भारतीय चिंतन में रहस्यवाद कोई नई वस्तु नहीं है। यह सत्य है कि हिंदी साहित्य में इसका प्रादुर्भाव कबीर और जायसी के साहित्य द्वारा ही सर्वप्रथम आया परंतु धार्मिक क्षेत्र में इसका पूरा-पूरा ब्यौरा हमें मिलता है। ऋग्वेद के ‘नासिदेय सूत्र’ और ‘पुरुष बलि’ की कथा में सर्वप्रथम रहस्यवाद की झलक मिलती है। उपनिषदों में तो इस प्रकार की उक्तियों की भरमार है।
रहस्यवाद ईश्वर, जीव के चिंतन का एक ढंग है, जो कि निर्गुणपंथियों ने अपनाया। इसका एक प्रकार का चिंतन वह है जो भागवत् इत्यादि रूपक ग्रंथों में मिलता है और दूसरा वह है जो उपनिषदों में प्राप्त होता है। एक में प्रेम को आधार माना है तथा दूसरे में ज्ञान को। हिंदी साहित्य में दोनों ही प्रकार के रहस्यवाद के दर्शन होते हैं।
रहस्यवाद की प्रारंभिक धारा उपनिषदों की है, जिसका प्रचार सिद्ध-साहित्य द्वारा हुआ। फिर उसे नाथपंथियों ने अपनाया और अंत में वह कबीर के निर्गुणपंथ का प्रधान-चिंतन का विषय बन गया। कबीर और दादू इस धारा के सबसे प्रसिद्ध कवि हैं, जिन्होंने अपने रहस्यवाद द्वारा ही अद्वैतवाद का प्रतिपादन किया। रहस्यवादी कवि जीव और ईश्वर को अभिन्न मानते हैं। उनका मत है कि जीव और ईश्वर में यदि कुछ भेद दृष्टिगत होता है तो वह माया के ही कारण हैं। माया को पहचानने पर यह भेद स्वयं नष्ट हो जाता है। जीव ईश्वर हो जाता है और ईश्वर जीवात्मा। कबीरदास जी लिखते हैं-
“जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी।
फूटा कुंभ जल जलहि समाना, यह तथ कथा गियानी।”
कबीर अपने को ही ब्रह्म मानते हुए लिखते हैं-
ना मैं बकरी ना मैं भेढ़ी, ना मैं छुरी-गंडास में।
ढूँढ़ना होय तो ढूँढ़ ले बन्दे, मेरे कुटी मवास में॥
यहाँ कवि ने आत्मा और परमात्मा का भेद-भाव सर्वथा नष्ट कर दिया है। अपनी उलटवासियों में आपने कहा है- नदी समुद्र में जा मिली या समुद्र नदी में आ मिला – दोनों कवि के लिए समान हैं क्योंकि दोनों में माया के दूर हो जाने पर कोई भेद-भाव नहीं रहता।
ऊपर जिस रहस्यवाद का वर्णन हमने किया है उससे प्रेमाश्रयी शाखा का रहस्यवाद समानता नहीं रखता। प्रेमाश्रयी शाखा में सूफी धर्म का प्रभाव है। सैद्धांतिक रूप से उसमें भागवत की प्रेम-मूलकता के दर्शन होते हैं। इस विचार धारा के अंतर्गत जब जीवात्मा को प्राप्त करने के सब प्रयत्न समाप्त करके उसे अपने हृदय में स्थान देता है और प्रेम-भावना द्वारा उसे प्राप्त करना चाहता है तभी रहस्यवाद का उद्घाटन होता है। यह रहस्यवाद मस्तिष्क की वस्तु न होकर हृदय की वस्तु है। जीव अपने हृदय में ईश्वर की मधुर कल्पना करके उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करता है और उसकी प्राप्ति में अनेकों कष्ट उठाता है। परस्पर आकर्षण और मिलने की आकांक्षा केवल एक ही ओर नहीं होती वग्न दोनों ओर एक ही तत्त्व होने के कारण दोनों ओर समान रूप से वर्तमान रहती है। जायसी ने पद्मावत में दिखलाया है कि यदि राजा रत्नसेन पद्मावती को प्राप्त करना चाहता था तो रत्नसेन की परीक्षा कर लेने के पश्चात्, पद्मावती हृदय में भी रत्नसेन के लिए उतनी प्रबल आकांक्षा उत्पन्न हो जाती है। इस धारा के अंतर्गत स्त्री-पुरुष के लौकिक प्रेम को ही अंत में पारिलौकिक कहा गया है और सच्चे हृदय से प्रेमिका को प्राप्त कर लेने पर ही ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है, क्योंकि वह प्रेमिका में ईश्वरीय शक्ति का आभास पाकर ही उसे प्राप्त करने के लिए दीवाना होता है और अपनी समस्त शक्तियाँ उसके लिए लगा देता है। कबीरदास ने एक जगह जायसी के विपरीत अपने को इष्टदेव राम की बहुरिया कहा है-
