Sahityik Nibandh

कविता का स्वरूप

कविता के अध्ययन अथवा श्रवण से मानव-मन पर जो व्यापक प्रभाव पड़ता है उसको लक्षित करते हुए प्रत्येक देश के साहित्यकारों ने उसकी रचना की ओर अधिक ध्यान दिया है। कविता का उद्देश्य पाठक को आनंद का अनुभव कराना है। उसके स्वरूप के विषय में समय-समय पर विद्वानों ने अनेक परिभाषाएँ उपस्थित की है, किंतु उसे किसी एक परिभाषा के बंधन में बाँध सकना सरल कार्य नहीं है। संस्कृत में आचार्य विश्वनाथ ने ‘रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्’ कहकर काव्य में रस की अनिवार्य स्थिति मानी है, पंडितराज जगन्नाथ ने ‘रमणीयार्थप्रतिपादक: शब्द: काव्यम्’ कहकर काव्य में रमणीय अर्थ की स्थिति को अनिवार्य माना है और आचार्य मम्मट ने कविता में गुणों और अलंकारों के ग्रहण तथा दोषों के त्याग को आवश्यक कहा है।

पाश्चात्य विद्वानों में मैथ्यू आर्नल्ड ने कविता को जीवन की व्याख्या कहा है, वर्डस्वर्थ ने कविता को शांति के अवसर पर स्मृति में आई हुई विविध भावनाओं का प्रवाह माना है, मिल्टन ने कविता में प्रत्यक्षता और रागात्मकता की स्थिति का प्रतिपादन किया है, कॉलरिज ने कविता में उत्कृष्ट शब्द-विधान पर बल दिया है और जॉनसन कविता में छंद – निर्वाह को आवश्यक मानते है। हिंदी के विद्वानों में प्राचार्य केशवदास ने कविता में अलंकार प्रयोग का अनिवार्य माना है, श्री रामचंद्र शुक्ल ने कविता को रस-संपन्न रखने पर बल दिया है और श्री सुमित्रानंदन पंत ने कविता के मूल में वेदना की स्थिति मानी है। इसी प्रकार पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी, डॉ.- श्यामसुंदर दास और सुश्री महादेवी वर्मा आदि ने भी कविता के विविध लक्षण उपस्थित किए है। उपर्युक्त अध्ययन के आधार पर हम कविता की निम्नलिखित परिभाषा निर्धारित कर सकते हैं-

“कविता कवि की वह साधना है जो प्रकृति और जीवन के सत्य को स्वच्छ, सरस और संगीतमय रूप में उपस्थित करती है। वह मानव-भावनाओं का परिष्कार करते हुए मन में आनंद का संचार करती है।”

कविता और मानव-जीवन

कविता में मानव जीवन को सरस रूप में उपस्थित किया जाता है। उसमें जीवन के विविध अनुभवों को स्पष्ट रूप में उपस्थित करने पर बल दिया जाता है। वास्तव में इन दोनों का परस्पर अत्यंत गहन संबंध है। यही कारण है कि मानव जीवन की अभिव्यक्ति से शून्य कविता पढ़ने में कृत्रिम लगती है और कविता का अध्ययन करने वाले मनुष्य का जीवन भी शुष्क हो जाता है। आधुनिक युग में कुछ विद्वान् ‘कला कला के लिए है’ नामक सिद्धांत का समर्थन करते हुए कविता में जीवन की व्याख्या को आवश्यक नहीं मानते हैं, किंतु भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार कविता में मानव जीवन का चित्रण अवश्य होना चाहिए।

