हिंदू-समाज प्राचीन आर्यों का ही वर्तमान रूप है। वैदिककाल के साहित्य पर जब हम दृष्टि डालते हैं तो भारतीय नारी को वहाँ खड़ा हुआ पाते हैं जहाँ संसार के इतिहास में कहीं पर भी नारी को स्थान नहीं मिला। आर्य सभ्यता में नारी को पुरुष की ‘अर्धांगिनी’ माना है। पुरुष नारी के बिना उसी प्रकार व्यर्थ है जिस प्रकार एक व्यक्ति अपना आधा अंग नष्ट हो जाने पर होता है। आर्य सभ्यता में यज्ञ का विशेष महत्त्व है। यज्ञ में यदि पुरुषों के साथ स्त्री न बैठे तो यज्ञ संपूर्ण नहीं हो सकता। जब महाराज रामचंद्र ने अश्वमेघ यज्ञ किया तो उन्होंने सीता की स्वर्ण मूर्ति को अपने साथ स्थापित किया था।
मनु नारी के विषय में लिखते हैं, ‘जिस घर में स्त्रियों का पूजन होता उस घर में देवता निवास करते हैं। जिस घर में स्त्रियों का अनादर होता है उस घर में होने वाली सब क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं।’ ‘स्त्री अनेकों कल्याणों की भाजन है, वह पूजा के योग्य है। स्त्री घर की ज्योति है। प्रजापति ने प्रजोत्पति के लिए स्त्री को बनाया है। स्त्री गृह की साक्षात् लक्ष्मी है।’ स्त्री को जाया, माता, धात्री, कहकर हिंदू ग्रंथों ने सम्मानित किया है। संतति को जन्म देना, उसका पालन-पोषण करना और प्रतिदिन की लोकयात्रा का संचालन करना हो नारी का प्रधान कर्त्तव्य है। नारी को माता के रूप में सर्वमान्य माना गया है।
मानव जीवन के दो प्रधान कार्य क्षेत्र हैं और वे दोनों ही एक-दूसरे से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। पहला कार्य-क्षेत्र घर है जिसे अंग्रेजी में होम (Homd) कहा गया है। अंग्रेजी कवियों ने होम को मीठा घर (Sweet home) कहकर पुकारा है। दूसरा कार्य क्षेत्र घर से बाहर का है जिसमें पुरुष घर को चलाने के साधन जुटाता है। इसे अधिक स्पष्ट शब्दों में यों भी कह सकते हैं कि घर कल है जिसके संचालन के लिए पुरुष बाहर से विद्युत (धन इत्यादि) जुटाता है और स्त्री एक कुशल कल-संचालिका की भाँति विद्युत की शक्ति से उस गृह-रूपी कल को संचालित करती है। इस प्रकार स्त्री और पुरुष दोनों का ही महत्त्व गृह को चलाने में एक दूसरे से अधिक है। समाज के ये दोनों ही पुर्जे हैं, जिनमें से किसी को भी टकराने या सिर पर चढ़ाने से समाज का महान अहित हो जाता है।
हिंदू धर्म ने दोनों को बराबर का स्थान देकर दोनों को सम्मानित किया है परंतु अन्य धर्मों में ऐसा नहीं मिलता। जब तक आर्य जाति भारत में शासक बनकर रही नारी का समाज में यही आसन रहा और वह इसी प्रकार धर्म के और समाज के कार्यों में सम्मान प्राप्त करती रही। धीरे-धीरे आर्य जाति को अन्य जातियों के संपर्क में आना पड़ा। अनेकों जातियों ने भारत पर आक्रमण किया और उसमें से बहुत-सी भारत में ही बसकर यहीं की जातियों में विलीन हो गई। अनेकों आईं और अनेकों गई परंतु वह आर्य जाति के ढाँचे को हिलाने समर्थ न हो सकीं। परंतु अंत में मुसलमानों ने भारत पर आक्रमण किया और इस समय तक भारत में आर्यों की हर प्रकार की व्यवस्था का ह्रास हो चुका था। न कोई सामाजिक व्यवस्था ही अवशेष थी और न कोई धार्मिक हो। राजनैतिक व्यवस्था का तो सर्वनाश हो ही चुका था। ऐसी परिस्थितियों में वह भारत में आए और उनका साम्राज्य स्थापित हो गया। जब शासक रूप में मुसलमान भारत में सुदृढ़ हो गए तो उनकी सभ्यता का भारतीय सभ्यता पर प्रभाव पड़ा और स्त्री जाति में पर्दे की प्रथा का प्रादुर्भाव हुआ। पर्दे का आना था कि नारी जीवन की अनेकों स्वतंत्रताओं का एकदम ह्रास हो गया और धीरे-धीरे नारी घरों की चहारदीवारी में बंद करके रखने वाली एक पुड़िया ही बन गई। यह वह काफूर (खुशबू) की पुड़िया थी कि जिसे खोलने पर उड़ जाने का भय प्रतीत होने लगा और पुरुष नारी के प्रति सशंकित हो गया।
