हिंदी साहित्य में छायावाद का उदय जयशंकर प्रसाद के ‘आँसू’ और सुमित्रानंदन पंत की ‘वीणा’ से होता है। इन कविताओं के पाठकों ने इनमें रवींद्र बाबू की गीतांजलि और अंग्रेजी के मिस्टक (Mystic) कवियों की छाया पाई। इसलिए प्रारंभ में व्यंग्यस्वरूप इस नई धारा की कविता को ‘छायावादी’ कविता कहा गया जिसने बाद में जाकर वही नाम ग्रहण कर लिया। बँगला-साहित्य में इसी प्रकार का साहित्य रहस्यवादी साहित्य कहला रहा था।
हिंदी में इसी छायावायी धारा का विकास धीरे-धीरे बँगला से भी आगे हो गया, इसमें एक-से-एक सुंदर रचना प्रकाश में आईं। धीरे-धीरे छायावाद में से व्यंग्य का भाव बिल्कुल लुप्त हो गया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने छायावाद साहित्य को ‘कायावृत्तियों का प्रच्छन्न पोषण’ कहा है, जिसकी विशेषता इसकी लाक्षणिकता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। श्री नंददुलारे जी का मत दूसरा ही है। वह कहते हैं “छायावाद में एक नूतन सांस्कृतिक मनोभावना का उद्गम है और एक स्वतंत्र दर्शन की आयोजना भी। पूर्ववर्ती काव्य से इसका स्पष्टतः पृथक् अस्तित्व और गहराई है।” यह मत रामचंद्र शुक्ल जी के मत से बिल्कुल मेल नहीं खाता। कविवर जयशंकर प्रसाद छायावाद को अद्वैत रहस्यवाद का स्वाभाविक विकास मानते हैं। इसमें परोक्ष की अनुभूति, समरसता तथा प्राकृतिक सौंदर्य के द्वारा ‘अहम्’ का ‘इदम’ से समन्वय करने का सुंदर प्रयत्न पाया जाता है।
छायावाद हिंदी-साहित्य की नवीन धारा का वह स्वरूप है जिसमें भारतीय दर्शन, प्रकृति और बुद्धिवाद को एक नवीन दृष्टिकोण से परखा गया है। इसमें आध्यात्मिक रहस्यवाद की प्रवृत्तियाँ, सौंदर्यनिष्ठा, लाक्षणिकता और मानव-जीवन के नवीन दृष्टिकोण के साथ विवेचना मिलती है। छायावाद शब्द बहुत व्यापक है इसलिए इसे किसी विशेष परिभाषा के दायरे में बाँधने का प्रयास व्यर्थ है। छायावाद की निम्न लिखित विशेषताएँ कवियों ने अपने काव्य में रखी हैं-
(1) छायावादी कविता में आत्माभिव्यक्ति अधिक मिलती है।
(2) आध्यात्मिक दृष्टिकोण से अद्वैतवाद का आश्रय लेकर छायावादी रहस्यवाद का विकास होता है। इसमें प्रेम विरह और करुणा की प्रधानता रहती है। ‘पंत’, ‘महादेवी’, ‘निराला’, ‘प्रसाद’, सभी कवियों की रचनाओं में इनके उदाहरण प्रत्यक्ष मिल सकते हैं।
(3) छायावादी कवि वैचित्र्य और सौंदर्य के उपासक पाए जाते हैं। उनमें कुछ खोया-खोयापन-सा रहता है और कविता भी कुछ अटपटी करने का प्रयास मिलता है।
(4) कविता में शब्द-माधुर्य को प्रधानता दी जाती है और भावों को स्वच्छंदता। पांडित्य को बाँधकर चलाने का प्रयास वह नही करते। इस धारा के इस गुण में कविवर निराला अपवादस्वरूप आते हैं।
(5) प्रकृति का सुंदर चित्रण मिलता है, स्वतंत्र भी और नायक-नायिकाओं के साथ भी। इस धारा के कवियों ने शृंगार का सुंदर चित्रण किया है परंतु उसे पढ़कर वासना जागृत नहीं होती। रीतिकालीन शृंगारिकता के प्रति इसमें विद्रोह मिलता हैं।
(6) छायावादी शैली की प्रधानता उसके शब्दों में लाक्षणिक प्रयोग की हे। अन्योक्ति, वक्रोक्ति और प्रतीकों का आश्रय लेकर यह कविता रहस्यमय भावना साथ पाठक के सम्मुख आती है। पाठक तनिक सतर्कता के साथ पढ़ने पर इसके समझने में कोई कठिनाई अनुभव नहीं करता।
(7) छायावादी कवियों की प्रकृति ही उनके रहस्य का प्रधान विषय है, जिसमें जीवन कल्पना करके कवि उसकी विभूतियों में तन्मय होकर रहस्योद्घाटन करता है।
(8) मानव जीवन का निराशाभव चित्रण इस धारा की कविता में उपलब्ध होता है। इस निराशा में लौकिकता के अंदर स्थान-स्थान पर अलौकिक पुट मिलता है। सूफी प्रेम-मार्गी शाखा की प्राचीन प्रणाली का इसमें आभास मिल जाता है।
हिंदी साहित्य इस छायावादी धारा को चाहे विदेशी (Mysticism) रहस्यवादी कविता का प्रभाव कहें या बंगाली रहस्यवादी कविता का परंतु यह हिंदी-साहित्य में एक नवीन दृष्टिकोण के साथ आई है और इसने सौ वर्ष के कठिन परिश्रम के पश्चात् एक अपना स्वरूप खड़ा किया है। जनता तक पहुँचने में इस बहुत समय लगा और वह लगता भी, क्योंकि एक बिल्कुल नये दृष्टिकोण को समझने में इतना समय लग ही जाता है। नये-नये आलोचना के मानदंडों द्वारा समालोचकों ने इस कविता को पाठकों के सामने रखकर समझाने का प्रयत्न किया, तब कहीं जाकर हिंदी पाठक इसे समझने में सफल हो सका।
“कोई भी काव्य अपने युग में ऊँचा नहीं उठ सकता। छायावादी काव्य पर अस्पष्टता, अलौकिकता, अव्यावहारिकता, अनैतिकता, ईमानदारी की कमी और अश्लीलपन, ये कितने ही दोष लगाए जाते हैं; परंतु यदि सच पूछा जाए तो यह अपने युग का श्रेष्ठ प्रतिबिंब है। मध्य युग का मध्य वर्ग जिस बौद्धिकता के हास, भावुकता के प्राबल्य और मन, वाणी के सामाजिक और राजनैतिक नियंत्रणों में से गुजर रहा था उसी के दर्शन इस काव्य में भी मिलेंगे। गाँधीवाद के दुख, कष्ट सहन और पराधीनता को राष्ट्रीय साधना के रूप में स्वीकार कर लिया था। समाज में प्रेम कहना पाप था। मध्यवर्ग में से साकार उपासना पर से विश्वास उठ रहा था, परंतु वैष्णव-भावना को बिलकुल अस्वीकार करना असंभव था। आर्थिक और राजनैतिक संकटों ने कमर तोड़ दी थी, महायुद्ध के प्रारंभ का प्रभात या स्वप्न युद्ध समाप्ति पर कुहरे का धरोहर बन गया। ऐसे समय काव्य का रूप ही और क्या होता? रवींद्र के काव्य ने इस प्रदेश की मनोवृत्ति के अनुकूल होकर उसकी काव्य-चिंता को यह विशिष्ट रूप दे दिया था।” डॉक्टर रामरतन भटनागर।