संकेत बिंदु-(1) भारतीय परिवेश के परिवर्तन की आवाज़ (2) आंचलिक और ग्राम्य जीवन पर आधारित उपन्यास (3) स्वतंत्रता प्राप्ति के महत्त्वपूर्ण उपन्यास (4) सामाजिक और ऐतिहासिक उपन्यास (5) उपसंहार।
भारत ने शताब्दियों पश्चात् सन् 1947 में स्वतंत्रता का स्वर्ण विहान देखा था। एक ओर देश में नव-निर्माण के स्वप्न और आशा-आकांक्षाएँ थीं तो दूसरी ओर राजनीति और शासन की अपनी-अपनी तरह की सीमाएँ, जिनसे जो इच्छित परिणाम सामने आने चाहिए थे, वे नहीं आ पाये। इससे एक प्रकार का मोहभंग हुआ। स्वातंत्र्य के प्रारंभिक वर्षों के इस मोह भंग के पश्चात् भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार, कदाचार का ऐसा नंगा नाच प्रारंभ होता है जो कभी रुकने का नाम ही नहीं लेता। अकाल, भूकंप और अन्य अनेक प्राकृतिक आपदाओं तथा बीमार शासन तंत्र के चलते हुए भी देश ने अभूतपूर्व प्रगति की है। आजादी के बाद के उपन्यास में भारतीय परिवेश के परिवर्तन की पद-चाप पूरी तरह सुनी जा सकती है। सामाजिक जीवन के इस बाहरी परिवेश-परिवर्तन के साथ-साथ हमारे आत्मीय संबंधों की धुरी भी पूरी तरह बदल गई है। रिश्ते-नातों में बदलाव के लक्षण समाज का प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक स्तर पर अनुभव करता है। कितनी ही ऐसी औपन्यासिक कृतियाँ रची गईं जो मानवीय रिश्तों में आए इस परिवर्तन को लक्षित कर उनका गंभीर विश्लेषण प्रस्तुत करती हैं। समाज के बाह्य पक्ष और मानवीय संबंधों के नये-नए समीकरणों पर जो उपन्यास लिखे गए उनसे हिंदी उपन्यास की दो धाराएँ स्पष्टतः लक्षित की जा सकती हैं-
(क) सामाजिक चिंता के उपन्यास
(ख) मानवीय संबंधों पर आधारित उपन्यास
स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यास के प्रायः पचास वर्षों के इतिहास का अध्ययन करते समय एक बात और ध्यान में रखने योग्य है। इस अवधि में इतने अधिक उपन्यासों की रचना हुई है कि सबके नाम गिनाना और उन्हें स्मरण भी रखना एक बहुत ही मुश्किल काम है। इसीलिए इस विकास को लक्षित करते हुए केवल प्रमुख कृतियों को ही केंद्र में रखा जा सकता है। विभिन्न धाराओं एवं प्रवृत्तियों को ध्यान में रखते हुए प्रमुख उपन्यासों की संक्षिप्त चर्चा ही यहाँ संभव हो सकेगी।
भारत के नव-निर्माण की ओर ध्यान जाते ही सबसे पहले हमारा ध्यान ग्रामों की ओर ही जाता है। ग्राम्य जीवन को केंद्र बनाकर अनेक उपन्यास प्रकाशित हुए, जिनमें स्वतंत्रता के बाद फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ का ‘मैला आँचल’ अत्यंत प्रसिद्ध हुआ तथा बिहार के ग्रामों में अंचल विशेष का चित्रण करने के कारण इसे आंचलिक उपन्यास के रूप में जाना गया। बिहार के पूर्णिया जिले के ग्राम को पिछड़े भारतीय ग्राम के रूप में अपना कर पूरे भारतीय ग्राम समाज का जीवंत प्रतीकात्मक चित्रण इस उपन्यास में हुआ है। अपनी भाषा की आंचलिकता के कारण भी यह उपन्यास विवाद के केंद्र में रहा। भारतीय ग्राम्य जीवन का चित्रण करने वाला दूसरा सशक्त उपन्यास श्रीलाल शुक्ल का ‘राग दरबारी’ आया, जिसमें स्वतंत्रता के बाद भारतीय ग्राम्य-जीवन को राजनीति के विविध प्रयोगों ने किस भ्रष्टता में डुबोया, उसका अत्यंत प्रामाणिक और सशक्त चित्रण मिलता है। बाद में चलकर ग्रामीण जीवन पर विवेकीराय के ‘लोक ऋण’ तथा ‘सोना माटी’; जगदीशचंद्र का उपन्यास ‘ धरती धन न अपना’, ऋता शुक्ला का ‘ अग्निपर्व’ आदि भी महत्त्वपूर्ण उपन्यास हैं। इधर के बिलकुल ताजा उपन्यासों में मैत्रेयी पुष्पा के ‘इदन्नमम’ तथा ‘चाक’ भी बिलकुल नई दृष्टि से ग्रामीण समाज का विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं।
