाषा के शब्द भी इस समय की कविता में पाए जाते हैं।
इस काल के कवि केवल कवि ही नहीं होते थे वरन् वह तलवार के भी वैसे ही धनी थे जैसे लेखनी के। इन चारण कवियों का ध्येय साहित्य सेवा उतना नहीं होता था जितना स्वामी सेवा और इसलिए यह रणक्षेत्र में जाकर युद्ध की आग में कूदना और जंग में तलवारें नचाना भी अपना कर्त्तव्य समझते थे। इनकी ओजस्विनी कविता वीरों में उत्साह का संचार करती थी और उन्हें युद्ध क्षेत्र में सीना तानकर मतवाला बना देती थी। उनकी कविता को सुनकर योद्धाओं के भुजदंड फड़कने लगते थे और वह सिर पर कफन बाँधकर रण-भूमि में जूझ जाते थे
हम्मीर रासो, कीर्तिलता, कीर्तिपताका इस काल के अपभ्रंश काव्य हैं तथा विद्यापति की पदावली, खुसरो की पहेलियाँ, जयचंद प्रकाश, पृथ्वीराज रासो, खुमान रासो, बीसलदेव रासो, परमाल रासो इत्यादि देशज भाषा में लिखे गए प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। इस काल का सबसे प्रसिद्ध कवि पृथ्वीराज रासो का लेखक चंदबरदाई है। पृथ्वीराज तथा चंदबरदाई इस काल के प्रतीक हैं। इन्हीं दो व्यक्तियों पर केंद्रित होकर इस काल का निर्माण हुआ है।
भाषा, इतिहास और साहित्य तीनों ही दृष्टिकोणों से वीरगाथा-काल बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह हिंदी भाषा का प्रारंभिक काल है जिसमें राष्ट्र भाषा का निर्माण और वीरतापूर्ण काव्य का सृजन हुआ है। परंतु खेद की बात है कि वीरगाथा-काल होते हुए भी इस समय का कोई पूर्ण ग्रंथ हमें ऐसा नहीं मिलता जिसमें स्वतंत्रता या राष्ट्रीय भावना से पूर्ण विचार मिलते हों इसका प्रधान कारण यही है कि इस काल में राष्ट्रीयता का सर्वथा अभाव था और कवि अपना उत्तरदायित्व देश अथवा राष्ट्र के प्रति न समझकर उन शृंगारिक राजाओं के प्रति ही समझते थे जिनकी वीरता का प्रदर्शन भी राजकुमारियों के डोलों पर ही अटका हुआ रहता था।