संकेत बिंदु-(1) साहित्य का महत्त्व अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष (2) मानव जीवन को प्रतिबिंबित करने में (3) राष्ट्र-निर्माण और उद्धार में (4) साहित्यकारों की दृष्टि में (5) समाज का दर्पण।
साहित्य का महत्त्व धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त करवाने में है। मानव को हार्दिक आनंद और संतोष प्रदान करने में है। उसे सुख-दुख और आशा-निराशा के धरातल से उठाकर मानवता की समस्याओं और जीवन प्रणाली की व्यापक भूमि पर स्थापित करने में है। अतीन्द्रिय लोक का दर्शन करवाने में है।
साहित्य का महत्त्व इस बात में है कि वह शोक में सात्वना देता है, हर्ष में आनंदवर्धन करता है, नैराश्यपूर्ण क्षणों में संबल प्रदान करता है एवं पशुता का दमन और मनुष्यता का उद्रेक करता है। इतना ही नहीं, वह मनुष्य के सम्मुख भौतिक संसार के अतिरिक्त एक विश्वासयोग्य भावमय लोक उपस्थित करता है।
सिसरो की धारणा है कि ‘साहित्य का महत्त्व तभी है जब उसका अध्ययन युवकों का पालन-पोषण करे, वृद्धों का मनोरंजन करे, उन्नति का शृंगार करे, विपत्ति में धीरज दे, घर में प्रमुदित करे और बाहर विनीत बनाए। ‘
मुन्शी प्रेमचंद के विचार में ‘जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, हमें आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें गति और शांति न पैदा हो, हमारा सौंदर्य-प्रेम न जागृत हो, जो हममें सच्चा संकल्प और कठिनाइयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करे, उस साहित्य का कोई महत्त्व नहीं।
साहित्य का महत्त्व मानव-जीवन को प्रतिबिंबित करने में ही नहीं, अपितु मानवता की रक्षा और प्रोत्साहन में भी है। इस दृष्टि से भर्तृहरि का कथन बहुत संगत है-‘साहित्य, संगीत और कला से रहित व्यक्ति बिना पूँछ और सींग के साक्षात् पशु ही है। ‘
साहित्य सङ्गीत कला विहीनः / साक्षात् पशुः पुच्छ विष्पणहीनः। (नीतिशतक : 12) साहित्य का स्थान भौतिक विचारों और धार्मिक भावनाओं से ऊपर है। हम ईसाई धर्म से घृणा कर सकते हैं और बाइबिल के प्रति अनास्था प्रकट कर सकते हैं, किंतु ईसाई धर्म को मानने वाले शेक्सपीयर और मिल्टन के नाटकों तथा काव्यों से घृणा करना अथवा उन्हें पूर्ण एकाग्रचित होकर न पढ़ना, सर्वथा असंभव है। उसी प्रकार भारतीय धर्म और संस्कृति के प्रति प्रसिद्ध जर्मन महाकवि गेटे की कैसी भी धारणा क्यों न हो, किंतु कालिदास रचित शकुंतला नाटक की उसने भूरि-भूरि प्रशंसा की है। शकुंतला के रूप में उसने विश्व की कोमलता और स्वर्गीय विभूति को मूर्तिमान देखा है। यदि साहित्य भी धर्मों, जातियों तथा राष्ट्रों में खंडित होता, तो न तो हमें शेक्सपीयर मिल्टन के नाटकों, काव्यों का अध्ययन करते समय आनंद की अनुभूति होती और न गेटे ही ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ के सूक्ष्म सौंदर्य का उद्घाटन कर पाता। इस प्रकार विश्व-मानव को एकसूत्र में ग्रथित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य साहित्य द्वारा ही संपन्न होता है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कथन है, ‘साहित्य समाज का प्रतिबिंब होता है और समाज का मार्ग दर्शक भी।’ साहित्य का महत्त्व राष्ट्र के निर्माण में है, राष्ट्र के उद्धार में है। अतः महाकवि गेटे इस बात का समर्थन करते हुए लिखते हैं-’साहित्य का पतन राष्ट्र के पतन का द्योतक है।’ यूरोप में अनुदार और धार्मिक रूढ़ियों एवं पोप की प्रभुता को साहित्य ने ही उखाड़ फेंका था। फ्रांस में प्रजातंत्र का विकास साहित्य की ही देन है। पराजित इटली को पुनगौरव साहित्य से ही प्राप्त हुआ। भूषण के साहित्य ने हिंदू-समाज में चेतना जागृत कर वीरता का संचार किया। बिहारी के एक दोहे-‘नहिं पराग नहिं मथुर मधु, नहिं विकास इहि काल। अली कली ही सों बंध्यो आगे कौन हवाल’ ने शासक सवाई राजा जयसिंह को कर्तव्य पथ का बोध करा दिया था। मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत-भारती’ ने परतंत्र भारतवासियों में विद्रोह की चिंगारी उत्पन्न कर दी थी।
साहित्य की इतिकर्तव्यता सत्यं शिवं सुंदरम् के समन्वय में है। महान् कवियों की वाणी में यह तथ्य प्रकट हुआ है-
यही प्रजा का सत्य स्वरूप, हृदय में बनता प्रणय अपार।
लोचनों में लावण्य अनूप, लोक-सेवा में शिव अविकार।
-सुमित्रानंदन पंत
कीरति भणिति भूति भलि सोई।
सूरसरि सम सब कहँ हित होई॥
-तुलसीदास
संस्कृत-आचार्यों का कथन है-‘चतुर्वर्गफलप्राप्तिः सुखादल्पधियामपि।’ यह कोई अत्युक्ति नहीं। साहित्य न केवल धर्म, अर्थ, काम ही प्रदान करता है, अपितु वह मोक्ष का भी प्रदाता है। बाल्मीकि और व्यास, तुलसी और सूर के काव्य ने लाखों को भक्ति-पथ पर लगाकर उनके लिए मोक्ष का मार्ग प्रशस्त किया है।
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी साहित्य की महत्ता दर्शाते हुए लिखते हैं-’ ज्ञान-राशि के संचित कोश का नाम साहित्य है। जिस भाषा के पास यह कोश नहीं है, वह भाषा भावाभिव्यक्ति में समर्थ होने पर भी रूपवती भिखारिन के समान न आदर पाती है, न पा सकती है।’
साहित्य समाज का दर्पण है। समाज के नग्न यथार्थ को प्रकट कर उसे आदर्शोन्मुख करने में ही साहित्य का महत्त्व है। मुंशी प्रेमचंद का साहित्य भारतीय जन-जीवन का दर्पण है, हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का भाष्य है। प्रेमचंद जी की निर्मला (निर्मला), सूरदास (रंगभूमि) और होरी (गोदान) चीख-चीख कर भारत की आत्मा को अभिव्यक्ति प्रदान कर रहे हैं। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त और रामधारीसिंह ‘दिनकर’ का काव्य भारतीय जन-जीवन की आत्मा का दर्पण है।
साहित्य का महत्त्व व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और मानव मात्र के निर्माण और कल्याण में है। साहित्य का महत्त्व उसके चिरस्थायित्व एवं मंगलमय होने में है। राष्ट्रकवि ‘दिनकर’ के शब्दों में-
अंधकार है वहाँ, जहाँ आदित्य नहीं है।
मुर्दा है वह देश जहाँ साहित्य नहीं है।