हिंदी के उपन्यास साहित्य का प्रारंभ लाला श्रीनिवासदास के ‘परीक्षा गुरु’ नामक उपन्यास से होता है। इस उपन्यास में मौलिकता, रोचकता और भाव – सौंदर्य का प्रशंसनीय समावेश हुआ है। इस उपन्यास की रचना भारतेंदु- युग में हुई थी। इस युग के अन्य उपन्यासों में पंडित बालकृष्ण भट्ट के रतन ब्रह्मचारी’ तथा ‘सौ अजान एक सुजान’ और बाबू राधाकृष्ण के ‘निस्सहाय हिंदू’ के नाम भी उल्लेखनीय है। मौलिक उपन्यास लिखने की इस परंपरा का अधिक विकास न हो सका और उस समय के लेखक बंगला, उर्दू और अंग्रेजी से श्रेष्ठ उपन्यासों के हिंदी में अनुवाद करने लगे। इनके अनुवादकों में बाबू रामकृष्ण वर्मा, बाबू कार्तिकप्रसाद खत्री एवं पंडित रूपनारायण पांडेय के नाम उल्लेखनीय हैं; इन अनुवादों ने हिंदी उपन्यास – साहित्य को विकास की ओर ले जाने में महत्त्वपूर्ण योग दिया है।
इसके पश्चात् हिंदी में मौलिक उपन्यासों की रचना करने वालों में बाबू गोपालदास गहमरी, बाबू देवकीनंदन खत्री, पंडित किशोरीलाल गोस्वामी और बाबू लज्जाराम मेहता के नाम उल्लेखनीय हैं। गहमरीजी ने मुख्य रूप से जासूसी उपन्यास लिखे है, किंतु उनके कुछ उपन्यासों का संबंध पारिवारिक जीवन से भी है। उन्होंने अपने उपन्यासों की रचना सरल भाषा और प्रवाह- पूर्ण शैली में की है और उनमें घटनाओं की विचित्रता तथा मनोरंजन का पर्याप्त ध्यान रखा गया है। बाबू देवकीनंदन खत्री ने ‘चंद्रकान्ता संतति’, ‘भूतनाथ’ और ‘कुसुम कुमारी’ आदि उपन्यासों की रचना की है। इनमें रस तथा चरित्र- चित्रण की दृष्टि से कोई विशेषता नहीं मिलती। इनमें तिलस्म और जासूसी से संबंधित घटनाओं को मुख्य स्थान दिया गया है। इनकी भाषा-शैली का स्तर साधारण है। इनकी रचना केवल स्थूल मनोरंजन के लिए की गई है।
पंडित किशोरीलाल गोस्वामी ने हिंदी में श्रेष्ठ मौलिक उपन्यासों की सर्वप्रथम रचना की। उन्होंने सामाजिक समस्याओं को लेकर ‘चपला’, ‘तारा’, ‘लखनऊ की कब्र’ आदि मौलिक उपन्यास लिखे हैं। उन्होंने अपने उपन्यासों में रंगीन कथाओं द्वारा स्थूल आदर्शवाद तथा नैतिकता के वातावरण को उपस्थित किया है। उनकी वर्णन-शैली मनोरंजक है, किंतु पात्रों का चरित्र – विकास उपस्थित करने में वह प्रायः असफल रहे हैं। हिंदी उपन्यास के इस प्रारंभिक युग की समाप्ति पंडित अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ तथा बाबू ब्रजनंदन सहाय के उपन्यासों से होती है। ‘हरिऔध’ जी ने ‘ठेठ हिंदी का ठाट’ और ‘अधखिला फूल’ नामक दो उपन्यास लिखे है। ये दोनों सामाजिक उपन्यास है और इनमें आदर्शवादी विचारधारा को उपस्थित किया गया है। इनकी विशेषता यह है कि इनकी रचना ठेठ हिंदी भाषा में हुई है। बाबू ब्रजनंदन सहाय ने ‘सौन्दर्योपासक’ और ‘राधाकांत’ नामक उपन्यास लिखे हैं। ये दोनों स्वच्छ शैली में लिखे गए भाव प्रधान उपन्यास है।
प्रेमचंदजी के उपन्यास