स्वातंत्र्योत्तर उपन्यासों में यशपाल के ‘झूठा सच’ का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है, जिसमें भारत-पाक विभाजन के समय को बहुत प्रामाणिकता और मार्मिक रूप में प्रस्तुत किया गया है। स्वातंत्र्योत्तर समय की राजनीतिक गलाजत और प्रशासनिक भ्रष्टाचार का भगवतीचरण वर्मा के ‘सबहिं नचावत राम गुसाईं’ में बहुत गहराई से चित्रित किया गया है। इसी शृंखला में अमृतलाल नागर के ‘करवट’ उपन्यास को भी महत्त्वपूर्ण उपन्यासों की कोटि में रखा जा सकता है। मन्नू भंडारी के ‘महाभोज’ उपन्यास में भी राजनीति के छल-छंद को उजागर किया गया है। स्वातंत्र्योत्तर व्यक्ति-चिंता के उपन्यासों में अज्ञेय के ‘शेखर एक जीवनी’ (दो भाग) तथा ‘नदी के द्वीप’ उपन्यासों का विशेष महत्त्व है, जिनमें प्रेम जैसे तरल विषय को बहुत सूक्ष्मता से विश्लेषित किया गया है। उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ के ‘गिरती दीवारें’, ‘शहर में घूमता आईना’, ‘गर्म राख’ भी लोकप्रिय उपन्यास रहे हैं।
भीष्म साहनी के उपन्यासों में विभाजन की त्रासदी पर ‘तमस’ तथा पंजाब के जनजीवन के शतवर्षीय इतिहास को प्रस्तुत करने की दृष्टि से ‘मय्यादास की माड़ी’ श्रेष्ठ उपन्यास हैं। शिवप्रसाद सिंह को बनारस के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को आधार बना कर उपन्यास लिखने के लिए विशेष ख्याति मिली। ‘गली आगे मुड़ती है’, ‘अलग-अलग वैतरणी, ‘नीला चाँद’, ‘शैलूष’, ‘कुहरे में युद्ध’ आपके प्रसिद्ध उपन्यास हैं।
राही मासूम ‘रजा’ के ‘आधा गाँव’ उपन्यास को भी ग्राम्य-समाज का चित्रण करने वाले उपन्यासों में अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना गया। गोविंद मिश्र के उपन्यासों को भी विशेष ख्याति मिली। ‘लाल पीली जमीन’, ‘हुजूर दरबार’, ‘तुम्हारी रोशनी में’, ‘धीर समीरे’, ‘पाँच आँगनों वाला घर’ आदि उनके चर्चित उपन्यास हैं। गिरिराज किशोर के ‘यथा प्रस्तावित ‘ तथा ‘ढाई घर’ भी पठनीय उपन्यास हैं। बनारस के जुलाहा, बुनकरों के जीवन पर अब्दुल बिस्मिल्लाह का ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ उल्लेखनीय उपन्यासों की श्रेणी में है। मंजूर एहतेशाम के ‘सूखा बरगद’ में मुस्लिम सामाजिक जीवन को खंगाला गया है। सत्येन कुमार का ‘छुट्टी का दिन’, बदीउज्जमा का’ एक चूहे की मौत’, छठा तंत्र; हृदयेश का ‘साँड’, शानी का ‘काला जल’ भी सातवें आठवें दशक में चर्चा में रहे उपन्यास हैं।
अभी इधर हाल के वर्षों में जिन उपन्यासों की बहुत चर्चा रही है उनमें सुरेंद्र वर्मा का ‘मुझे चाँद चाहिए’, विनोद कुमार शुक्ल का ‘नौकर की कमीज’ तथा ‘खिलेगा तो देखेंगे’, प्रभा खेतान का ‘छिन्नमस्ता’, असगर वजाहत का ‘सात आसमान’, मनोहरश्याम जोशी का ‘हमजाद’, अलका सरावगी का ‘कलि-कथा : वाया बाईपास’ अब्दुल बिस्मिल्लाह का ‘मुखड़ा क्या देखे’ प्रमुख हैं। इस प्रकार स्वातन्त्रोत्तर हिंदी उपन्यास साहित्य अत्यंत विपुल तथा विविधतामुखी है।