आधुनिक काल के ब्रजभाषा के कवियों में श्रीयुत् ‘रत्नाकर’ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने अपने काव्य में ब्रजभाषा की सभी विशेषताओं को मौलिक रूप में ग्रहण किया है। यद्यपि उन्होंने अपने काव्य की रचना उस समय की थी जब हिंदी काव्य में खड़ीबोली की प्रधानता थी, तथापि उन्होंने स्वयं खड़ी- बोली में काव्य नहीं लिखा है। उनके काव्य में भावना और कला, दोनों की सुंदर रूप में योजना की गई है। इन दोनों तत्त्वों की इतनी सफल और उपयुक्त योजना ब्रजभाषा के बहुत कम कवियों के काव्य में प्राप्त होती है। इस दिशा में ‘रत्नाकर’ जी की सफलता का कारण यह है कि उन्होंने ब्रजभाषा की प्राचीन कविता का गहन अध्ययन किया था, इस अध्ययन के परिणामस्वरूप उनके काव्य में ब्रजभाषा के अनेक कवियों के काव्य की विशेषताओं का समन्वय प्राप्त होता है।
‘रत्नाकर’ जी ने अपने काव्य की रचना प्रबंध और मुक्तक दोनों रूपों में की है। उन्होंने गीति काव्य की रचना नहीं की है। यद्यपि यह सत्य है कि गीतिकाव्य में आत्माभिव्यक्ति के लिए अधिक अवकाश रहता है, तथापि ‘रत्नाकर’ जी के काव्य में इस तत्त्व का पूर्ण प्रभाव नहीं रहा है। उनकी रचनाओं में से ‘हरिश्चंद्र’, ‘कलकाशी’ और ‘गंगावतरण’ प्रबंध काव्य है और ‘हिंडोला’ तथा ‘उद्धवशतक’ मुक्तक काव्य है। इनमें से प्रबंध काव्यों की रचना में उन्हें अधिक सफलता प्राप्त नहीं हुई है। इसका कारण यह है कि वह इनमें रसों की उपयुक्त योजना नहीं कर पाए हैं। इसी प्रकार उनके प्रबंध काव्यों में छंद-योजना भी दोषपूर्ण रही है। इन तीनों काव्यों का संबंध प्रायः पौराणिक कथानकों से रहा है। ‘कलकाशी’ में उन्होंने काशी के वातावरण का विवरण उपस्थित किया है। विविध त्रुटियों के होने पर भी यह मानना होगा कि इन काव्यों में अनेक मार्मिक प्रसंगों का भी समावेश हुआ है।
‘रत्नाकर’ जी को प्रबंध काव्यों के स्थान पर मुक्तक काव्यों की रचना करने में अधिक सफलता प्राप्त हुई है। इस दिशा में ‘उद्धव- शतक’ नामक दो कृतियाँ प्राप्त होती हैं। इस दिशा में उनकी ‘हिंडोला’, और दोनों कृतियों में उनके हृदय की भावुकता पूर्ण रूप से व्यक्त हुई है। इनमें भी ‘उद्धव-शतक’ का अधिक महत्त्व है। ब्रजभाषा काव्य में यही उनकी प्रतिनिधि रचना है। इसमें उन्होंने उद्धव और गोपियों से संबंधित भ्रमरगीत के प्रसिद्ध कथानक को मौलिक रूप में उपस्थित किया है। यद्यपि उन्होंने इसकी रचना स्वतंत्र कवित्तों के रूप में की है, तथापि इन कवित्तों की योजना करते समय उन्होंने कला का निर्वाह करने का भी प्रयत्न किया है। इस प्रकार इस काव्य को सहज ही ‘कलात्मक मुक्तक काव्य’ कहा जा सकता है। हिंदी की भ्रमरगीत-काव्य- परंपरा में यह अपने ढंग का अकेला काव्य है। इसमें भावना और कला को अत्यंत प्रौढ़ रूप में उपस्थित किया है।
