Sahityik Nibandh

हिंदी-साहित्य पर विदेशी प्रभाव

hindi sahitya par videshi prabhav ek laghu nibandh

हिंदी साहित्य का आदि काल विदेशी आक्रमणों का काल था। इसलिए हिंदी साहित्य पर प्रारंभ से ही विदेशी प्रभाव हमें स्पष्ट दिखलाई देता है। इस निबंध में हम हिंदी-काल विभाजन के क्रम के अनुसार ही विचार करेंगे।

वीरगाथा-काल हिंदी साहित्य का प्रारंभिक काल है और पृथ्वीराज रासो उस काल का प्रतिनिधि ग्रंथ यह राष्ट्रीयता प्रधान है और विशेष रूप से मुसल मानी सभ्यता का घोर प्रतिद्वंद्वी भी इसे हम कह सकते हैं। परंतु उसकी भाषा पर हमें विदेशी प्रभाव स्पष्ट दिखलाई देता है। चंदबरदाई लाहौर के रहने वाले थे और लाहौर पहले से ही मुसलमानों के अधिकार में आ चुका था। इसलिए वहाँ की भाषा का भी उन पर प्रभाव पड़ना अनिवार्य था। उसी प्रभावित भाषा के नमूने हम पृथ्वीराज रासो में यत्र-तत्र देखते हैं। फिर भी छंद, विषय इत्यादि पर इस काल में कोई विदेशी प्रभाव नहीं पड़ा और न ही दर्शन पर, क्योंकि दर्शन-साहित्य तो इस काल मे लिखा ही नहीं गया।

हिंदी साहित्य का दूसरा काल हमें अनेक रूप में विदेशी प्रभाव से आच्छादित दिखलाई देता है। यह सत्य है कि विदेशी प्रभाव राजनैतिक परा-धीनता होने पर भी मूल तत्त्वों पर विजय नहीं प्राप्त कर सका; साहित्य की आत्मा को ठेस नहीं पहुँचा सका; परंतु रूप में, रंग में, आवरण में, सौंदर्य में, कल्पना में, व्यवहारिकता में और अन्य भी अनेकों रूपों में उसने हिंदी साहित्य को प्रभावित किया है, और खूब सफलता के साथ किया है। हिंदी साहित्य के व्यापक दृष्टिकोण ने उन बिदेशी प्रभावों को अपनाया, उनका सम्मान किया, उन्हें बल दिया और अमरता प्रदान की।

निर्गुण-पंथ पर चलाने के लिए आश्रय लिया और दोनों का रहस्यवाद का रूप खड़ा हो कबीर ने हिंदू और मुसलमानों को अपने भारतीय दर्शन और मुसलमानी एकेश्वरवाद का इतना सुंदर सामंजस्य स्थापित किया कि कबीर के गया, जिससे प्रभावित होकर रवींद्र ने ‘गीतांजलि’ लिखी और नोबिल प्राइज़ (Noble prize) प्राप्त करके संसार में अमरता ली। जायसी ने भारतीय निर्गुण ब्रह्म में सूफी प्रेम का सम्मिश्रण करके पद्मावत जैसा अमर काव्य हिंदी को भेंट किया। रसखान ने कृष्ण भक्ति शाखा के अंतर्गत रचनाएँ करके हिंदू और मुसल-मान हृदयों को भक्ति के क्षेत्र में मिलाकर एक कर दिया। रहीम के दोहे जन-जन की वाणी बने और खुसरो ने साहित्य के मौन गांभीर्य को एक चहल-पहल दी। हिंदी की पाचन शक्ति ने सबको पचाकर अपना बना लिया और सम्मिश्रण से साहित्य के ऐसे सुंदर गुलदस्ते सजाए कि जो किसी भी हिंदी साहित्य प्रेमी की बैठक को अपने पराग और गन्ध से हर समय परिपूर्ण रखते हैं। भक्ति और रीति काल दोनों पर समान रूप से हमें विदेशी प्रभाव दिखलाई देता है।