प्रेमचंदजी ने हिंदी उपन्यास साहित्य को विकास प्रदान करने में सर्वप्रथम व्यापक योग प्रदान किया। उन्होंने अपने उपन्यासों में प्रदर्शवाद से प्रेरणा ग्रहण करते हुए मानव जीवन के यथार्थ स्वरूप का चित्रण किया है। इस विचार- धारा को आदर्शोन्मुख यथार्थवाद कहते हैं। इस विषय में उन्होंने महात्मा गांधी और कार्ल मार्क्स के सिद्धांतों को मिलाकर उपस्थित किया है। उन्होंने अपने उपन्यासों में मानवतावाद की स्थापना की है और वर्तमान युग की विभिन्न समस्याओं का उसी के आधार पर अध्ययन किया हैं। उन्होंने उनमें नीति की अनेक सुंदर उक्तियों का समावेश किया है, किंतु उनमें जीवन की पूरी गहनता का कहीं-कहीं प्रभाव हो गया है। उन्होंने अपने प्रत्येक उपन्यास में किसी न किसी समस्या का चित्रण किया है। इस दृष्टि से उन्होंने ‘रंगभूमि’ में ग्रामीण और नागरिक जीवन के संघर्ष की समस्या का चित्रण किया है, ‘कायाकल्प’ में पुनर्जन्म की समस्या को उपस्थित किया है, ‘निर्मला’ में वृद्ध-विवाह की समस्या को उपस्थित किया है, ‘गोदान’ में कृषक जीवन की समस्या को चित्रित किया है और ‘रावन’ में नारी के आभूषण – प्रेम की समस्या को व्यक्त किया है।
प्रेमचंद के समकालीन उपन्यासकार
प्रेमचंद के समकालीन उपन्यासकारों में सर्वश्री जयशंकर प्रसाद, विश्वम्भर नाथ शर्मा और चण्डीप्रसाद ‘हृदयेश’ के नाम उल्लेखनीय हैं। श्री चतुरसेन शास्त्री और पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ ने भी इसी समय उपन्यास लिखना प्रारंभ किया था और इस समय भी वे उपन्यास साहित्य के विकास में योग दे रहे हैं। प्रेमचंद की भाँति इन सभी लेखकों ने उपन्यास को मानव जीवन का चित्रण करने वाला माना है। इन्होंने अपने उपन्यासों में मानव जीवन का सहानुभूतिपूर्ण चित्रण किया है। इन्होंने अपने युग के सामाजिक जीवन का अध्ययन कर अपनी रचनाओं में विविध सामाजिक और राजनैतिक समस्याओं को सुंदर रीति से सुलझाया है, किंतु ‘उग्र’ जी के उपन्यासों के विषय में हम ऐसा नहीं कह सकते।
नवीन उपन्यास – साहित्य
हिंदी साहित्य में उपन्यासों की रचना को प्रेमचंद-युग में एक निश्चित गति प्राप्त हो गई थी। इसके पश्चात् हिंदी उपन्यासों की अनेक रूपों में रचना की गई। आगे हम इन विभिन्न रूपों पर क्रमश: प्रकाश डालेंगे-
(1) प्रेमचंद की परंपरा के उपन्यास
इस प्रकार के उपन्यासों में सुधारवादी दृष्टिकोण और सांसारिक जीवन की गति को मिलाकर उपस्थित किया जाता है। श्री भगवतीचरण वर्मा का ‘टेढ़े-मेढ़े रास्ते’ सेठ गोविंददास का ‘इन्दुमती’ और गुरुदत्त वैद्य के उपन्यास इसी प्रकार के हैं। इस युग में प्रेमचंदजी की भाँति ग्रामीण जीवन का चित्रण कर उनका शुद्ध प्रतिनिधित्व श्री यज्ञदत्त शर्मा ने किया है। उनके ‘परिवार’, ‘बाप-बेटी’, ‘इन्साफ’, ‘झुनिया की शादी’ आदि उपन्यास इसी प्रकार के हैं। महिला लेखिकाओं में श्रीमती उर्मिला कुमारी ने अपने ‘वंश-वल्लरी’ शीर्षक उपन्यास में ग्राम – जीवन का सफल चित्रण किया है।
(2) शरत् से प्रभावित उपन्यास-
इस प्रकार के उपन्यासों में व्यक्ति के जीवन में उन्नति के लिए साधना को मुख्य स्थान दिया गया है। हिंदी में इस प्रकार के उपन्यासों की रचना बंगला के प्रसिद्ध उपन्यासकार शरत् के उपन्यासों के अध्ययन का परिणाम है। इस दृष्टि से श्री जैनेन्द्र और भगवतीप्रसाद वाजपेयी के अधिकांश उपन्यास तथा श्री सियारामशरण गुप्त का ‘नारी’ शीर्षक उपन्यास इसी प्रकार के हैं। जैनेन्द्रजी के उपन्यासों पर गांधीवाद का भी पर्याप्त प्रभाव पड़ा है।
(3) मनोवैज्ञानिक उपन्यास-
