कला मनुष्य को आनंद की ओर ले जाने वाली एक मधुर चेतना है। संसार की जिन वस्तुओं को सामान्य व्यक्ति उपेक्षा की दृष्टि से देखता है, कला- कार उन्हीं में नवीन सौंदर्य की खोज कर लेता है। स्वयं चेतनता से युक्त होने के कारण वह जड़ वस्तु में भी चेतना के दर्शन करता है। इसके लिए वह एक ओर तो मनोविज्ञान का आश्रय लेता है और दूसरी ओर रस शास्त्र से प्रेरणा ग्रहण करता है। इतना स्पष्ट है कि कलाकार संसार के अन्य प्राणियों की अपेक्षा सौंदर्य के एक भिन्न रूप में दर्शन करता है। इस स्थान पर ‘कला’ से हमारा तात्पर्य ललित कलाओं (वास्तु-कला, मूर्ति कला, चित्रकला, संगीत-कला और काव्य- कला) और उनमें भी विशेष रूप से काव्य-कला से है। काव्य-कला में रंग, कुँची, प्रस्तर, छेनी, वाद्य आदि स्थूल वस्तुओं की आवश्यकता नहीं होती। इनके बिना जीवन की स्वस्थ अभिव्यक्ति उपस्थित कर सकने के कारगा अन्य कलाओं की तुलना में उसका अधिक महत्त्व है।
भारतीय प्राचार्यों ने कला का जीवन से सहज संबंध माना है। उनके अनुसार कलाकार को कला के माध्यम से जीवन की अभिव्यक्ति करनी चाहिए। इसके विपरीत अभी कुछ वर्ष पूर्व से पश्चिम के कुछ विद्वान् कला को जीवन से पृथक मानकर उसका केवल कला से ही संबंध स्थिर करने लगे है। यह दृष्टिकोण उचित नहीं है। वास्तव में कला का जीवन से स्पष्ट संबंध है, क्योंकि जीवन से उपयुक्त सामग्री का संचय करने पर ही कोई कलाकार कला की सृष्टि कर सकता है। इसी प्रकार जीवन पर भी कला के सौंदर्य का व्यापक प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कला केवल दिखावे की वस्तु नहीं है। उसे उपस्थित करने के लिए कलाकार को अध्ययन और मनन की व्यापकता का ध्यान रखना चाहिए।
कला को केवल कला के लिए ही उपस्थित करने की आवश्यकता उस समय पड़ती है जब साहित्यकार के पास कहने के लिए कोई भी नई बात नहीं रह जाती। साहित्य की गति को बनाए रखने के लिए उसमें समय-समय पर नवीन भावों का प्रवर्तन आवश्यक होता है। इसके अभाव में साहित्य में एक ऐसी स्थिरता आ जाती है जो किसी भी अवस्था में पाठक को रुचिकर प्रतीत नहीं होती। ऐसे अवसर पर मौलिकता लाने के लोभ में कलाकारों का ध्यान कला की ओर भी जाता है और वह उसे नवीन रूपों में उपस्थित करने में ही सन्तोष का अनुभव करने लगता है। इस प्रकार की स्थिति में कला कृति में जीवन की अभिव्यक्ति का स्थान कम महत्त्वपूर्ण होता जाता है और अभिव्यक्ति की प्ररणा- लियों को मुख्य स्थान मिलने लगता है।
संसार में जन्म लेने पर मनुष्य निरंतर जीवन के रस को प्राप्त करने की चेष्टा करता रहता है। साहित्य के अध्ययन द्वारा भी वह इसे ही प्राप्त करने की इच्छा रखता है। कला साहित्य को जीवन के लिए और भी अधिक उपयोगी बनाने के उद्देश्य से उसे नवीन सौंदर्य प्रदान करती है। उसे केवल कला के लिए मानने वाले व्यक्ति प्रायः वही होते हैं जो स्वस्थ दृष्टिकोण लेकर नहीं चलते है। ऐसे व्यक्ति प्रायः कला के आवरण में दूषित साहित्य की रचना किया करते हैं। उनकी यह अस्वस्थ दृष्टि साहित्य और समाज, दोनों ही के लिए घातक होती है। वास्तव में कला की सार्थकता इसी में है कि वह हमारे समक्ष जीवन की वास्तविकता को अपने सौंदर्य द्वारा कल्याणकारी रूप में उपस्थित करे। इसके लिए कलाकार का कर्तव्य है कि वह कला को पूर्णतः उन्मुक्त न होने दे। ऐसा केवल तभी हो सकता है जब उसका जीवन से सहज संबंध रहे।
कुछ व्यक्ति साहित्य में यथार्थ को अभिव्यक्ति प्रदान करने से ही अपने कर्तव्य की समाप्ति समझ लेते हैं। वह यह भूल जाते हैं कि केवल यथार्थ को प्रकट कर देना ही कला नहीं है। कला का कार्य यथार्थ के कुरूप चित्र को भी आदर्श की भव्यता प्रदान करना है। कलाकार को जीवन के सत्य की अभिव्यक्ति के लिए शिवतत्त्व तथा सौंदर्य की सहायता लेनी चाहिए। उसका कार्य जीवने की उग्रता को स्वाभाविकता में बदलने का प्रयत्न करना है। उसे अपनी सुक्ष्म दृष्टि से जीवन की स्निग्धता को पहचान लेना चाहिए। ऐसा करने पर ही वह अपनी कृति द्वारा दूसरों के शुष्क जीवन में भी सरसता का संचार करने में सफल हो सकेगा।
