छायावादी साहित्य की पलायनवादी प्रवृत्तियों के विपरीत विद्रोह-स्वरूप प्रगतिवाद का हिंदी-साहित्य में प्रादुर्भाव हुआ। संसार के राजनैतिक दृष्टिकोण में आध्यात्मिकता का धीरे-धीरे ह्रास हो रहा है। रूस के कम्यूनिज्म ने इस प्रवृत्ति को बल दिया और धीरे-धीरे इसका प्रभाव मध्य वर्ग के पढ़े-लिखे लोगों पर पड़ा। छायावादी कविता में जो शृंगारिक भावना थी वह तो मानव-हृदय को अवश्य अपनी ओर आकर्षित कर रही थी, परंतु उसमें अद्वैतवाद की पुट देकर जो पलायन की प्रवृत्ति आने लगी थी उसने छायावादी कवि को जीवन की वास्तविकता से बहुत दूर धकेल दिया। ऐसी परिस्थिति में जीवन की उन वास्तविकताओं को भुलाकर नहीं चला जा सकता था, जो लौकिक जगत में नित्य हमारी आँखों के सम्मुख आती हैं।
प्रगतिवादी कवि ने सोचा कि क्या कविता का विषय आत्मा, परमात्मा और शृंगार ही हो सकते हैं? क्या सड़क पर खड़ा हुआ पसीने से लथपथ मजदूर कविता का विषय नहीं बन सकता ! यह विचार आते ही कवि ने उसे चित्र-रूप दे दिया-
“वह तोड़ती पत्थर;
देखा मैंने इलाहाबाद के पथ पर-
यह तोड़ती पत्थर।”
फिर उसने एक भिखारी को देखा और लेखनी उठाकर रचना की-
“वह आता
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता
पेट पीठ मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक।
मुट्ठी भर दाने को
भूख मिटाने को।
मुँह फटी-पुरानी झोली को फैलाता।
वह आता।”
प्रगतिवाद के अंतर्गत हमें उस साहित्य की झलक मिलती है जिसमें मानवीय प्रवृत्तियों का पूरा-पूरा सन्निवेष हो। इसमें जीवन के लौकिक तथ्यों का यथार्थ चित्रण होता है। हिंदी साहित्य में यह धारा नवीन होते हुए भी प्रगति की ओर अग्रसर है। जीवन प्रगति का नाम है और यदि जीवन में प्रगति नहीं है, तो जीवन जीवन ही नहीं रहता। वस्तु जगत से मुँह मोड़कर स्वप्न या अध्यात्म की ओर दौड़ना प्रगतिवादिता के सर्वथा विरुद्ध है। प्रगतिवाद चाहता है जीवन में साम्य हो, समाज में साम्य हो और राजनीति में साम्य हो। पुरातन रूढ़िवाद नष्ट करके प्रगतिवाद नवीन मानवता का निर्माण करना चाहता है। वहाँ बड़े-छोटे का भेद-भाव नहीं है। धनवान और निर्धन का भेद नहीं है। वहाँ मानव-मानव के बीच किसी प्रकार का अंतर ही नहीं माना जाता। इस साहित्य में शोषक वर्ग का विरोध और शोषित वर्ग के प्रति साहित्यकार की सहानुभूति होती है। चरित्र-चित्रण और स्पष्टवादिता इस साहित्य का प्रधान गुण है। प्रगतिवादी कवि के सम्मुख निर्बल सबल की अपेक्षा अधिक यथार्थ है। अश्लील कहलाने वाले तत्त्वों का भी प्रगतिवाद में स्पष्ट चित्रण किया गया है।