भारतीय विद्वानों ने कविता में लोक-हित से संबंध रखने वाली भावनाओं के समावेश पर अत्यधिक बल दिया है। हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक श्री रामचंद्र शुक्ल ने इनका विशेष समर्थन किया है। इसके लिए कृवि को अपनी कविताओं में सत्य, शिव और सुंदर के आयोजन की ओर ध्यान देना चाहिए। कविता का सत्य साधारण सांसारिक सत्य से भिन्न होता है। उसका आश्रय लेने पर कवि को प्रकृति की जड़ता में भी चेतनता लगता है। उसका संबंध लोक-हित से होता है और इसी का अनुभव होने कारण वह कभी नष्ट नहीं होता। फिर भी यह आवश्यक है कि कवि अपनी रचनाओं में न तो इतिहास के सत्य का विरोध करे और न ही असंभव बातों की स्थापना करे। कविता में शिव-तत्त्व की योजना के लिए उसमें लोक-हित से संबंधित भावनाओं का वर्णन किया जाना चाहिए। इसी प्रकार उसे सुंदर बनाने के लिए उसमें भावनाओं और भाषा, शैली, अलंकार आदि कला के अंगों का उपयुक्त निर्वाह किया जाना चाहिए।

काव्य की आत्मा

संस्कृत के प्राचार्यों ने काव्य की आत्मा के विषय में पर्याप्त चिंतन किया है अर्थात् उन्होंने यह देखने का प्रयत्न किया है कि किस तत्त्व के कारण कविता में सौंदर्य का अधिक संचार होता है। इस दृष्टि से भरत मुनि ने रस को, आचार्य वामन ने रीति (पद- रचना की विशेष प्रणाली) को, आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति को और आनंदवर्धनाचार्य ने ध्वनि को काव्य की आत्मा माना है। इनका अध्ययन करने पर हम देखते है कि इनमें से रस-संप्रदाय और रीति-संप्रदाय ही प्रमुख है। शेष संप्रदायों में से ध्वनि को रस में और वक्रोक्ति को रीति में मिलाया जा सकता है। वास्तव में रस- संप्रदाय और रीति-संप्रदाय काव्य रूपी पुरुष के लिए मन और शरीर के समान है। ये दोनों एक-दूसरे के विरोधी न होकर परस्पर सहायक है। इनमें भी भावनाओं से संबंधित होने के कारण रस का ही मुख्य स्थान है। अतः रस को ही काव्य की आत्मा कहा जाएगा।

कविता के तत्त्व

कविता की रचना करते समय कुछ विशेष तत्त्वों का पालन करने की आवश्यकता होती है। आगे हम इन तत्त्वों का पृथक्-पृथक् परिचय देंगे।

(1) कल्पना तत्त्व-

कविता के भावों को और भी अधिक आकर्षक बनाने के लिए कवियों द्वारा कल्पना का प्रचुर प्रयोग किया जाता है। साधारण और शुष्क तत्त्वों को भी कल्पना की सहायता से विशेष रस प्रदान किया जा सकता है, किंतु कल्पना में स्वाभाविकता का सदैव निर्वाह किया जाना चाहिए। असंगत कल्पनाओं का आश्रय लेने से काव्य में निर्जीवता आ जाती है।

(2) बुद्धि-तत्व –

कविता में बुद्धि-तत्त्व के समावेश से हमारा तात्पर्य उसमें विचारों को स्थान देने से है। कविता में सत्य के समावेश के लिए कवि को अनुभव और

चिंतन, दोनों का आश्रय लेना होता है। विचार-तत्त्व के समावेश के लिए. कविता में भात्रों की सरसता और शैली की मधुरता का योग भी आवश्यक होता है। इनसे रहित होने पर केवल विवारों की शुष्क अभिव्यक्ति से कविता के प्रवाह में बाधा पहुँचती है।

(3) भाव-तत्त्व

कविता में भाव-तत्त्व को प्रमुख स्थान प्रदान किया जाता है। ये ही भाव परिपक्क होने पर रस का रूप धारण कर लेते हैं। इनका संबंध बुद्धि की अपेक्षा हृदय से होता है। अतः इनके समावेश से कविता में सरसता और प्रवाह का संचार अधिक मात्रा में होता है। भावों की योजना करते समय उनमें विविधता, विशदता, स्थिरता अथवा प्रौढ़ता तथा उचितता आदि विविध गुणों के समावेश की ओर उपयुक्त ध्यान दिया जाना चाहिए।

