छठी शताब्दी ई. पू. जब मगध के राजा अपने आस-पास के राज्यों पर विजय प्राप्त कर चक्रवर्ती राज्य की स्थापना कर रहे थे उसी समय भारत में कुछ ऐसे सुधारक नेताओं ने जन्म लिया जिन्होंने धर्मचक्र का प्रवर्तन करके अपने धार्मिक साम्राज्यों का स्वप्न देखा। श्री महावीर और गौतम बुद्ध ऐसे सुधारक थे। इन्हीं दो महान आत्माओं ने जैन-धर्म और बुद्ध धर्म को जनता में फैलाया और हिंदू धर्म में पैदा हुई कुरीतियों के विपरीत शक्तिशाली आंदोलन किया।
आर्य लोग प्रकृति की विभिन्न शक्तियों में ईश्वर के भिन्न-भिन्न रूपों की कल्पना करके उनकी पूजा करते थे। देवताओं के रूप में उनकी आराधना होती थी। इन देवताओं की पूजा का यज्ञ प्रधान साधन था। यज्ञों का कर्म-कांड जो कि पहले बहुत सुगम था, धीरे-धीरे जटिल होता जा रहा था। सर्वप्रथम यज्ञों में पशुओं की बलि प्रारंभ हुई। एक-दो-तीन और अंत में यहाँ तक कि एक-एक यज्ञ में हजारों की संख्या में पशु हिंसा होने लगी। यह बलि की प्रथा यहाँ तक बलवती हुई कि पशुओं से चलकर मानव तक आ पहुँची और बेचारे इधर-उधर से आने-जाने वालों को भी इन यज्ञों से भय लगने लगा।
समाज की व्यवस्था बिगड़ रही थी। ऊँच-नीच का भेद-भाव सीमा लाँघ कर घृणा के क्षेत्र में अवतीर्ण हो चुका था। ब्राह्मण और क्षत्रियों ने समाज, धर्म और शासन की सब शक्तियाँ हस्तगत करके अपने को ऊँचा समझना प्रारंभ कर दिया था। वर्णाश्रम धर्म-कर्म प्रधान न रहकर जन्म-प्रधान बन गया था। शूद्रों और दासों की एक ऐसी श्रेणी का जन्म हो गया था कि जिसे इन लोगों ने मान-बता के साधारण अधिकारों से वंचित कर रखा था। स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार नहीं रह गए थे। धर्म के क्षेत्र में ढोंग और पाखंड का बोल-बाला था और क्षत्रिय तथा ब्राह्मण मिलकर जनता पर मनमाना अत्याचार कर रहे थे। ऐसे आपत्ति-काल में महावीर और गौतम बुद्ध ने हिंदू धर्म में सुधार करने का सफल प्रयास किया।
महावीर- वैशाली गणराज्य में जिसकी राजधानी कुंडग्राम थी, गण-मुख्य सिद्धार्थ के घर स्वामी महावीर ने जन्म लिया। इनका बाल्य और युवा काल समृद्ध परिस्थिति में व्यतीत हुआ, परंतु इनकी प्रकृति प्रारंभ से ही सांसारिक भोग-विलास से परे थी, यह ‘प्रेम’ मार्ग को छोड़कर ‘श्रेय’ मार्ग की ओर जाना चाहते थे। इसीलिए इन्होंने गृहस्थ जीवन का परित्याग करके तपस्वी जीवन अपनाया। बारह वर्ष तक घोर तपस्या की और तब ज्ञान की प्राप्ति हुई। इसके पश्चात् इन्होंने अपने शेष जीवन को अपने विचारों के प्रचार में लगा दिया। आपका धार्मिक आंदोलन जैन धर्म कहलाया। इनकी मृत्यु 70 वर्ष की आयु में 457 ई० पूर्व हुई।
जैन धर्म- वर्धमान महावीर ने जिस धर्म का प्रतिपादन किया उसके अनुसार मनुष्य के जीवन का मुख्य उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति है। इसके लिए मनुष्य को सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (धन संचय को परिमित करना) इन पाँच बातों का अनुसरण करना चाहिए। इन पाँच विषयों का भली भाँति पालन करते हुए प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन से दुराचार और अपवित्रता को निकाल देना चाहिए। सदाचरण और पवित्र जीवन से ही मानव को मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है, अन्यथा नहीं। इस धर्म में अहिंसा और तपस्या पर विशेष बल दिया गया है। ईश्वर कोई पृथक् नहीं है, मनुष्य ही मोक्ष में पहुँचकर ईश्वर के स्थान को प्राप्त कर लेता है।
