Sahityik Nibandh

मीराबाई

hindi sahitya men meerabai ki bhumika

भक्ति काल की प्रसिद्ध कवयित्री मीराबाई का जन्म सम्वत् 1573 में मेवाड़ के राठौर सामन्त रत्नसिंह के यहाँ हुआ था। उनका विवाह महाराणा साँगा के पुत्र भोजराज के साथ हुआ था। दुर्भाग्यवश विवाह के कुछ समय पश्चात् ही उनके पति की मृत्यु हो गई। विधवा – जीवन के दुखों को भूलने के लिए वह अपना समय अधिकतर ईश्वर भक्ति में व्यतीत करने लगीं। कृष्ण- भक्ति की मधुरता की ओर आकृष्ट होकर उन्होंने उन्हीं को अपने आराध्य देव के रूप में ग्रहण किया और उनकी भक्ति में अनेक मधुर पदों की रचना की। वह कृष्ण की उपासना में इतनी अधिक तल्लीन रहने लगीं कि संसार के प्रलोभन शनैः शनैः उन्हें तुच्छ प्रतीत होने लगे। राज-परिवार में रहते हुए भी उनके निर्लिप्त और निश्चित व्यवहार को देखकर उस समय के नरेश अत्यंत रुष्ट होने लगे। उन्होंने उन्हें भक्ति के मार्ग से हटाने के लिए प्रत्येक संभव चेष्टा की, किंतु मीरा ने इस पथ का अनेक बांधाएँ आने पर भी त्याग नहीं किया। श्रीकृष्ण के प्रति उनका अनुराग क्रमशः और भी अधिक दृढ़ होता चला गया और अंत में महाराणा के व्यवहार से दुखित होकर वह वृंदावन चली गई। इस स्थान पर उन्हें भक्ति मार्ग में किसी प्रकार की कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा और वहीं सम्वत् 1620 तथा 1630 के मध्य उनकी मृत्यु हो गई।

मीराबाई ने अपने पदों में श्रीकृष्ण को अपने प्रियतम के रूप में चित्रित किया है। उन्होंने श्रीकृष्ण की छवि का विस्तृत वर्णन करते हुए उनके प्रति अपनी भावनाओं को अत्यंत मधुर रूप में उपस्थित किया है। उन्होंने अपने काव्य में ईश्वर के विरह में हृदय की व्याकुलता का मार्मिक चित्रण किया है। प्रवाह और प्रभाव की दृष्टि से भी उनकी भावनाएँ अत्यंत श्रेष्ठ बन पड़ी है। उन्होंने अपने काव्य को राजस्थानी भाषा और ब्रजभाषा में अत्यंत श्रेष्ठ रूप में उपस्थित किया है। उनके काव्य का विशेष गुण यही है कि उसमें भाषा की स्वच्छता, शैली के प्रवाह, भावों की तन्मयता और संगीत की एकाग्रता का एक ही स्थान पर सुंदर सम्मिलन हो गया है। उनके ‘राग- गोविंद’, ‘नरसी जी का मायरा’, ‘सोरठ के पद’ और ‘गीत गोविंद की टीका’ नामक ग्रंथों में इन सभी गुणों को सहज ही लक्षित किया जा सकता है।

हिंदी की कवयित्रियों में मीराबाई का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भक्ति काल में भक्ति की निर्मल गंगा प्रवाहित करने वाले कवियों में भी वह अन्यतम स्थान रखती है उन्होंने अपने काव्य की रचना एक साहित्यकार के रूप में न कर एक भक्त नारी के रूप में की थी। अतः उनकी रचनाओं में काव्य-कला की सूक्ष्मताओं को खोजना व्यर्थ है। तथापि भाव-समृद्धि की दृष्टि से उनकी रचनाएँ अत्यंत सुंदर बन पड़ी है। उनके पदों में आत्म-निवेदन और भक्त के हृदय की विकलता का अत्यंत प्रभावशाली चित्रण हुआ है। इसी कारण नाभादास जी ने अपने ‘भक्तमाल’ शीर्षक ग्रंथ में तथा ध्रुवदासजी ने अपनी ‘भक्त नामावली’ शीर्षक कृति में उनका अत्यंत श्रद्धा के साथ स्मरण किया है। उनके हृदयस्पर्शी भावों का उनके बाद की हिंदी कविता पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। आधुनिक युग में महादेवीजी के काव्य में भी हमें इसी प्रकार की मार्मिक उक्तियाँ प्राप्त होती हैं।

मीराबाई की रचनाएँ आज अपने शुद्ध रूप में उपलब्ध नहीं है। एक ओर तो उनके द्वारा लिखे गए अनेक पद आज लुप्त हो गए हैं और दूसरी ओर उनके बाद के कवियों द्वारा लिखित कुछ पद भी उनके नाम से प्रचलित हो गए हैं। इसी प्रकार उनके पदों की भाषा और भावों में भी कहीं-कहीं अंतर आ गया है। ऐसी स्थिति में उनकी रचनाओं के विषय में अन्तिम रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। तथापि उनका काव्य हमें जिस रूप में उपलब्ध है, उस रूप में भी उनके मार्मिक भाव हमारे हृदय को प्रभावित किए बिना नहीं रहते। इसका कारण यह है कि उन्होंने अपने पदों में अपने हृदय की वेदना को पूर्णतः ढालकर रख दिया है। श्रीकृष्ण को प्रियतम के रूप में स्वीकार कर जिस सहज आत्मीयता के साथ उन्होंने अपने काव्य की रचना की है वैसी तल्लीनता की भावना इतनी अधिकता के साथ हिंदी काव्य में बहुत कम उपलब्ध होती है।

