हिंदी साहित्य में रहस्यवाद

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संकेत बिंदु-(1) छायावाद और रहस्यवाद में अंतर (2) रहस्यवादी भावनाएँ (3) हिंदी में रहस्यवाद का प्रारंभ और प्रमुख कवि (4) रहस्यवाद की प्रमुख अवस्थाएँ (5) साधनात्मक रहस्यवाद और भावात्मक रहस्यवाद।

द्विवेदी युग के अनंतर हिंदी कविता में एक ओर छायावाद का प्रादुर्भाव हुआ और दूसरी ओर रहस्यवाद का रहस्यवादी धारा यद्यपि छायावाद के समान व्यापक रूप से नहीं फैली, फिर भी उसका कम विस्तार नहीं हुआ।

रहस्यवादी कवि शरीर की सुध-बुध भूलकर अंतर्जगत् में रम जाता है, आत्मरूप में। ‘आत्मा’ शब्द का प्रयोग बहुत दिनों से स्त्रीलिंग में हो रहा है (जबकि संस्कृत और मराठी सहित दक्षिण भारतीय भाषाओं में यह पुल्लिंग में ही प्रयुक्त होता है।) अतः कवि-आत्मा स्त्रीलिंग में बोलती है, परमात्मा पुल्लिंग है। धीरे-धीरे परमात्मा और आत्मा नर-नारी के रूप बन जाते हैं और यही दशा विकसित होती हुई आत्मा और परमात्मा में दाम्पत्य भाव की स्थापना कर देती है। यही कारण है कि रहस्यवादी भावनाएँ अधिकतर दाम्पत्य-प्रेम के रूप में व्यक्त होती हैं।

रहस्यवाद भारतीय काव्य के लिए कोई नहीं वस्तु नहीं है। वेदों और उपनिषदों में, गीता के 11 वें अध्याय में, शंकराचार्य के अद्वैतवाद में, सहजानंद के उपासक कण्हप्पा आदि सिद्धों की रचनाओं में रहस्यवादी भावनाएँ नाना रूपों में व्यक्त हुई हैं, किंतु वेदों से सिद्धों तक यह अभिव्यक्ति बौद्धिक चिंतन अर्थात् मस्तिष्क से ही संबंधित रही है, अतः उसे रहस्यवाद नहीं, दर्शन कहा जाता है।

हिंदी में रहस्यवाद का स्वर सर्वप्रथम कबीर की वाणी में सुनाई देता है। कबीर एक पहुँचे हुए संत थे। उनकी अनुभूति में आत्मा-परमात्मा की एकता का सुंदर चित्रण हुआ। वे लिखते हैं-

जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी।

फूटा कुंभ, जल जलहि समाना, यह तत कथ्यो गियानी॥

इसी युग में जायसी ने भी रहस्यवादी भावना का अत्यंत मनोहर चित्रण किया है। उनकी अनुभूति में ‘प्रेम की पीर’ या ‘विरह वेदना’ का प्राधान्य है।

भक्तिकाल के अनंतर रहस्यवादी भावना कुछ समय तक लुप्त रही, किंतु आधुनिक युग में छायावादी युग के प्रारंभ होने के साथ ही रहस्यवाद का स्वर भी मुखरित हो उठा। इस युग के सभी प्रमुख कवियों की वाणी में रहस्यवाद की भावना व्यक्त हुई। सर्वश्री जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, हरिकृष्ण ‘प्रेमी’ आदि कवियों ने रहस्यवाद का चित्रण किया है। आधुनिक युग का रहस्यवाद भावना-प्रधान है, फिर भी, प्रसाद जी की रचनाओं में चिंतन की झलक मिलती है। महादेवी वर्मा का रहस्यवाद सबसे अधिक मार्मिक बना है, क्योंकि उसमें अनुभूति की प्रधानता और विरह का स्वर तीव्र है।

परिस्थितियों के अनुरूप हिंदी कविता ने नया मोड़ लिया और रहस्यवादी भावना का चित्रण प्रायः रुक गया है।

रहस्यवाद की पाँच अवस्थाएँ मानी जाती हैं-

(क) जिज्ञासा- जब साधक संसार की अज्ञेयता, अनंतता, विचित्रता, अव्यक्तता को देखता है, तो उसका हृदय विस्मय और कौतूहल से भर जाता है। ऐसी दशा में वह जानना चाहता है कि इस जीवन और जगत का निर्माता कौन है और वह इस ज्ञानेच्छा को नाना रूपों में व्यक्त करता हुआ कहता है-

नभ के पर्दे के पीछे, करता है कौन इशारे।

सहसा किसने खोले हैं, जीवन के बंधन सारे। (हरिकृष्ण ‘प्रेमी’)

(ख) प्रभु महिमा का गान- जिज्ञासा ही जिज्ञासा में रहस्य के पट कुछ-कुछ खुलने लगते हैं और आत्मा को परमात्मा की झलक मिलने लगती है। इसी दशा में कवि-आत्मा कहती है-

क्या पूजन क्या अर्चन रे?

उस असीम का सुंदर मंदिर, मेरा लघुतम जीवन रे।

(महादेवी)

(ग) वियोग की अनुभूति- असीम सौंदर्य की अनुभूति के अनंतर कवि-आत्मा उस प्रिय के वियोग में तड़पने लगती है, क्योंकि ‘तौ लगि धरि, देखी नहिं पीड़ा, धीरज के बंधन टूट जाते हैं, वियोग का असाध्य रोग लग जाता है-

ठहरो बेसुध पीड़ा को, मेरी न कहीं छू लेना।

जब तक वे आ न जंगावें, बस सोती रहने देना॥

(महादेवी)

(घ) मिलन की अनुभूति धीरे-धीरे प्रेम विकसित होता है और प्रेम की डोर उस रहस्य-रूप प्रिय को खींच लाती है। प्रिय-प्रिया का मिलन होता है और दिल की शहनाई की गूंज में सुनाई पड़ता है-

ये सब स्फुलिंग हैं मेरी, उस ज्वालामुखी जलन के।

कुछ शेष चिह्न हैं केवल, मेरे उस महामिलन के॥

(प्रसाद)

(ङ) एक रूपता- यह मिलन महानंद के रूप में परिवर्तित हो जाता है, आत्मा आनंद रूप प्रिय में खोकर अनुभव करने लगती है-

जल थल मरुत व्योम में, जो छाया सब ओर।

खोज-खोजकर खो गई, मैं पागल प्रेम विभोर॥

आचार्य शुक्ल ने रहस्यवाद के दो रूप माने हैं-साधनात्मक रहस्यवाद और भावात्मक

रहस्यवाद।

कबीर, जायसी, माखनलाल चतुर्वेदी, मुकुटधर पांडेय, प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी वर्मा, हरिकृष्ण ‘प्रेमी’ आदि इस धारा के प्रमुख कवि हैं, जिन्होंने अद्वैत-भावना, दाम्पत्य-प्रेम, प्रतीक-शैली और मुक्तक गीतों में रहस्यवादी अभिव्यक्तियाँ की हैं।

हिंदी में प्रचलित प्रतीकवाद, अरूपवाद, अभिव्यंजनावाद और संकेतवाद रहस्यवाद के ही विभिन्न रूप और अंग हैं।

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