इस काल से पूर्व ही नारी की स्वतंत्रता का भारत में लोप हो चुका था। ब्राह्मण-धर्म में ही मठाधीशों के काल में नारी का पद पुरुष से नीचा गिना जाने जाने लगा था। नारी जीवन की स्वतंत्रताओं पर भी आक्षेप होने लगे और यहाँ तक हुआ कि आचार्य नारियों से शास्त्रार्थं करने में भी अपनी मान हानि समझते थे। बौद्धकाल में नारी स्वातंत्र्य का एक बार फिर से उदय हो गया था और भारत से पुरुषों के साथ नारी भिक्षुणियाँ भी विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए गई थीं। इनका ब्राह्मणों ने उस काल में घोर का खंडन किया, और जनता में उनके प्रति घोर निन्दा का वातावरण उपस्थित करने का प्रयत्न किया परंतु वह उस काल में अधिक सफल न हो सके। बौद्ध धर्म की लहर भी भारत में व्यापक न बन सकी और अंत में निर्गुण और सगुण व्यक्ति के रूप में उसी ब्राह्मण धर्म का उदय हुआ। इस ब्राह्मण धर्म में नारी का स्थान सामान्य था।
गोस्वामी तुलसीदास जी के विषय में यह कहा जाता है कि इन्होंने ‘ढोल, गंवार, शूद्र अरु नारी, यह सब ताड़न के अधिकारी’ लिखकर नारी जाति का बहुत अपमान किया है। परंतु यह इस प्रकार का विचार करने वाले व्यक्तियों की विचार-संकीर्णता मात्र ही है। गोस्वामी तुलसीदास ने ही तो सीता के महान चरित्र का चित्रण किया है। मानस में सीता का चित्रण करने वाला भक्त कवि नारी के प्रति अश्रद्धा रखे यह भला किस प्रकार संभव हो सकता है? भक्ति-काल में हिंदू-समाज ने मीरा जैसी कवयित्रियों को जन्म दिया। यह काल मुसलमानों का शासन-काल था, इसलिए मुसलमानी प्रभाव के अंतर्गत भारतीय नारी को जो यातनाएँ और असम्मान सहन करना पड़ा वह अवश्यम्भावी था परंतु फिर भी हिंदू समाज सुधारकों ने बराबर नारी के हित और उसके उत्थान पर ध्यान दिया है। राजनैतिक परिवर्तन और धार्मिक रूढ़िवाद के कारण जब-जब जो-जो दोष समाज के संगठन और नारी के प्रति भावना में उत्पन्न हुए तब-तब सुधारकों ने उन्हें संशोधित किया है। गौतम बुद्ध, राजा रायमोहन राय और स्वामी श्रद्धानंद के नाम इस दिशा में विशेष उल्लेखनीय हैं।
पश्चिमी देशों में स्त्री और पुरुष के अधिकारों को लेकर जो आंदोलन खड़े हुए उनसे वहाँ के गृह जीवन का मिठास जाता रहा। भारतीय गृह-जीवन की यह विशेषता रही है कि अनेकों दोष और सामाजिक अवगुण समाज में आ जाने पर भी पश्चिम की वह लहर अंग्रेजी शासन काल में भी भारतीय गृह-जीवन को प्रभावित नहीं कर सकी। पश्चिमी विद्या के साथ-साथ नारी में तितली जीवन का प्रादुर्भाव अवश्य हुआ परंतु यह भावना व्यापक न बन सकी। भारतीय नारी में धर्म की आस्था है और वह आस्था इतनी प्रबल है कि नारी स्वतंत्रता का जादू उस पर नहीं चल सका। इस प्रकार भारतीय नारी के जीवन में जो भावनात्मक रस है वह तर्कवाद के चक्कर में पड़कर सूख नहीं गया और भारतीय गृह आज भी ‘स्वीट’ बना हुआ है। अंग्रेजी कवि की कल्पना भारतीय हिंदू धर्म के गृह में अक्षराक्षर सत्य है। भारतीय नारी का गौरव अपने में मातृत्व की वह मान भावना सुरक्षित रखता है कि जिसमें विलायती स्वतंत्रता, सौंदर्य, शृंगार, विज्ञान, तर्क और लचक सब समाप्त हो जाती है। हिंदू-संस्कृति में नारी भोग का साधन न होकर मानव निर्माण का कठोर सत्य है और नारी में से मातृत्व का विनाश हो जाने पर नारी अपनी समस्त प्रतिष्ठा को खो देती है। सानव समाज में तो क्या नारी समाज में भी वह सम्मान को प्राप्त नहीं हो सकती। इस प्रकार भारतीय संस्कृति में नारी का स्थान एकाकी है, उत्तम है, स्नेह, ममता और प्रेम का प्रतीक है-वह मानव-जीवन का रस है, अमृत है और प्राण है।