‘रत्नाकर’ जी समन्वयवादी प्रकृति के व्यक्ति थे। उन्होंने अपने काव्य की रचना करते समय भक्तिकाल और रीतिकाल के काव्य के अतिरिक्त छायावादी काव्य से भी प्रेरणा ली है। भक्तिकाल के कवियों में से उन पर कविवर सूरदास और गोस्वामी तुलसीदास का अधिक प्रभाव रहा है। इसी प्रकार रीतिकाल के कवियों में वह बिहारी और पद्माकर से अधिक प्रभावित थे। बिहारी के काव्य में प्राप्त होने वाले पुष्टभावों और प्रौढ़ कला से उन्होंने सर्वाधिक सहायता ली है। उनके ‘उद्धव – शतक’ का अध्ययन करने पर यह पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जाता है। वास्तव में उन्होंने रीतिकाल के कवियों में से बिहारी के काव्य का ही सर्वाधिक निकट से अध्ययन किया था। इस अध्ययन के परिणामस्वरूप उन्होंने एक ओर तो ‘महाकवि बिहारी’ नामक ग्रंथ लिखकर बिहारी के काव्य की विस्तृत आलोचना की थी और दूसरी ओर ‘बिहारी – रत्नाकर’ शीर्षक ग्रंथ की रचना कर बिहारी के दोहों की विस्तृत और प्रामाणिक टीका प्रस्तुत की थी। इन ग्रंथों में उन्होंने आलोचक और टीकाकार के रूप में अपनी प्रतिभा का पूर्ण परिचय दिया है।
‘रत्नाकर’ जी के काव्य- कौशल का परिचय प्राप्त करने के लिए उनके ‘उद्धव-शतक का अध्ययन पर्याप्त होगा। इस रचना का हिंदी के कृष्ण-काव्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें उन्होंने अपने भावों को अत्यंत स्पष्ट रूप में उपस्थित किया है। अन्य भ्रमरगीत-काव्यों की भाँति इसमें भी निर्गुण भक्ति की अपेक्षा सगुण भक्ति की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया गया है। ऐसा करते समय कवि ने निर्गुण भक्ति की ओर उपेक्षा भाव नहीं रखा है। और उद्धव को अपना मत स्पष्ट करने का पूर्ण अवसर दिया है। रस योजना की दृष्टि से उन्होंने इस काव्य में शृंगार रस को मुख्य स्थान प्रदान किया है और शांत रस की भी पर्याप्त अभिव्यक्ति की है। शृंगार रस की दृष्टि से उन्होंने ‘उद्धव-शतक’ में उसके वियोग पक्ष का चित्रण किया है। इस दिशा में उन्होंने गोपियों के अतिरिक्त श्रीकृष्ण के विरह भाव का भी मार्मिक चित्रण किया है।
‘उद्धव-शतक’ में हृदय-पक्ष और बुद्धि-पक्ष, दोनों को ही स्थान प्राप्त हुआ है। जहाँ कवि ने श्रीकृष्ण और गोपियों की विरह-दशा तथा उद्धव पर उसके प्रभाव का चित्रण किया है, वहाँ उन्होंने हृदय-पक्ष को उपस्थित किया है और जहाँ उन्होंने दार्शनिक विचारों को स्पष्ट किया है वहाँ विचार-पक्ष की प्रधानता हो गई है। जटिल दार्शनिक सिद्धांतों का जितना सरस और स्पष्ट प्रतिपादन उन्होंने किया है उतना हिंदी काव्य में अधिक व्यक्त नहीं कर सके है। उदाहरण के लिए गोपियों के प्रति उद्धव की निम्नलिखित उक्ति देखिए –
“माया के प्रपंच ही सौं भासत प्रमैद सबै,
काँच – फलकनि ज्यों अनेक एक साई है
देखौ भ्रम-पटल उघारि ज्ञान-आँखिनि सौं,
कान्ह सब ही में कान्ह ही में सब कोई है॥”