कला मनुष्य को यह परामर्श देती है कि वह जीवन को शांत रीति से व्यतीत करे। मनुष्य को जीवन के सत्य से दूर रहकर केवल सौंदर्य के बाह्य रूपों में उलझकर रह जाने का संदेश प्रदान करना उसका लक्ष्य नहीं है। वह यथार्थ को कल्याणमय आदर्श की ओर ले जाने वाली सबसे बड़ी शक्ति है। इस विषय में अपने विचारों को संकेत का सहारा लेकर उपस्थित करने में कलाकार को अधिक सफलता प्राप्त होती है। उस प्रवस्था में वह प्राचीन जर्जर संस्कारों का भी सहज ही विरोध कर सकता है। अतः यह स्पष्ट है कि कला को जीवन से भिन्न रखकर नहीं देखना चाहिए। वह मानव-मन का संस्कार करने वाली मूल कृति है। उसे इस रूप में उपस्थित करने पर ही कलाकार को भी वास्तविक आनंद का अनुभव हो पाता है अन्यथा उसे केवल कला के लिए ही उपस्थित करने पर वह अपने सामने ऐसा कोई ठोम सिद्धांत नहीं पाता जो उसे जीवन का अंतिम सुख प्रदान कर सके।
किसी भी कला-कृति में मानवतावाद का होना उसके भविष्य के गौरव की सूचना देता है। वस्तुतः कलाकार को लोक-व्यंजना उपस्थित करने के लिए एक निश्चित सामाजिक दृष्टिकोण को लेकर चलना चाहिए। वह यथार्थ में कल्पना का मिश्रण कर उसे जीवन के लिए सरलता से अधिक उपयोगी बना मकता है। कला में जीवन को अभिव्यक्त करने की एक ही प्रणाली नहीं है। जिस प्रकार कला हमारे समक्ष अनेक रूपों में विद्यमान है उसी प्रकार जीवन को भी वहाँ अनेक प्रकार से उपस्थित किया गया है। सामान्यतः माहित्यकार जीवन के विविध अनुभवों को प्राप्त करने के बाद उन्हें विचार और कल्पना के आधार पर इस प्रकार उपस्थित करता है कि वे मानव हित में अधिक से अधिक सहयोग दे सके।
कला जीवन की अपूर्णता को पूर्णता में परिवर्तित करती है। यदि उसका जीवन से निकट का संबंध न होगा तो इसके लिए कोई संभावना नहीं रहेगी। कला को केवल कला विकास के लिए ही उपस्थित करने का परिणाम यह होगा कि कलाकार अपनी अभिव्यक्ति को कहीं भी शिथिल नहीं होने देगा। इसके लिए वह अपनी रचना में अभिव्यंजना की सूक्ष्मता को अधिक से अधिक स्थान देगा। इस प्रकार की रचना में जीवन के लिए उपयोगी भावों के स्थान पर अभिव्यंजना-सौंदर्य पर अधिक ध्यान दिया जाता है। यह प्रवृत्ति साहित्य के उपयुक्त विकास के लिए घातक है। वास्तव में साहित्य में भावों की श्रेष्ठता का होना अधिक आवश्यक है। इस प्रकार के भावों को अपरिपक्व कला के माध्यम से उपस्थित नहीं किया जा सकता। अतः साहित्य में भावना और अभिव्यंजना में से किसी एक के प्रति मोह का प्रदर्शन करना और दूसरे के प्रति उपेक्षा दिखाना हानिकर है।
कला को किसी एक बंधन में बांधकर रख सकना संभव नहीं है। वास्तव में उसे न तो अभिव्यक्ति की सीमा में ही बाँधा जा सकता है और न ही उसमें केवल आदर्शवादी विचारधारा को ही उपस्थित किया जा सकता है। उसमें सत्य, शिव और सुंदर का सामंजस्य उपस्थित किया जाना चाहिए। इनमें से भी उसका संबंध मुख्य रूप से सौंदर्य से ही रहता है। उसी के माध्यम से वह अपने स्वरूप में सत्य और शिव का भी समन्वय कर लेती है। उसका मूल कार्य संसार के अभावों और दोषों को दूर कर उसे पूर्णता की ओर ले जाना है। इस संबंध में कविवर सुमित्रानंदन लिखित उक्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है-
पंत की निम्न-
ललित कला, कुत्सित कुरूप
जग का, जो रूप करे निर्माण !
भारतीय साहित्य में मुख्य रूप से कला को जीवन – विकास में सहायता प्रदान करने वाले तत्त्व के रूप में उपस्थित किया गया है। इस देश की कला- कृतियों में संस्कृति के गौरव की पूर्ण रक्षा की गई है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि हमारे यहाँ ‘कला कला के लिए’ सिद्धांत का अनुकरण नहीं किया गया हैं। वास्तव में वर्तमान युग में भारतीय कला का एक काफी बड़ा भाग इसी सिद्धांत का अनुयायी है। ऐसा केवल इसीलिए हुआ है कि हम पश्चिम की प्रत्येक वस्तु को आँखें बंद करके स्वीकार करने के आदी हो गए हैं। प्राचीन कला-कृतियों में जीवन का समावेश हमारी भक्ति चेतना के कारण हुआ था। आज इस चेतना का रूप ही परिवर्तित होता जा रहा है। इसी कारण हम अपने साहित्य के परंपरागत श्रेष्ठ सिद्धांत का पालन करने में भी अपने को असमर्थ पा रहे है।