हिंदी का वर्तमान प्रगतिशील साहित्य दो पृथक्-पृथक् धाराओं में बह रहा है – एक वह जिसमें राष्ट्रीयता-प्रधान कविताएँ हैं और दूसरा वह जिसमें शृंगार प्रधान कविताएँ हैं। समाज की उच्छृंखल प्रवृत्तियों को रोकने के लिए यौवन संबंधी साहित्य का निर्माण भी आवश्यक है। प्रगतिवादी कवियों में साम्यवाद की प्रधानता है। राष्ट्रीयता प्रधान कवियों ने भी दो प्रकार की कविताएँ की हैं। उनकी रचनाओं के आधार पर उनके दो वर्ग बनते हैं। एक वह जो अपनी रचनाओं में संयम, शांति, प्रेम, उन्नति, निर्माण और आशा का पाठ पढ़ाते हैं। इस वर्ग के अंतर्गत ‘नवीन’ और ‘पंत’, आते हैं। दूसरा वर्ग वह जिस पर रूस के साहित्य का प्रभाव है। इस वर्ग के प्रतिनिधि कवि हैं ‘नरेंद्र’, ‘दिनकर’, ‘भगवतीचरण वर्मा’ इत्यादि। यह दूसरा वर्ग विध्वंस, खंडन और विनाश में विश्वास रखकर चलता है।
राष्ट्रीय भावना से प्रवाहित कवि शृंखला के अतिरिक्त इनमें दूसरी धारा वह है जो शृंगार-प्रधान है। इस धारा के वर्णित शृंगार में काल्पनिक सौंदर्य का सजीव चित्रण करने पर उतारू रहता है। यह वर्ग अपने चित्रण को बिलकुल आचरणहीन कर डालता है और इस आवरणहीनता को वह अपनी कला, अपने काव्य का सौंदर्य और अपनी वास्तविकता के अंदर पैठ समझता है। फ्रायड के काम-विज्ञान का इन पर प्रभाव है।
प्रगतिवाद का साहित्य-सिद्धांत के क्षेत्र में जितना अग्रसर हुआ है उतना व्यवहार के क्षेत्र में प्रस्फुटित नहीं हो पाया। इसका प्रधान कारण यही है कि प्रगतिवाद के सिद्धांत से बहुत कम संबंध है। ‘पंत’ में केवल एक बौद्ध प्रगति-वादिता है। ‘नरेंद्र’ में कुछ वास्तविकता की झलक मिलली है। शेष कवि प्रगतिवादी कविता केवल इसलिए लिखते हैं कि साहित्य में प्रगतिवादी लहर चल पड़ी है। वीरगाथा-काल में हर कवि वीरगाथा-लेखक था, संत-युग में हर कवि निर्गुण ब्रह्म का उपासक था, राम कृष्ण भक्ति काल में हर कवि वैष्णव-भक्त था, रीति-काल में हर कवि आचार्य था, छायावादी युग में हर कवि छायावादी और उसी प्रकार प्रगति के युग में कवि के लिए प्रगतिवादी बनना अनिवार्य हो गया है।
प्रगतिवादी धारा के अंतर्गत जिस साहित्य की अभी तक रचना हुई है उसे बहुत उच्च कोटि के साहित्य के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता, न तो उसमें साहित्यिक सौंदर्य ही आ पाया है और न भावों की कोमलता ही। कवि ‘पंत’ यदि साहित्य में अमर होगा तो ‘ग्राम्या’ के कारण नहीं, ‘पल्लव’ के कारण होगा। प्रगतिशील साहित्य का सृजन समाज और देश के निर्माण के लिए होना चाहिए, न कि जो कुछ आज बना हुआ है उसे भी किसी विदेशी प्रभाव में पड़-कर अपनी विध्वंसात्मक प्रवृत्तियों द्वारा छिन्न-भिन्न कर दिया जाय। ऐसा करने से देश का कल्याण न होकर अहित ही होगा। इसका उत्तरदायित्व लेखकों के ऊपर है। उन्हें अपना कर्त्तव्य देश और समाज के प्रति समझना है। केवल भावनाओं और समय की प्रगतियों में बहकर ऐसे साहित्य का निर्माण करना उनका लक्ष्य नहीं होना चाहिए जिससे देश और समाज का पतन हो। प्रगतिवाद उचित मार्ग पर ही चलकर अपने उद्देश्य की पूर्ति कर सकता है। वर्तमान प्रगतिवाद के साहित्य से हमें देश और समाज के हित की बहुत कम संभावना दखलाई देती है।