हिंदू और मुसलमान पृथक् पृथक् अवश्य प्रतीत होते हैं परंतु उनके मानव में एक्य है। हिंदी साहित्य हिंदुओं का साहित्य है, भाषा, भाव और संस्कृति के विचार से परंतु फिर भी कुछ मुसलमान कवियों ने हिंदी को वह रचनाएँ प्रदान की हैं कि जिन्होंने हिंदी साहित्य में अपना स्थान बना लिया है। यह रचनाएँ उस काल की हैं, जब कि भारत में मुसलमान राज्य था और भारत की भक्ति भावना ने भावुक मुसलमानों को अपनी धारा में प्रवाहित कर लिया था।
मुसलमानों का पहला महत्त्वपूर्ण वर्ग प्रेमाश्रयी धारा के अंतर्गत आता है जिसने सूफी सिद्धांतों के अनुसार भारतीय चरित्रों में प्रेमामृत का संचार किया। जायसी की प्रसिद्ध रचना पद्मावत का नाम इस स्थान पर उल्लेखनीय है, जिसके विषय में आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने यह भी लिखा है कि प्रबंध-काव्यों में रामचरितमानस के बाद पद्मावत का ही स्थान आता है। कुतुबन, ‘नूर’ मुहम्मद, मंझन इत्यादि इस धारा के अन्य कवि हैं। यह ‘सूफी’ धर्म प्रचार भारतीय जनता में करना चाहते थे। अवधी भाषा में इन कवियों ने अपनी रचनाएँ कीं। कविता के विषय के लिए इन कवियों ने हिंदुओं की प्रच लित और अर्ध-कल्पित कथाओं को अपनाया। यह अपनी भावुकता के साथ हिंदू-हृदयों तक पहुँचना चाहते थे। इसमें उन्हें अधिक सफलता प्राप्त नहीं हो सकी। हाँ, हिंदी को पद्मावत् जैसा सुंदर ग्रंथ अवश्य प्राप्त हो गया। इस धारा के कवियों में पांडित्य का अभाव था।
मुसलमानों के दूसरे वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में हम ‘रसखान’ को पाते हैं। इस वर्ग पर कृष्ण भक्ति का प्रभाव हुआ था और यह विशुद्ध कृष्ण भक्ति की भावना को लेकर कविता क्षेत्र में अवतीर्ण हुए। साहित्य सेवा उनका लक्ष्य नहीं था, वह तो लालायित हुए थे श्याम की मनोहर मूर्ति पर भक्ति भावना से प्रेरित होकर वह मुक्त कंठ से गाते थे।
मानुष हौं तो वही रसखानि बस ब्रज गोकुल गाँव के द्वारन।
जो पशु हाँ तो कह स मेरो चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हों तो वहीं गिरि को जो धर्यो कर छत्र पुरन्दर कारन।
जो खग हाँ तो बसेरो करों मिली कालिंदी कूल कदम्ब की डारन॥
इस वर्ग के कवि प्रेमी जीव थे जिन पर भक्ति और साहित्य का समान प्रभाव था और जिन पर भारतीयता अपना असर कर चुकी थी।
तीसरे वर्ग के कवि हमें रीति-काल में देखने को मिलते हैं। राम भक्ति की मर्यादा ने उनके उच्छृंखल स्वभाव को अपने अंदर समावेश करने की आज्ञा नहीं दी। या यों भी कह सकते हैं कि वह उसमें समावेश करने का साहस ही न कर सके। इस धारा में रहीम का नाम विशेष उल्लेखनीय है। आपने रहीम-सतसई, बरवं, शृंगार-सोरठ, मदनाष्टक इत्यादि ग्रंथों की रचना की। पठान सुलतान ने बिहारी सतसई पर कुंडलियाँ लिखीं। हिंदी साहित्य में इस वर्ग के कवियों की संख्या सबसे अधिक है। इस धारा में जो साहित्य रचा गया वह प्रधानतया शृंगार-प्रधान है। मुसलमान भावुक तो होते ही हैं, इसलिए उन्हें इस प्रकार का साहित्य लिखने में काफ़ी सफलता मिली है।
चौथे वर्ग के मुसलमान लेखक सैलानी जीव हैं, जिन्होंने विनोदपूर्ण साहित्य का सृजन किया हैं। इन्होंने हिंदी साहित्य में एक नवीन धारा को प्रवाहित किया और एक प्रकार से साहित्य के गांभीर्य को तोड़कर उसमें दिल बहलाने और मन को हलका करने की सामग्री प्रस्तुत की। खुसरो और इंशाअल्ला खाँ इसी वर्ग के प्रधान लेखक हैं। वर्तमान हिंदी गद्य का प्राचीनतम रूप हमें इन्हीं दोनों की भाषा में मिलता है। खुसरो की कविता का एक निखरा रूप देखिये-
गोरी सोवै सेज पर, मुख पर डारे केस।
चल खुसरो घर आपने रैन भई चहूँ देस॥
खुसरो की मुकुरियाँ हिंदी साहित्य में अपना विशेष स्थान रखती हैं। ईशा अल्ला खाँ की ‘रानी केतकी की कहानी’ हिंदी गद्य का वह नमूना है जो हिंदी भाषा साहित्य में जब तक भाषा साहित्य का इतिहास रहेगा सर्वदा अमर रहेगी।
पाँचवा वर्ग उन मुसलमान कवियों का है जो वास्तव में उर्दू के लेखक हैं परंतु उन्होंने हिंदी में भी लेखनी उठाई है। वर्तमान गद्य लेखकों में तो थोड़ा-सा लिपि भेद कर देने से अनेकों लेखक इस श्रेणी में आएँगे।
इन ऊपर दिए गए सभी लेखकों की रचनाओं में अपनी-अपनी विशेषता है। यह कहना तो असत्य होगा कि इनकी रचनाओं पर मुसलमानी प्रभाव है ही नहीं परंतु इतना तो निश्चयपूर्वक ही कहा जा सकता है कि इन सभी लेखकों ने भारतीयता के साँचे में अपने साहित्य को ढाला खूब है। अपने-अपने समय की प्रणालियों और विचारधाराओं को लेकर उनमें अपनेपन की पुट इन लेखकों ने दी है। इनकी रचनाएँ हिंदी साहित्य की अमर निधियाँ हैं और इनके साहित्य में आ जाने से साहित्य में एक ऐसा विस्तृत दृष्टिकोण उपस्थित हुआ है कि समन्वय की भावना के साथ रहस्यवाद के कई रूप सामने आ गए हैं। जायसी ने अपने दर्शन में जिस रहस्यवाद की पुट दी है वह उसका अपना है और उसमें हिंदू तथा मुसलमानी भावनाओं का इतना सुंदर समन्वय मिलता है कि पाठक इनके ग्रंथ को पढ़कर मुक्त कंठ से इनकी प्रशंसा कर उठता है। रसखान ने बहुत कम लिखा है परंतु जो कुछ भी लिखा है उसकी तुलना हम सूर और मीरा के ही पदों से कर सकते हैं। खुसरो की तुलना करने के लिए हमारे पास कोई अन्य लेखक हिंदी में नहीं है और रहीम इनका स्थान भी अपना विशेष महत्त्व रखता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि मुसलमानों ने जो हिंदी सेवा की है वह बहुत महत्त्वपूर्ण है और उसका हिंदी साहित्य, भाषा और भाव-सौंदर्य के विचार से विशेष स्थान है। भारतीय और फारसी शैलियों का उसमें हमें सुंदर समन्वय मिलता है।