हरि मोर पीऊ मैं राम को बहुरिया।
यही प्रेम-भावना भागवत् में भी मिलती है, परंतु मलिक मुहम्मद जायसी ने इसका जो रूप दिया है वह उससे मेल नहीं खाता। भारतीय साहित्य में स्त्री प्रेम दीवानी होकर अपने इष्टदेव के लिए कष्ट सहती है और उसमें लय होने का प्रयत्न करती है। कबीर की ऊपर दी गई पंक्ति में इस भावना का आभास मिलता है। गोपियाँ कृष्ण के प्रेम में पागल हो जाती हैं। परंतु जायसी की सूफी विचारावलि में रोमांटिक भाषाओं की प्राचीन प्रणाली मिलती है। वहाँ जीवात्मा पुरुष है और परमात्मा स्त्री। भारतीय लोककथा के आधार पर काव्य-रचना करके भी जायसी ने सिद्धांत रूप से अपनी ही प्रणाली को अपनाया और सूफी प्रेममय रहस्यवाद के आधार पर बहुत सुंदर व्यंजनाओं के साथ काव्य मार्मिक स्थल उपस्थित किये हैं। पद्मावती के सौंदर्य वर्णन में कवि ने ईश्वरीय सौंदर्य की कल्पना की है। विरह का बहुत सुंदर चित्रण हमें जायसी की पद्मावत में मिलता है और वह हृदय स्पर्शी भी है। प्रेमात्मक रहस्यवाद का प्रादुर्भाव वास्तव में सूफी सिद्धांतों के सम्मिश्रण से ही हुआ है।
सगुण भक्ति काव्य में भागवत् के रहस्यवाद की झलक नहीं मिलती। भक्त कवियों ने मुक्त कंठ से उस भगवान का गान किया है जिसमें कोई रहस्य नहीं है, जो उनका सखा है, साथी है और जिसके साथ वे हँस-खेल सकते हैं। सूर-साहित्य में रूपकों को स्थान अवश्य मिला है, परंतु उसमें भी कृष्ण का जो चित्रण है उसमें दर्शन का वह गाम्भीर्य नहीं आ पाया जो कबीर की कविता में पाया जाता है। वहाँ तो ईश्वरीय सत्ता दृष्ट है, उनके सामने है फिर क्यों वह रहस्य की कल्पनाओं में अपने मस्तिष्क को परेशान करें? उनका इष्टदेव रहस्य की वस्तु नहीं, भक्ति की वस्तु है और भक्ति के लिए मस्तिष्क की आवश्यकता नहीं। वहाँ तो सच्चा और सरल हृदय चाहिए। फिर भी सूर के साहित्य में कहीं कहीं पर रहस्य की साधारण सी झलक अवश्य मिल जाती है, परंतु उसके कारण हम सूर को रहस्यवादी कवि नहीं कह सकते।
इस रहस्यवाद का स्रोत सूर और तुलसी के काल में भी धीरे-धीरे बहता रहा और सोलहवीं शताब्दी के अंत तक इसका प्रवाह कभी कहीं, तो कभी कहीं दिखलाई दे जाता था। कबीरदास और जायसी के अतिरिक्त सुंदरदास, मलूक-दास, कुतबन, नूरमुहम्मद इत्यादि ने भी रहस्यवादी प्रणाली का ही अपनी धारा में अनुसरण किया है।
सत्रहवीं शताब्दी में आकर भक्ति साहित्य का एकदम लोप होता चला गया और रीतिकालीन कवियों ने लौकिक साहित्य की रचना की। इस साहित्य में राधा-कृष्ण के नाम तो प्रयोग में अवश्य आए परंतु साधारण नायक और नायिकाओं के रूप में। रहस्यवाद का वह अलौकिक सौंदर्य कवियों के जीवन से पृथक् ही हो गया, जिसके आनंद में विभोर होकर भक्त कवियों ने राजदरबारों को ठुकरा दिया था-
“संतन को कहा सीकरी सौं काम।
आवत जात पन्हहिया टूटों, बिसरि गयो हरि नाम।”