भाव प्रतिपादन की दृष्टि से मीराबाई के काव्य को दो भागों में बाँटा जा सकता है। एक ओर तो उन्होंने श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम निवेदन को शृंगार रस के संयोग और वियोग पक्षों के अनुसार उपस्थित किया है तथा दूसरी ओर विनय भाव से युक्त शुद्ध भक्ति पदों की रचना की है। उनकी भक्ति माधुर्यमयी होने के कारण प्रेम-प्रधान है। इसी कारण उन्होंने श्रीकृष्ण से संयोग की इच्छा प्रकट करते हुए उनकी रूप छवि का आकर्षक वर्णन किया है। इस प्रकार के पदों में उन्होंने अपनी भावनाओं को बिना किसी संकोच के अत्यंत स्पष्ट रूप में उपस्थित किया है। इसके अतिरिक्त स्वाभाविकता भी इन पदों में आदि से अंत तक व्याप्त रही है। उदाहरणार्थ उनका निम्नलिखित पद देखिए-

“बसो मेरे नैनन में नंदलाल।

मोहिनी मूरति साँवरी सूरति, नैना बने विशाल॥

मोर मुकुट मकराकृत कुण्डल, अरुण तिलक दिए भाल।

अधर सुधा रस मुरली राजति, उर बैजंती माल॥

क्षुद्र घंटिका कटि तटि सोभित, नूपुर शब्द रसाल।

मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भक्तबच्छल गोपाल॥”

मीराबाई ने अपने ईश-विरह-संबंधी पदों में भी इस स्वाभाविकता को इसी प्रकार उपस्थित किया है। इस प्रकार के पदों में हृदय की विकलता का जितने मार्मिक रूप में उद्घाटन हुआ है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मीराबाई के प्राणों में श्रीकृष्ण पूर्ण रूप से समा गए थे। उनके विनय-भाव- युक्त भक्ति-पदों में भी भक्त के आत्म-निवेदन की सफल अभिव्यक्ति हुई है। इस प्रकार के पदों में संसार की अनित्यता, माया के प्रभाव और व्यर्थ के आडंबरों के त्याग का उपदेश देते हुए उन्होंने भक्त को शुद्ध हृदय से भगवान् की भक्ति करने का संदेश दिया है। उन्होंने अपने पदों में अनेक स्थानों पर पुनर्जन्म से मुक्ति की इच्छा प्रकट की है। उनके भक्ति पदों में विनय-भाव और दार्शनिक चिंतन का सहज विकास उपलब्ध होता है। उदाहरण के लिए उनकी निम्नलिखित पंक्तियाँ देखिए-

“भजि मन चरण कमल अविनासी।

जे ताइ दोसे धरनि गगन बिच,

ते ताई सब उठ जासी॥

कहा भयों तीरथ व्रत कीने,

कहा लिए करवट कासी।

इस देही का गरव न करना,

माटी में मिलि जासी ॥

X X X

अरज करों अबला कर जोरें,

स्याम तुम्हारी दासी।

मीरा के प्रभु गिरिधर नागर,

काटो यम की फाँसी॥”

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि मीराबाई ने अपने काव्य में श्रीकृष्ण के प्रति अपनी भक्तिमयी प्रेम-भावना और विनय-भाव को व्यापक अभिव्यक्ति प्रदान की है। उनके काव्य का भाव पक्ष निश्चय ही अत्यंत श्रेष्ठ बन पड़ा है। उन्होंने श्रीकृष्ण की विविध लीलाओं का भी सुंदर चित्रण किया है। वस्तुतः हिंदी के प्रेम-भक्ति काव्य में मीराबाई की रचनाओं का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। हृदय की प्रेरणा से लिखित होने के कारण उनके पदों का भक्त जनों में अपार आदर है।

मीराबाई के काव्य में कला-तत्त्वों का उपयुक्त विकास उपलब्ध नहीं होता। इस क्षेत्र में उनकी सफलता केवल उनकी प्रगति शैली पर आधारित है। गीति काव्य के अनुरूप मधुर शब्दावली और प्रवाह की योजना में निश्चय ही वह सफल रही हैं। उनके काव्य में गीति काव्य के लिए आवश्यक विविध गुण इतनी अधिकता से प्राप्त होते हैं कि उन्हें हिंदी के प्रमुख गीति-काव्यकारों में सहज ही स्थान प्रदान किया जा सकता है। अन्य कला-तत्त्वों में उनकी भाषा मधुर होने पर भी शुद्ध नहीं है। इसका कारण उनके काव्य का प्रामाणिक रूप में प्राप्त न होना भी हो सकता है। गीति काव्य की रचना के कारण उनके काव्य में छंदों के समावेश का प्रश्न ही नहीं उठता। अलंकारों का प्रयोग भी उनके पदों में अधिक नहीं हुआ है, किंतु इस विषय में उन्होंने स्वाभाविकता का सर्वत्र ध्यान रखा है।

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