गौतम बुद्ध – गौतम बुद्ध का जन्म शाक्य गण में गणमुख्य शुद्धोधन के यहाँ हुआ था। इनका बाल-काल बड़े लाड़-प्यार में व्यतीत हुआ परंतु वर्धमान महावीर के ही समान इनकी प्रवृत्ति भी प्रारंभ से ‘श्रेय’ मार्ग की ही ओर थी। 29 वर्ष की आयु में यह घर का परित्याग करके निकल पड़े और सात वर्ष तक तत्त्व-ज्ञान की खोज में इधर-उधर भटकते फिरे। गौतम ने घोर तपस्याएँ की परंतु तपस्या में उनकी आत्मा को शांति न मिली। इससे परेशान होकर वह वर्तमान बुद्ध गया के पास एक पीपल के वृक्ष के नीचे सात दिन तक ध्यान-मग्न पड़े रहे और वहीं पर उनकी आत्मा में एक दिव्य ज्योति का प्रकाश हुआ। साधना सफल हुई और वह ज्ञान दशा को प्राप्त हुए। यहीं पर ‘बोध’ प्राप्त करके वह बुद्ध भगवान बने।
बौद्ध धर्म-गौतम बुद्ध ने समाज के ऊँच-नीच के भेद-भावों का बहुत विरोध किया। केवल जन्म के कारण वह किसी को ऊँचा व नीचा मानने के लिए उद्यत नहीं थे। वे सच्चे अर्थों में समाज सुधारक थे उनकी दृष्टि में न कोई अछूत था और न कोई ब्राह्मण। उन्होंने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी को अपना शिष्य बनाया और एक भाव से सबको दीक्षा दी। पशु-हिंसा का गौतम बुद्ध ने कट्टर विरोध किया। अहिंसा पर आपने विशेष बल दिया। केवल यज्ञों का ही उन्होंने विरोध नहीं किया वरन् पशुओं को किसी प्रकार भी कष्ट देना उनके सिद्धांतों के विपरीत था। यज्ञ में उनका तनिक भी विश्वास नहीं था। वह चाहते थे चरित्र की शुद्धता और काम, क्रोध, तथा मोह पर मानव की विजय यज्ञ का अनुष्ठान वह व्यर्थ समझते थे। कर्मकांड का गौतम बुद्ध ने विरोध किया और आचरण की शुद्धता को अपने धर्म का प्रधान लक्ष्य बनाया। स्वर्ग और मोक्ष को भी आपने इसी लोक में माना है; किसी पृथक् लोक में नहीं। आपने उच्च बनने के लिए यह आठ साधन बतलाएँ हैं-(1) सत्य-चिंतन, (2) सत्य-संकल्प, (3) सत्य भाषण, (4) सत्य-आचरण, (5) सत्य रहन-सहन, (6) सत्य प्रयत्न, (7) सत्य-ध्यान, और (8) सत्य आनंद। निर्वाण-पद प्राप्त करने को बुद्ध भगवान ने जीवन का चरम लक्ष्य माना है। निर्वाण मानव की वह अवस्था है जब वह ज्ञान द्वारा अज्ञान को भगा देता है।
जिस प्रकार दीपक के प्रकाश से सहस्रों वर्षों का अंधकार दूर हो जाता है उसी प्रकार ज्ञान द्वारा मानव के मन की अविद्या का अंधकार लुप्त हो जाता है।
इस प्रकार हमने जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म पर दृष्टि डालकर देखा कि यह कोई नवीन धर्म नहीं थे और न ही इनका चिंतन प्राचीन हिंदू धर्म से कुछ विपरीत ही था। इन्हें हिंदू धर्म में हम प्रतिक्रिया (Reaction) कह सकते हैं। इन सुधारकों ने दार्शनिक रहस्यों की छानबीन करके केवल उस काल में धर्म के अंतर्गत जो बुराइयाँ आ चुकी थीं उन्हीं का खंडन करके आत्मा और जीवन की पवित्रता पर बल दिया है। गौतम बुद्ध ने ईश्वर के विषय में चिंतन पर बल नहीं दिया, क्योंकि उसके होने या न होने से आचरण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।