कवि और संत जीवन का यह महानादर्श रीतिकाल में समाप्त हो गया। अठारहवीं शताब्दी में पूर्ण रूप से शृंगारिक कविताएँ हुईं, अध्यात्मवाद का पूरी तरह लोप हो गया। उन्नीसवीं शताब्दी में हिंदी में जो साहित्य-रचना हुई उस पर अंग्रेजी साहित्य का प्रभाव पड़े बिना न रहा। ऊपर हम हिंदी के प्राचीन साहित्य में रहस्यवाद का दिग्दर्शन करा चुके हैं। अब हमें देखना है कि वर्तमान युग में रहस्यवाद का क्या स्वरूप रहा? बीसवीं शताब्दी में हिंदी के साहित्य पर अंग्रेज़ी के उन्नीसवीं शताब्दी के रोमांटिक साहित्य का प्रभाव पड़ा। उस काव्य में भी रहस्यवाद की झलक थी। इसी समय बंग प्रदेश के प्रसिद्ध कवि रवीन्द्र की गीतांजलि प्रकाशित हुई। गीतांजलि पर कबीर का प्रभाव स्पष्ट है और थोड़ा-थोड़ा वैष्णव तथा उन्नीसवीं शताब्दी के अंग्रेजी साहित्य का भी प्रभाव है। इस रचना द्वारा पूर्व तथा पश्चिम का मिलन हुआ और आगे आने वाले हिंदी-साहित्य पर भी इसका काफी प्रभाव पड़ा। इस प्रकार रहस्यवाद का यह नया रूप साहित्य में आया।
प्राचीन रहस्यवाद में और इस वर्तमानकालिक रहस्यवाद में स्पष्ट अंतर है। प्राचीन कवि पहले आध्यात्मिक विचारक थे और बाद में कवि। उन्होंने कविता को, अपने विचारों को प्रचारित करने के लिए साधन स्वरूप अपनाया परंतु वर्तमान-कालिक रहस्यवादी कवियों ने कविता को कला के रूप में लिया और कविता की साधना का महत्त्व उनके नजदीक, रहस्यवाद-प्रतिपादन से किसी भी प्रकार कम नहीं रहा। इससे यह स्पष्ट ही है कि प्राचीनकालिक रहस्यवाद, यह माना कि बहुत ऊँचे धरातल पर था, परंतु उसमें वह काव्य-सौंदर्य नहीं आ पाया जो वर्तमान साहित्य में है।
आज का रहस्यवाद कल्पना प्रधान है। उसमें धार्मिक अनुभूति नहीं है। कहीं-कहीं पर उसकी झलक है भी तो वह गौण रूप से वर्तमान है। साधना से उसका कोई संबंध नहीं। वह कोरी काव्य की एक शैली है। भक्ति-काल में रहस्यवाद के जिन प्रतीकों को लेकर कवियों ने रचनाएँ की वह प्रतीक आज के प्रतीक नहीं रहे। यही कारण है कि आज का रहस्यवाद साधारण लोगों में प्रचा-रित नहीं हो पाया। प्रौढ़ भाषा में नवीन छंदों के साथ काव्य का सौंदर्य तो उसमें आया परंतु क्षेत्र विस्तृत होने की अपेक्षा संकुचित हो गया। इस काल के रहस्यवाद को हिंदी के विद्वानों ने ‘छायावाद’ का नाम दिया है।
आधुनिक ‘रहस्यवाद’ अथवा ‘छायावाद’ में प्रकृति-सौंदर्य, प्रेम-विरह इत्यादि पर अध्यात्म-रूप से नहीं लौकिक रूप से कवियों ने लेखनी उठाई है। आज के युग में धर्म गौण होता जा रहा है इसलिए धार्मिक रहस्यवाद का आज के युग में पनपना भी संभव नहीं हो सकता। वर्तमान काल में इस काव्य के अंतर्गत कई शैलियों में साहित्य-रचना हुई। इनमें सर्व-प्रधान शैली गीति-काव्य की है। हिंदी के प्राचीन और वर्तमान सभी रहस्यवादी साहित्य पर विदेशियों का प्रभाव रहा है, इस सत्य को हमें मानना ही पड़ता है। सूफी और अंग्रेजी प्रभाव इनमें अपना विशेष स्थान रखते हैं। भारतीय चिंतन सर्वदा से समन्वय की भावना को लेकर चला है इसलिए इसने सर्वदा ही विशाल हृदय से सबको सम्मान के साथ अपनाया है और अपने काव्य की रचना में उचित स्थान दिया है। रोमांटिक काव्य का उदय विरह से होता है। आधुनिक रहस्यवाद में इसीलिए रचनाओं के विषय हैं-मिलन, विरह, प्रतीक्षा, प्रकृति-सौंदर्य में प्रेम की कल्पना, प्रकृति की विविध वस्तुओं में आकर्षण, प्रेयसी प्रणय इत्यादि। जय-शंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा इत्यादि इस काल के प्रधान रहस्यवादी कवि हैं। इस प्रकार हिंदी साहित्य का रहस्यवाद आध्यात्मिक क्षेत्र से चलकर लौकिक क्षेत्र में आ गया।