यों तो समालोचनाएँ अपने पुरातन ढंग पर बहुत दिन से हिंदी साहित्य में चलती आ रही थीं, परंतु आज के युग में समालोचना ने जो रूप धारण कर लिया है उसकी प्रथम झलक हमें भारतेंदु युग में मिलती है। प्रारंभिक समालोचनाएँ पुस्तकाकार रूप में न मिलकर पत्र-पत्रिकाओं में मिलती हैं।
बद्रीनारायण चौधरी ने ‘आनंद-कादम्बिनी’ में अपने कई समालोचनात्मक लेख लिखे। भारतेंदु-युग में केवल यही समालोचनाएँ उल्लेखनीय हैं। इसके पश्चात् द्विवेदी जी का काल आता है, जब उन्होंने खोज-खोजकर हिंदी में लेखक और समालोचक पैदा किए। पंडित पद्मसिंह जी हिंदी-समालोचना-क्षेत्र में एक नवीन शैली लेकर आए। उन्होंने इस क्षेत्र में एक क्रांति पैदा कर दी और समालोचकों को एक नवीन दृष्टिकोण प्रदान किया। पंडित पद्मसिंह जी हिंदी, उर्दू, फारसी, संस्कृत और अंग्रेजी के अच्छे विद्वान् थे। यही कारण था कि आपने सभी साहित्यों का अच्छा अध्ययन किया था। आपने प्रथम बार हिंदी-साहित्य को तुलनात्मक समालोचना की झाँकी दिखलाई और वह बाद में इतनी प्रचारित हुई कि अनेकों समालोचकों ने उसे अपनाया। आपने ‘बिहारी सतसई’ की टीका की। इसके पश्चात् कृष्णबिहारी मिश्र ने ‘देव और बिहारी’, लाला भगवानदीन ने ‘देव और बिहारी’, विश्वप्रसाद मिश्र ने ‘बिहारी की वाग्विभूति’, बस बिहारी पर समालोचनाओं की झड़ी लग गई। इसी काल में भुवनेश्वर नाथ ‘मिश्र’ ने ‘मीरा की प्रेम-साधना’ नामक एक समालोचनात्मक पुस्तक भी लिखी।
समालोचना का नया युग आचार्य रामचंद्र शुक्ल से आरंभ हुआ। वर्तमान हिंदी-समालोचकों में शुक्ल जी का सर्वप्रथम स्थान है। तुलसीदास और जायसी की पद्मावत पर जो कुछ आपने लिखा है, वहाँ विराम लगा दिया है। दूसरे समालोचक उलट-पुलट कर उसी के चारों ओर घूम जाते हैं, कोई नवीन विचार प्रस्तुत नहीं कर पाते। शुक्ल जी की समालोचनाओं पर विदेशी प्रभाव है। आपका विषय का विश्लेषण पुराने ढंग का न होकर नवीन ढंग का होता है। आपने लेखक का कर्तव्य और उसके काव्य की सफलता दोनों विषयों की तुलनात्मक रूप से विवेचना की है। गंभीर विषयों को सुलझाने के लिए भाषा का प्रयोग किया है।
आज के युग में हिंदी का समालोचना-साहित्य दिन-प्रतिदिन उन्नति करता जा रहा है और भविष्य में बहुत उन्नति की संभावना है। प्रायः सभी प्राचीन ग्रंथों पर विद्वानों ने लेखनी उठाई है और उनकी समालोचनाएँ करके उन्हें इस योग्य कर दिया है कि पाठक इन्हें पढ़कर उचित अर्थ समझ सकें। बाबू श्यामसुंदरदास जी, हजारीप्रसाद द्विवेदी, श्री व्यास जी, शांतिप्रिय द्विवेदी जी, नरोत्तम प्रसाद नागर, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी इत्यादि लेखकों ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है।
आज के युग में समालोचना विश्लेषणात्मक ढंग की होती है जिसमें रचना के प्रति किसी विशेष प्रतिपादन की दृष्टि को लेकर नहीं चला जाता वरन् उसके गुण और दोष पर समुचित रूप से विचार किया जाता है। समालोचक का कर्तव्य है कि वह रचना को पाठकों के निकट पहुँचाने में सहयोग प्रदान करे और आज के हिंदी-साहित्य के समालोचक अपने इस कर्त्तव्य को निभाने में पूर्ण रूप से कटिबद्ध हैं। आशा है इस से हिंदी साहित्य की उन्नति में सहयोग मिलेगा।