साहित्य के आचार्यों में काव्य के विषय में दो प्रधान विचारधारा मिलती हैं। एक चमत्कारवादी विचारधारा और दूसरी रसवादी विचारधारा रीति-काल में विशेष रूप से जिस धारा का जोर रहा वह अलंकारवादी विचारधारा है। शेष सभी कालों में रसवादी धारा का प्राधान्य मिलता है। अलंकारवादी विचारधारा के दो प्रवाह हिंदी साहित्य में आए, एक केशव द्वारा, जिसमें मम्मट और उद्भट का अनुकरण किया गया था। इस चमत्कारवादी काव्यधारा में प्रवाहित होने वाले कवि कविता को अलंकारों के लिए मानते थे। वहाँ वाह-वाह का बोलबाला रहता था और हृदय को छूने वाले तत्त्वों का अभाव। केशव की तमाम रामचंद्रिका को पढ़ जाने पर भी कहीं एक पंक्ति भी ऐसी न मिलेगी जिसे पढ़कर पाठक एक क्षण के लिए भी हृदय थामकर बैठ जाए। हाँ, यह अवश्य है कि यदि पंडित है तो वह शब्दों की उछल-कूद पर वाह-वाह हर पद पर कर सकता है। चमत्कार-प्रधान कविता लिखने वाले कवियों में बिहारी को हम अपवादस्वरूप ले सकते हैं, क्योंकि उसकी कविता में चमत्कार की प्रधानता होते हुए भी रस का नितांत अभाव हो, ऐसी बात नहीं है।
अलंकार का अर्थ है ‘सौंदर्यवर्धक आभूषण’। आभूषण किसी भी वस्तु का बाह्य रूप बन सकता है, अंतरंग नहीं। बाह्य रूप कितना भी सुंदर क्यों न हो जब तक उसमें प्राण न हों, जीवन का रस न हो तब तक वह बाह्य रूप व्पर्थ ही रहता है। ‘रस’ का संबंध काव्य के बाह्य रूप से न होकर उसकी आत्मा से होता है। काव्य की आत्मा में जीवन-स्फूर्ति लाना, मादकता लाना, हृदय-ग्राहिता लाना, यह सब रस का कार्य है। यदि ‘अलंकार’ काव्य में आकर्षण पैदा करता है तो ‘रस’ काव्य को जीवन प्रदान करता है। जिस प्रकार एक पत्थर की सुंदर मूर्ति को आभूषण से लादने पर भी वह चल नहीं सकती, चाहे संगतराश ने उसे कितना ही सुंदर क्यों न बनाया हो और उसका अंग-अंग आभूषणों से लदा हुआ क्यों न हो, उसी प्रकार काव्य भी बिना रस के उसी सुंदर प्रस्तर मूर्ति के समान है यदि उसमें रस का संचार नहीं। इसका संचार काव्य की प्रधान आवश्यकता है।
रस का संबंध संचारी भावों और उद्भावों से है और उन्हीं का आश्रय लेकर वह परिपक्व अवस्था तक पहुँचता भी है। रस विहीन काव्य उस खोई के पट्ठे के समान है जिस गन्ने को कोल्ह में पेलकर रस निकाल लिया गया हो और वह सुखा पट्ठा अवशेष रह गया हो। अलंकारों से काव्य का सौंदर्य बढ़ता है, उसमें प्रभावोत्पादकता आती है, भाषा में सौंदर्य आ जाता है और कहीं कहीं पर चमत्कार रस-प्रवाह में भी सहायक होता है परंतु फिर भी अलंकारों का प्रयोग सोच-समझकर करना होता है, आँख मींचकर नहीं। घी बलवर्द्धक पदार्थ है परंतु अधिक पी लेने से हानिप्रद ही सिद्ध होता है। मात्रा से अधिक अलंकारों का प्रयोग भी काव्य में सौंदर्य लाने की अपेक्षा उल्टा भद्दापन लाने लगता है और काव्य उनके भार से बोझिल हो उठता है। उनकी दशा ठीक उसी प्रकार की हो जाती है जैसे मानो किसी नाजुक-सी बालिका के गले में पाँच सेर की माला डाल दी जाए, उसके हाथों में दो सेर के कड़े, पैरों में पाँच-पाँच सेर के अभूषण और इसी प्रकार आभूषणों से उसे लाद दिया जाए। अब चाहे वह आभूषण सोने के ही क्यों न हों, और उसमें हीरे-जवाहरात ही क्यों न जड़े हों, परंतु उस बालिका का बदन तोड़ने के लिए तो वह आभूषण का कार्य न करके हथकड़ी, बेड़ी और तौक़ का कार्य करेंगे और बोझ के कारण उसकी गर्दन ऐसी झुक जाएगी कि वह अपने साधारण सौंदर्य को भी अवशेष नहीं रख सकेगी। उसकी गर्दन झुक जाएगी कमर में बल पड़ जाएगा, मुँह पर स्वेद-कण झलक आएँगे, मस्तक पर उद्विग्नता के चिह्न होंगे और वह अपने को उन आभूषणों से मुक्त करने के लिए छटपटाने लगेगी। अब सोचिए ऐसे आभूषणों से क्या लाभ? काव्य की दशा भी अधिक अलंकारों के चक्कर में पड़कर ठीक उसी बालिका की ही भाँति होती है। काव्य का सौंदर्य नष्ट हो जाता है और अलंकारों की कूद-फाँद नट की कलाबाजी से बढ़कर और कुछ नहीं रहती।