(4) शैली-तत्त्व –

इस तत्त्व से हमारा तात्पर्य कविता के कला-पक्ष से है। इसके अनुसार काव्य में भाषा, शैली, अलंकारों तथा छंदों की योजना की ओर उपयुक्त ध्यान दिया जाना चाहिए। ये सभी कबिता की बाह्य शोभा का विधान करने वाले गुण हैं। अतः कवि का कर्त्तव्य है कि वह काव्य के विषय के अनुकूल प्रवाहपूर्ण भाषा-शैली को अपनाते हुए अपने काव्य में छंदों तथा अलंकारों की स्वाभाविक रूप में योजना करे। इस विषय में कृत्रिमता का आश्रय लेने से काव्य की शोभा नष्ट हो जाती है।

उपर्युक्त तत्त्वों में से प्रथम तीन तत्त्वों का संबंध कविता के भाव पक्ष मे है और अंतिम तत्त्व उसके कला-पक्ष का सौंदर्य बढ़ाता है। भाव-पक्ष का महत्त्व सष्टतः कला-यक्ष से अधिक होता है, किंतु कवि को इनमें से किमी की भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।

कविता के भेद

शैली के आधार पर कविता के प्रबंध काव्य और मुक्तक काव्य नामक दो भेद किए गए हैं। इनमें से प्रबंध काव्य में मानव जीवन का पूर्ण चित्र उपस्थित किया जाता है और मुक्तक काव्य में मन में आने वाले किमी एक भाव अथवा किसी अन्य संक्षिप्त घटना अथवा वस्तु विशेष का चित्रण रहता है। इन दोनों का स्वरूप इस प्रकार है-

(1) प्रबंध काव्य.

प्रबंध काव्य में कवि मानव जीवन का विस्तृत अध्ययन उपस्थित करता है। इसके ‘महाकाव्य’ और ‘खंड-काव्य नामक दो भेद होते है। महाकाव्य में जीवन को उसकी पूर्णता में चित्रित किया जाता है और इसके लिए कवि किसी प्रसिद्ध कथा का आधार लेता है। इस प्रकार की रचना अनेक अध्यायों में विभाजित होती है और इसकी रचना करते समय कवि को भावना तथा कला के संबंध में विविध नियनों का पालन करना होता है। खंड-काव्य में मानव- जीवन के किसी एक पक्ष का चित्रण किया जाता है। इसका आकार महाकाव्य से छोटा होता है और प्रायः इसमें भी किसी प्रसिद्ध कथा का ही चित्रण किया जाता है।

(2) मुक्तक काव्य –

इस प्रकार की काव्य-रचना में विस्तार के लिए अधिक अवकाश नहीं होता। इसे ‘गीति काव्य’ और ‘अगेय मुक्तक काव्य’ नामक दो भेदों में विभाजित किया जाता है। गीति काव्य में कवि मन में उठने वाली किसी भावना को संक्षेप में अत्यंत मार्मिक रीति से उपस्थित करता है। हिंदी में महाकवि सूरदास का काव्य गीति का य के रूप में ही प्राप्त होता है। इस प्रकार के काव्य में संगीत के निर्वाह का निरंतर ध्यान रखा जाता है। अगेय मुक्तक काव्य की रचना छंदों में की जाती है। गीति काव्य की अपेक्षा इसका कुछ अधिक विस्तार किया जा सकता है, किंतु संक्षिप्तता और मार्मिकता इसके भी दो प्रमुख गुण है।

अंत में हमें यही कहना है कि कविता का स्वरूप भावात्मक होता है। उसे कुछ विशेष तियों में बाँधकर उपस्थित नहीं किया जा सकता। ये नियम अथवा गुण उसमें स्वयं अनायास ही आ जाते हैं। कवि की ओर से उनकी योजना का प्रयास नहीं किया जाता है। वैसा होने पर कविता में कृत्रिमता आ सकती है। उस स्थिति में पाठक को भी कविता का अध्ययन करते समय स्थान-स्थान पर अनावश्यक रूप में रुकना पड़ता है। अतः यह स्पष्ट है कि कविता को भावावेग के अनुसार सहज-स्वाभाविक रूप में ही उपस्थित किया जाना चाहिए।

Leave a Comment

You cannot copy content of this page