इस प्रकार के उपन्यासों में मनोविज्ञान का आधार लेकर किसी एक व्यक्ति के जीवन की समस्याओं के चित्रण की ओर मुख्य ध्यान दिया जाता है। इस कारण इनमें अर्थ (धन) और काम-वासना से संबंधित व्यक्तिगत समस्याओं का अधिक चित्रण मिलता है। अज्ञेय के ‘शेखर: एक जीवनी’ तथा ‘नदी के द्वीप’ शीर्षक उपन्यास और इलाचंद्र जोशी के पर्दे की रानी’ तथा ‘प्रेत और छाया’ शीर्षक उपन्यास इसी प्रकार के हैं। इसके अतिरिक्त हिंदी के कुछ नवीन उपन्यासकार भी इस प्रकार के उपन्यासों की रचना कर रहे हैं।
(4) प्रगतिवादी उपन्यास-
इस प्रकार के उपन्यासों में मार्क्सवाद का आधार लेकर समाज विकास को उपस्थित किया जाता है। अतः इनमें संपूर्ण समाज की राजनैतिक आर्थिक और काम-वासना संबंधी समस्याओं का चित्रण रहता है। इस दृष्टि से सर्वश्री यशपाल, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’, कृष्णचंद्र, रांगेय राघव, मन्मथनाथ गुप्त, श्रीमती माया मन्मथनाथ गुप्त, सर्वदानंद वर्मा और ‘अंचल’ इस धारा के मुख्य उपन्यासकार हैं।
(5) ऐतिहासिक उपन्यासकार
आधुनिक युग में ऐतिहासिक उपन्यास लिखने की ओर पर्याप्त ध्यान दिया गया है। इस दिशा में श्री वृंदावनलाल ने सबसे अधिक कार्य किया है। उन्होंने ‘झांसी की रानी’, ‘मृगनयनी,’ ‘विराटा की पद्मिनी’ आदि अनेक ऐतिहासिक उपन्यास लिखे है। इन सभी में उन्होंने प्रायः बुंदेलखंड के मध्य युग के इतिहास का सजीव चित्रण किया है। उन्होंने अपने उपन्यासों में चरित्र विकास में असाधारण कौशल का परिचय दिया है। उनके उपरांत ऐतिहासिक उपन्यासों के क्षेत्र में श्री राहुल सांकृत्यायन ने प्रशंसनीय कार्य किया है। उन्होंने सिंह सेनापति’ और ‘जय यौधेय’ आदि अनेक श्रेष्ठ उपन्यास लिखे हैं। उनके उपन्यास इतिहास के प्रारंभिक युग पर आधारित है और उनमें आर्य संस्कृति से विशेष प्रेरणा ली गई है। उन्होंने उनमें मार्क्सवादी भावनाओं को भी अनिवार्य रूप से स्थान दिया है।
ऐतिहासिक उपन्यासों के क्षेत्र में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के ‘बाण भट्ट की आत्म कथा’ शीर्षक उपन्यास का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें उन्होंने इतिहास और संस्कृति को मिलाकर उपस्थित किया है। इसकी भाषा- शैली की योजना में उन्होंने कलात्मक रुचि का स्पष्ट परिचय दिया है। उनके अतिरिक्त आधुनिक युग में श्री रांगेय राघव ने ‘मुर्दों का टीला’, श्री चतुरसेन शास्त्री ने ‘वैशाली की नगरवधू, श्री भगवतीचरण वर्मा ने ‘चित्रलेखा’ और श्री यादवचंद्र जैन ने ‘मल्ल – मल्लिका’ शीर्षक ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना की है।
संक्षेप में आधुनिक युग में हिंदी उपन्यास के विकास की यही स्थिति है। इस समय हिंदी में अनेक लेखक उपन्यासों की रचना कर रहे हैं। इन उपन्यासों में रस, मनोविज्ञान और कथा-योजन के क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण प्रगति की गई है। नवीन उपन्यासकारों में सर्वश्री धर्मवीर भारती, कनल शुक्ल, रजनी पनिक्कर और यादवचंद्र जैन ने सराहनीय कार्य किया है। इस समय कुछ उपन्यासकार अपनी रचनाओं में काम-वासना को भड़काने वाले प्रसंगों का अधिक समावेश कर रहे हैं। हिंदी उपन्यास की स्वस्थ प्रगति में यह प्रवृत्ति सबसे अधिक बाधक है।