Sahityik Nibandh

प्रसाद और उनके नाटक – एक लघु निबंध  

Jayshankar prasad ke natakon ki khasiyat hindi laghu nibandh

प्राचीन प्रचलित सब प्रणालियों के बंधनों को नवीनता के विस्फोट से एक-दम उड़ाते हुए बाबू जयशंकर ‘प्रसाद’ जी नाटकीय क्षेत्र में आए। प्राचीनता को नष्ट करने का तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि उन्होंने भारतीय संस्कृति का अपने नाटकों में ध्यान नहीं रखा। जहाँ तक प्राचीनता का यह अर्थ लिया जाता है वहाँ तक यह कहा जा सकता है कि भारतीय प्राचीन संस्कृति का प्रतिपादन और अपने साहित्य में समावेश जितना बाबू जयशंकर ‘प्रसाद’ जी ने किया है उतना इस युग के किसी अन्य लेखक ने नहीं किया। जयशंकर ‘प्रसाद’ जी ने अपने नाटकों के कथानक विशेष रूप से भारत के प्राचीन इतिहास से ही लिए हैं। जो काल्पनिक भी हैं। उनमें भी प्राचीन भारत की झलक स्पष्ट दिखलाई देती है, पर जहाँ तक नाट्य शास्त्र के नियमों का संबंध है आपने उन्हें एकदम ढीला कर दिया। ऐसा करने से आप नवीन युग के प्रवर्तक कह-लाये।

‘अजातशत्रु’ ‘स्कन्दगुप्त’ ‘कामना’, ‘चंद्रगुप्त’ इत्यादि आपके विशेष नाटक हैं। इन नाटकों में आपने बुद्धकालीन संस्कृति का चित्रण किया है। लेखक को इसमें बहुत सफलता मिली है।

जयशंकर ‘प्रसाद’ के नाटकों का महत्त्व केवल साहित्य के ही क्षेत्र में विशेष निखरे हुए ढंग से अनुमानित किया जा सकता है। रंगमंच के विचार से आपके नाटक अधिक सफल नहीं हो सके। पात्रों का आपने बहुत मनोवैज्ञानिक चित्रण किया है। अंतर्द्वन्द्वों का समावेश आपके चित्रण में खूब मिलता है। आपके नाटकों की भाषा बहुत क्लिष्ट है। आपने भाषा में तत्सम शब्दों का प्रयोग किया है।

जयशंकर ‘प्रसाद’ पर जहाँ तक शैली का संबंध है, बंगला और अंग्रेजी साहित्य का बहुत प्रभाव पड़ा। आपने पूर्वी ढाँचे में भारतीय संस्कृति को इतने सुंदर रूप से ढाला है कि वह हिंदी साहित्य के लिए एक देन बन गया है। भारतीय नाट्य शास्त्र के नियमों के बंधनों से अपने को मुक्त करते हुए आप आगे बढ़े और अपनी एक नवीन शैली का हिंदी में आविष्कार किया। इस शैली को बाद में आने वाले सभी नाटककारों ने अपनाया है। यह परिवर्तन का युग अंग्रेजी साहित्य में भी आया था परंतु भारत के पराधीन होने के कारण यह लहर भारत में बहुत पीछे आ सकी। जयशंकर प्रसाद ने अपने नाटकों का क्रम नवीन रखा। पद्य का स्थान गद्य ने सफलता से अपना लिया। वार्त्तालाप कविता में न चलकर गद्य में चलने लगे और नाटकों का संगीत से संबंध विच्छेद न हो इस लिए नाटकों में गीतों का आविष्कार हुआ। नाटकों के लिए बाबू जयशंकर प्रसाद’ ने गीत लिखे, परंतु दुर्भाग्यवश उन गीतों का प्रसार जनता तक न हो सका। यहाँ यह समझ लेना अधिक उपयुक्त होगा कि इस युग में साहित्य और समाज दो पृथक् वस्तु बन चुके थे। भारत की पराधीनता इसका प्रधान कारण थी। यदि उस काल में भी आज स्वतंत्र जीवन की भाँति रेडियो पर जयशंकर प्रसाद’ के गीत गाये गए होते तो कोई कारण नहीं था कि जयशंकर ‘प्रसाद’ का साहित्य जनता का साहित्य न हो जाता। परंतु पराधीनता के कारण साहित्य और समाज दूर-दूर रहते रहे। जयशंकर ‘प्रसाद’ को समाज नहीं समझ पाया और न ही अपना पाया, परंतु साहित्यिक जनों ने उन्हें अपनाया, सिर-आँखों पर रखा और हिंदी-साहित्य की उस अमर निधि को सुंदरता से मान पूर्वक सजाकर उसकी पूजा की। बाबू जयशंकर ‘प्रसाद’ जी ने अपने नाट्य-साहित्य द्वारा हिंदी नाटककारों के सम्मुख एक मार्ग रखा और उस पर चलने वाले अनेकों नाटककार आज हिंदी साहित्य की सेवा कर रहे हैं। जयशंकर प्रसाद के नाटकों ने जिस धारा को जन्म दिया उसमें निम्नलिखित विशेषताएँ पाई जाती हैं-

(1) नाट्य शास्त्र के नियमों में से संभवतः एक आध ही बाकी रह गया होगा। उनका क्रम नवीन है। अंक और दृश्य के स्थानों पर केवल नम्बर डाल कर ही काम चला लिया गया है।

(2) सिनेमा के अविर्भाव के कारण आज यह भी आवश्यक नहीं समझा जाता कि केवल उन्हीं घटनाओं को अपने नाटकों में रखें कि जो रंगमंच पर दिखलाई जा सकें।

(3) पद्य के नाम पर केवल कुछ गीत मात्र नाटकों में बाकी रह गए हैं। समस्त नाटक गद्य में ही लिने जाते हैं।

(4) कथोपकथनों में पूर्ण स्वाभाविकता पाई जाती है।

(5) मध्यवर्ग की समस्याओं को लेकर विशेष रूप से नाटकों की कथाएँ रखी जाती हैं। इसी वर्ग के पात्रों का चित्रण विविध परिस्थितियों में मिलता है।

(6) हिंदी का रंगमंच कुछ अधिक सफलता नहीं पा सका। सिनेमा क्षेत्रत्र में हिंदी पूर्ण सफल है और साथ ही साथ हिंदी के नाटक और गीत भी।

(7) लंबे-लंबे नाटक न लिखे जाकर छोटे नाटकों की प्रणाली चल रही है। अधिकतर छोटे ही नाटक लिखे जा रहे है। तीन अंक के नाटक अच्छे समझे जाते हैं।

(8) इन नाटकों पर बंगला और अंग्रेज साहित्य का प्रधान प्रभाव हुआ है। संस्कृत का प्रभाव भी कम नहीं कहा जा सकता परंतु यह एक स्थान पर जाकर रुक जाता है।

हिंदी नाटक-साहित्य का भविष्य बहुत आशापूर्ण है। नये लेखक दिन-प्रति दिन एक-से-एक नवीन रचना लेकर सामने आ रहे हैं। उनकी रचनाओं में विशेष रूप से समाज की समस्याओं के चित्र भरे हुए होते हैं। आज का समाज चाहता भी ऐसे ही नाटक है। आज का साहित्य केवल कला के लिए नहीं रह गया है, वह तो देखता है उसकी उपयोगिता केवल नाटक ही नहीं वरन् इस समय का सभी साहित्य उपयोगिता की ओर बढ़ रहा है।

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