‘रत्नाकर’ जी ने ‘उद्धव- शतक’ में चरित्र चित्रण और प्रकृति-चित्रण की ओर भी ध्यान दिया है। इस कृति में श्रीकृष्ण, उद्धव और गोपियों के चरित्रों को स्पष्ट रूप में उपस्थित किया गया है। यद्यपि इन पात्रों के विषय में इससे पूर्व भी काफी कुछ कहा जा चुका था, तथापि उन्होंने इन्हें यत्र-तत्र मौलिक रूप में उपस्थित करने का प्रयास भी किया है। प्रकृति चित्रण की दृष्टि से उन्होंने प्रायः प्रकृति को उद्दीपन रूप में ही उपस्थित किया है। उन्होंने प्रकृति- वर्णन करते समय भी गोपियों के विरह की व्यंजना उपस्थित करने का ध्यान रखा है। यद्यपि इस काव्य में विचार- पक्ष की प्रधानता के कारण. प्रकृति- चित्रण के लिए अधिक अवकाश नहीं था, तथापि उन्होंने यत्र-तत्र इस ओर ध्यान अवश्य दिया हैं। अवसर मिलने पर उन्होंने इसमें षड़ऋतु-वर्णन भी किया है।
कला-तत्त्व
‘रत्नाकर’ जी ने अपने काव्य में कला-तत्त्वों का विविध रूपों में प्रयोग किया है। उनकी भाषा में माधुर्य, प्रसाद तथा ओज नामक काव्य के तीनों प्रमुख गुणों के अनुकूल शब्दों का समावेश हुआ है। इसमें से ‘उद्धव – शतक’ में माधुर्य गुण को व्यापक स्थान प्राप्त हुआ है। इनके अतिरिक्त इस कृति में प्रसाद गुण का भी पर्याप्त समावेश हुआ है। उनके वीर अभिमन्यु और भीष्म पितामह से संबंधित काव्यांशों में ओज गुरण का भी अच्छा निर्वाह हुआ है। उनकी भाषा में सजीवता और प्रभावोत्पादन की उपयुक्त स्थिति रही है। विषय के अनुसार भाषा में माधुर्य अथवा ओज का संचार करने का भी उन्होंने पूर्ण ध्यान रखा है। उनकी शैली में प्रवाह के अतिरिक्त पाठक के सामने एक चित्र – सा स्पष्ट कर देने का गुरण वर्तमान रहा है। भाषा को प्रवाह- पूर्ण रखने के लिए उन्होंने लोकोक्तियों और मुहावरों का भी प्रचुर प्रयोग किया है। यथा-
(अ) दिपत दिवाकर कौं दीपक दिखावे कहा।
(ब) ह्रौं है तीन तेरह तिहारी तीन पाँच सबै।
‘रत्नाकर’ जी ने अपने काव्य में अलंकारों का सहज-स्वाभाविक प्रयोग किया है। शब्दालंकारों में उन्होंने यमक, अनुप्रास और पुनरुक्तिप्रकाश का विशेष रूप से प्रयोग किया है और अर्थालंकारों में उन्हें रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा और वक्रोक्ति विशेष प्रिय रहे हैं। ‘उद्धव – शतक’ में उन्होंने कवित्त छंद का भी अत्यंत सफल रूप में प्रयोग किया है। उनके काव्य का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने ब्रजभाषा में एक विशेष साहित्यिक एकरूपता लाने का प्रयत्न किया है। जहाँ उन्होंने अपने काव्य के भाव पक्ष की योजना करते समय भक्तिकाल के काव्य से प्रेरणा ली है वहाँ उसके कला-पक्ष की योजना में उन्होंने रीतिकाल के काव्य से सहायता ली है। हिंदी में ब्रजभाषा काव्य की मिटती हुई परंपरा को फिर से जीवित कर उन्होंने निश्चय ही अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। उनके पश्चात् ब्रजभाषा में कम-से-कम भ्रमरगीत प्रसंग को कोई भी अन्य कवि उनके समान सफल रूप में उपस्थित करने में समर्थ नहीं हो सका। उनकी इसी साहित्यिक प्रतिभा के कारण उनकी मृत्यु पर कविवर सोहनलाल द्विवेदी ने निम्नलिखित मार्मिक काव्य पंक्तियों की रचना की थी-
“एक स्वर्ण-कण खो जाने से,
हो उठता उर कातर।
कैसे धैर्य धरे वह जिसका,
लुट जाए ‘रत्नाकर’।”