किसी काव्य को सुनकर या अभिनय को देखकर हृदय में जो अकथनीय और अनुपम रस उत्पन्न होता है उसे रस कहते हैं। बुद्धि कल्पना और अनुराग का आश्रय लेकर कवि काव्य का सृजन करता है। स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव मानव के मन में उत्पन्न होते रहते हैं। स्थायी भाव स्थिर रहते हैं और अन्य सब परिस्थितियों-वश उत्पन्न होते रहते हैं। “स्थायी भाव विभाव के सहारे उत्पन्न और पोषित होकर अनुभाव रूपी वृक्ष बनता है। फिर संचारी भाव फूल के समान क्षण-क्षण फूलकर इन सबके संयोग से मकरंद रूप रस बनता है जो कि मधुप रूपी कवियों का जीवनाधार होता है।” इससे सिद्ध होता है कि रस स्थायी भाव की परिभाषा की परिपाक अवस्था है और वह हृदय में किसी-न-किसी रूप में हर समय वर्तमान रहती है।
अलंकार दो प्रकार के होते हैं, एक शब्दालंकार और दूसरे अर्थालंकार। शब्दालंकार का संबंध केवल शब्द तक सीमित रहता है, काव्य के अर्थ से उनका संबंध नहीं रहता। दूसरे प्रकार के अलंकार अर्थालंकार होते हैं जिनका संबंध काव्य के अर्थ से रहता है। प्रथम प्रकार के अलंकार में ध्वनि की विशेषता रहती है और वह संगीत में बहुत सहायक होते हैं। दूसरे प्रकार के अलंकार काव्य में गांभीर्य लाते हैं और कवि के पांडित्य की कसौटी के रूप में भी हम उन्हें रख सकते हैं। कुछ लोगों का मत है कि अलंकारों के बिना भी कविता अच्छी बन सकती है, अतः ये अनावश्यक हैं परंतु हम इससे सहमत नहीं। कविता में जहाँ अलंकारों का आधिक्य बुरा लगता है, वहाँ इनका अभाव भी अखरने लगता है। यत्र-तत्र अलंकारों के आ जाने से काव्य की रोचकता और सौंदर्य में वृद्धि होती है। बिना अलंकारों के भी काव्य की शोभा नहीं। क्योंकि शृंगार सौंदर्यवर्धक होता है और सौंदर्य बिना काव्य-कला निरर्थक है।
रस नौ हैं ‘शृंगार’, ‘हास्य’, करुणा’, ‘रौद्र’, ‘वीर’, ‘भयानक’, ‘वीभत्स’, ‘अद्भुत’ और ‘शांत’ और इनके नौ ही स्थायी भाव हैं जो हृदय में हर समय वर्तमान रहते हैं। नाट्य शास्त्र में आठ रस माने जाते हैं क्योंकि वहाँ ‘शांत रस’ के लिए कोई स्थान नहीं। कुछ विद्वान् ‘स्नेह’ को स्थायी भाव मानकर ‘वात्सल्य’ को एक दस रस मानते हैं। कुछ विद्वान् ‘अनुराग’ को स्थायी भाव मानकर भक्ति को ग्यारहवाँ रस मानते हैं परंतु परंपरागत प्रचलित रस नौ ही हैं, क्योंकि ‘अनुराग’ और ‘स्नेह’ को पंडित ‘रति’ के अंतर्गत लेकर भक्ति और वात्सल्य को भी शृंगार के ही अंतर्गत ले लेते हैं।
इस प्रकार हमने देखा कि काव्य के लिए अलंकार और रस उसके बाह्य रूप और आत्मा के समान ही कला को जीवित रखने के लिए दोनों ही नितांत आवश्यक हैं। रस विहीन काव्य काव्य नहीं है और अलंकार-विहीन काव्य सुंदर नहीं है। सुंदर न होने पर भी काव्य अपने आसन से गिर जाता है और उसके पठन-पाठन में जो अलौकिक आनंद आना चाहिए वह नहीं आ पाता। अंत में रस और अलंकार के विषय को समाप्त करते हुए हम विद्यार्थियों को यह और बतला दें कि भरत मुनि और विश्वनाथ जी ने रस को काव्य की आत्मा माना है और यही मत आज के विद्वान् भी मानते हैं। दण्डी, मम्मट आदि का अलंकार को काव्य की आत्मा मानने वाला आज के काव्यकारों के लिए मान्य नहीं है।