Sahityik Nibandh

हिंदू धर्म का राजनीति से संबंध

hindu dharm and politics par ek hindi nibandh

हिंदू धर्म प्राचीन आर्य धर्म का अवशेष है, अथवा रूपांतर भी इसे कह सकते हैं। प्रारंभ में आर्य जाति ने जब अपने को चार वर्णों में विभाजित किया तो ब्राह्मण को मस्तिष्क का रूप दिया, क्षत्रिय बाहु, वैश्य उदर और शूद्र जंघाओं के रूप में ग्रहण किए गए। मानव शरीर में यह चारों ही भाग एक दूसरे के सहयोगी हैं और महत्त्व के विचार से कोई भी कम नहीं गिना जा सकता। परंतु मस्तिष्क के संकेत पर क्योंकि सब को कार्य संचालन करना होता है इसलिए प्रधानता मस्तिष्क की हुई, भुजाएँ क्योंकि रक्षा का भार अपने ऊपर लेती हैं इसलिए दूसरा स्थान उनका हुआ, इसी प्रकार तीसरा वैश्य और चौथा शूद्र हुआ।

जब तक वर्णाश्रम जातियों में बँटकर खंड-खंड नहीं हो गया तब तक यह ढाँचा ज्यों-का-त्यों चलता रहा। राजा का प्रधान मंत्री ब्राह्मण होता था और देश की प्रायः सभी समस्याओं को सुलझाना इसी का कर्त्तव्य था। इसी के संकेत पर राजा कार्य करता था। राजा वीर और साहसी होता था। हिंदू धर्म ने राजा, प्रजा, मंत्री सभी के कामों को निर्धारित किया है और भारत में एक समय वह था जब धर्म का राज्य होता था।

यूरोप के इतिहास पर यदि हम दृष्टि डालें तो पता चलता है कि यहाँ राजाओं पर धार्मिक काल में पोप का प्रभुत्व था। वह धर्म प्रधान युग था और राजनीति धर्म के अंतर्गत रहती थी। परंतु धीरे धीरे यह प्रणाली लुप्त होती चली गई और निरंकुश राजाओं ने धर्म-कर्म सभी को तिलाञ्जलि देकर भोग विलास में जीवन व्यतीत करना प्रारंभ कर दिया। ऐसी कठिन परिस्थितियों में धर्माचारियों ने कूटनीति से भी कार्य लिया। आचार्य चाणक्य इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। नंद वंश धर्मान्ध हो चुका था। नंद का सर्वनाश करके चंद्रगुप्त को राजा बनाना चाणक्य का ही काम था। इस प्रकार इस काल में धर्म का राजनीति के क्षेत्र में बहुत बड़ा हाथ था।

भारत की राजनीति ने पलटा खाया। देश पराधीन हो गया। राजनीति एक प्रकार से समाप्त ही हो गई। कहीं-कहीं पर कभी-कभी कोई चिंगारी-सी अवश्य चमक जाती थी परंतु वह धर्म के विस्तार के लिए पर्याप्त क्षेत्र नहीं था। राजनीतिक पराधीनता के पश्चात् हिंदू जनता पराश्रित हो गई, असहाय हो गई। ऐसी कठिन परिस्थिति में जब राजनीति जनता को आश्वासन नहीं दे सकी तो धर्माचारियों ने हिंदू धर्म के बुझते हुए दीपक को स्नेह घृत से भर दिया।

हिंदू धर्म ने कर्तव्य सिखलाया, आत्म बल दिया, बलिदान की शक्ति दी, जीवन की अनश्वरता का उपदेश दिया, आत्मा को अमर कहकर जनता को मृत्यु के भय से दूर किया। हिंदुओं को दृढ़ करके कर्त्तव्य-परायण बनाया। संस्कृति की रक्षा का उपदेश दिया और आज के युग में हिंदू धर्म का जो अवशेष दिखलाई दे रहा है यह सब उन्हीं भक्तिमार्गी आचार्यों की कृपा है जिन्होंने इस कठिन काल में इस वृक्ष को अपना जीवन दान देकर सूखने से बचाया।

आज के युग में धर्म धर्म के स्थान पर है और राजनीति राजनीति के स्थान पर धर्म का संबंध आत्मा की शुद्धि से, आचरण की सभ्यता से और ईश्वर के चिंतन से है और यह तीनों ही व्यक्तिगत विषय हैं, सामाजिक या राजनैतिक नहीं। वैसे सूक्ष्म रूप से व्यक्ति समाज का एक अंग है, इसलिए व्यक्ति का विषय ही आज समाज का विषय है और प्रजातंत्र के विधान में समाज की समस्या ही राष्ट्र की समस्या है, देश का विषय है, परंतु सीधे रूप में धर्म राजनीति के क्षेत्र में नहीं आता। आज राजनीति को पृथक् रूप से अपना संचालन करना है और धर्म को पृथक् रूप से प्राचीन काल में जिस प्रकार धर्म की राजनीति पर प्रधानता रहती थी उसी प्रकार आज राजनीति का बोल-बाला है। धर्म, समाज, साहित्य सभी को राजनीति की ओर ताकना पड़ता है।

धर्म का महत्त्व इस प्रकार आज के युग में निश्चित रूप से कम होता जा रहा है। राज्य की ओर से प्रश्रय कम मिलता है और आज पाश्चात्य प्रभाव के कारण लोगों की आस्था भी धर्म में बहुत कम रह गई है। जहाँ तक ईश्वर का नाम और मंदिर दर्शन का संबंध है वहाँ तक तो बहुत से व्यक्ति मिल भी जाते हैं परंतु कर्म-कांड के लिए तो आज एक प्रतिशत भी व्यक्ति तैयार नहीं। जन्म, विवाह और मृत्यु बस तीन ही समय कर्म-कांड के दर्शन होते हैं।

इस प्रकार आज की राजनीति में धर्म का कोई हाथ नहीं, कोई महत्त्व नहीं। इतना महत्त्व अवश्य है कि वर्तमान राजनीति के कर्णधार पूरे हिंदू थे और हिंदू धर्म पर उन्हें पूरी आस्था थी। उन्होंने अपने राज्य संचालन के जो मार्ग सोचे वह भी उन्होंने हिंदू-धर्म-ग्रंथों के ही आधार पर विचारकर बनाए। लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी को गीता पर महान आस्था थी और उनके जीवन-कालीन राजनैतिक संघर्षों में गीता की प्रधान विचारावली रही है। महात्मा गांधी के राम-राज्य की कल्पना भी उसकी धार्मिक कल्पना थी। परंतु खेद है कि गांधीजी की अकाल मृत्यु के कारण वह राम-राज्य की कल्पना फलीभूत न हो सकी।

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