अब हमारे सम्मुख आता है आधुनिक काल। आधुनिक काल में मुसलमानी युग समाप्त हो गया और उसका प्रभाव पड़ने का प्रश्न भी उसके साथ-साथ हिंदी साहित्य से विदा हुआ। यहाँ हम पाठकों के सम्मुख यह स्पष्ट कर देना उचित समझते हैं कि इस विदेशी प्रभाव से प्रभावित होकर हिंदी-साहित्य ने अपनी निधि को निरंतर बढ़ाया ही है; कम नहीं होने दिया। आधुनिक काल के साथ-साथ भारत की राजनीति ने करवट बदली और यहाँ पर अंग्रेजों का शासन काल आया। अंग्रेजी शासन काल में यूरोप की सभ्यता भारत में आयी। लॉर्ड मेकाले और राजा राममोहनराय ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार किया। राज्य संबंधी कार्यों में अग्रेजी का प्रयोग हुआ। न्यायालयों की भाषा अंग्रेजी बनी और इस प्रकार एक तरह से ‘अंग्रेजी’ भारत के सभी क्षेत्रों में छाती चली गई। भारत में विद्यालय खुले, उनमें यूरोपियन ढंग की शिक्षाएँ चलों और उन विद्यालयों में पढ़ाने के लिए पुस्तकों की आवश्यकता हुई। हिंदी में यह सब पुस्तकें उपलब्ध नहीं थीं, उर्दू में नहीं थीं, फारसी में नहीं थीं और न उनके पढ़ाने वाले ही थे। इसलिए एक बार समस्त देश में अंग्रेजी का बोल-बाला हो गया। बंगाल और मद्रास की अंग्रेजी मानो मातृ भाषा ही बन तो गई।

जहाँ एक तरफ अंग्रेजी का प्रभाव इस प्रकार बढ़ रहा था वहाँ दूसरी ओर हिंदी के प्रेमी भी शांत नहीं बैठे थे। वह भी बराबर के प्रत्यनशील थे। राजा लक्ष्मणसिंह और ‘राजा शिवप्रसाद’ विद्यालयों में हिंदी को लाने का प्रयत्न कर रहे थे और ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी’ जी ने हिंदी को अदालतों की भाषा बनाने का आंदोलन किया। इनके साथ ही साथ हिंदी के लेखक भी मौन नहीं थे। वह अपनी उसी पुरानी रफ्तार पर चलना छोड़कर अपनी पैनी लेखनी से कविता, कहानी, समालोचना, निबंध, इतिहास, भाषा विज्ञान, भूगोल, गणित और इसी प्रकार अन्य क्षेत्रों में ‘उतर पड़े। देखते-ही-देखते कुछ ही दिनों में उन्होंने रात-दिन परिश्रम करके हिंदी साहित्य के भंडार को भर दिया। परंतु यह सब हुआ किस प्रकार? इन सब धाराओं में साहित्य की प्रगति किसके प्रभाव से हुई? क्या यह सब सामग्री उन्हें संस्कृत साहित्य से मिली? क्या फ़ारसी ने इस प्रगति में कोई सहायता दी? हम कहेंगे-नहीं, यह सब अंग्रेजी साहित्य की देन है। हिंदी के अनुभवी विद्वानों ने अंग्रेजी साहित्य पढ़ा, अनेकों पुस्तकों के अनुवाद किए और अनेकों से विचारधारा लेकर शैलियाँ लेकर, विषय लेकर हिंदी की अपूर्णता को पूर्ण किया। निबंध संस्कृत साहित्य में नहीं थे, उपन्यास संस्कृत-साहित्य में नहीं थे और आज तो अनेकों ऐसे नये विषय हिंदी में आ रहे हैं कि जिन्हें संस्कृत-साहित्य जानता भी नहीं था। बिजली-विज्ञान, लोकोमोटिव’ रेडियो-विज्ञान, सिनेमा विज्ञान यह सब नये विषय हैं। इन सबका हिंदी में समावेश हमें अंग्रेजी से ही आया हुआ मिलता है। अंग्रेजी कविता का हिंदी कविता पर प्रभाव पड़ा। छायावाद और प्रगतिवाद उसके उदाहरण हैं। प्रगतिवाद पर रूस के साहित्य का प्रभाव दिखलाई देता है। हिंदी नाटकों पर बंगला का प्रभाव पड़ा और उपन्यासों पर अंग्रेजी का।

कुछ भी सही, प्रभाव सभी का है परंतु हिंदी ने उस प्रभाव में बहकर अपनी आत्मा का हनन नहीं किया। हिंदी ने सर्वदा विषय अपने ही रखे हैं और रूप-रंग चाहे जैसा भी हो। अपने साहित्य में विदेशी वातावरण उपस्थित करने का जिस लेखक ने भी प्रयत्न किया है वह सफल नहीं हुआ और न ही हो सकता है। हिंदी के लेखकों ने बहुत कुशलतापूर्वक विदेशी विचारवलियों को भी अपने ही पैमाने में ढाला है और उसे वह मादक रूप दिया है कि एक हिंदी साहित्य की बहुमूल्य निधि बनकर रह गया है। इस प्रकार हिंदी विदेशी प्रभाव की आभारी है क्योंकि उसने हिंदी को विस्तार के लिए सामग्री दी है और विदेशी प्रभाव को हिंदी का आभारी होना चाहिए, क्योंकि हिंदी ने उसे व्यापकता दी, अमरत्व दिया।

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