विषय पर दृष्टि डालते समय हमें समझ लेना होगा कि कला क्या है? सूक्ष्म रूप से उपयोगिता और सुंदरता जिस वस्तु में हो वह कला है। बढ़ई, लुहार, कुम्हार, जुलाहे इत्यादि का कार्य उपयोगी कला के अंतर्गत आता है और वास्तु कला, चित्रकला, संगीत कला और काव्य-कला ललित कला के अंतर्गत आते हैं। उपयोगी कलाएँ मानव की आवश्यकता पूर्ति के लिए होती हैं और ललित कला मानव के अलौकिक आनंद की प्राप्ति के लिए यह दोनों ही मानव के विकास के लिए परमावश्यक हैं। ललित कला की परिभाषा बाबू श्यामसुंदरदास जी ने इस प्रकार की है, “ललित कला वह वस्तु या वह कारीगरी है जिसका अनुभव इंद्रियों की मध्यवस्था द्वारा मन को होता है और जो उन बाह्यार्थी से भिन्न है जिसका प्रत्यक्ष ज्ञान इंद्रियाँ प्राप्त करती हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि ललित कलाएँ मानसिक दृष्टि में सौंदर्य का प्रत्यक्षीकरण है।”
मनुष्य सौन्दर्योपासक प्राणी है, जब वह जीवन की आवश्यकताओं के स्तर से ऊपर उठता है तो उसका शरीर रुझान सौंदर्य-प्रधान ललित कलाओं की ओर होता है। कोई संगीत की तरफ़ झुकता है तो कोई चित्र कला की ओर, कोई मूर्तिकला पर रीझता है तो कोई साहित्य पर ललित कलाओं के दो भेद किए जा सकते हैं, एक नेत्रगम्य (जैसे भवन निर्माण मूर्ति कला तथा दृश्य-काव्य) और दूसरा श्रवणेन्द्रिय-गम्य (जैसे श्रव्य-काव्य और संगीत)। इन दोनों भेदों में संगीत और काव्य उत्तम कला हैं और वस्तु, चित्र तथा मूर्ति कलाएँ मध्यम श्रेणी की। जिस ललित कला में मूर्त्त आधार जितना कम है वह कला उतनी ही उच्च कोटि की है। इस प्रकार काव्य का स्थान सब ललित कलाओं में सबसे ऊँचा ठहरता है।
यहाँ हम क्रमशः पाँचों ललित कलाओं पर विचार करेंगे। वास्तु कला का मूर्त आधार ईंट, पत्थर और लोहा है। यह सभी निर्जीव वस्तु हैं। इनमें जीवन की वह मादकता कहाँ जो कविता अथवा संगीत में पाई जाती है। कोई सुंदर-से सुंदर भवन देखा और समझ लिया कि यह कुतुबमीनार है। ताजमहल है, मस्जिद है, मंदिर है इत्यादि। यहाँ विचार के लिए चिंतन के लिए या मनन के लिए बहुत कम स्थान है। इसीलिए पाँचों ललित कलाओं में वास्तु कला का स्थान सबसे छोटा है।
मूर्ति कला में मूर्त आधार पत्थर या अन्य प्रकार की कोई वस्तु है। मूर्ति-कार अपनी छैनी से काट-छाँटकर उसमें कलात्मकता पैदा करता है, मूर्ति बनाता है। परंतु इसमें वह गति उत्पन्न नहीं कर सकता। मूर्ति बनाने में मूर्तिकार वास्तुकार की अपेक्षा मानसिक भावनाओं को चित्रित करने में अधिक सामर्थ्य रखता है। वह अपनी मूर्ति में जानदार होने का भ्रम उत्पन्न कर देता है और कभी-कभी यह भ्रम वास्तविकता से अधिक कला-पूर्ण हो जाता है, चाहे उसकी उपयोगिता कुछ भी न हो। जहाँ तक उपयोगिता का संबंध है वहाँ तक वास्तु-कला मूर्ति कला की अपेक्षा अधिक ऊँचा आसन ग्रहण करती है परंतु ललित-कलाओं के क्षेत्र में मूर्ति कला का स्थान वास्तु कला की अपेक्षा उच्चतम है।
चित्र कला का मूर्त आधार कपड़ा, कागज इत्यादि हैं। चित्रकार अपनी तूलिका द्वारा उन पर चित्र अंकित करता है। एक मूर्तिकार पत्थर का स्थूल शरीर सम्मुख रखता है और चित्रकार केवल चित्र द्वारा ही वह सब कुछ दर्शक के सम्मुख रखना चाहता है। इसलिए मूर्त आधार चित्रकार के सम्मुख मूर्तिकार की अपेक्षा कम रहता है। यहीं पर चित्रकार अपनी कला कुशलता में मूर्तिकार से आगे निकल जाता है। वह चित्रपट पर अपनी कल्पना द्वारा ऐसा चित्र प्रस्तुत करता है कि दर्शक के सम्मुख वह दृश्य उपस्थित हो जाता है जिसे वह आँखों से प्रत्यक्ष रूप में देखता है। चित्रकार केवल चित्र की बाहिरी आकार ही दर्शक के सम्मुख प्रस्तुत नहीं करता वरन् वह अपने चित्र की प्रत्येक रेखा में वह आत्मा फूँकता है कि जिससे चित्र सजीव होकर बोलना आरंभ कर देता है और स्वयं कह उठता है कि मैं अमुक समय का अमुक देश का और अमुक सभ्यता का चित्र हूँ। सफल चित्रकार मनुष्य अथवा प्रकृति की भाव-भंगी का प्रतिरूप, दर्शक की आँखों के सम्मुख प्रस्तुत कर देता है और उसमें होता है उसके अपने मानसिक भावों का सजीव चित्र।
नेत्र गम्य कलाओं के विषय में विचार करने के पश्चात् अब हम श्रव्य-गम्य कक्षाओं पर विचार करेंगे। संगीत का आधार नाद है जो कि मानव कंठ और यंत्रों द्वारा उत्पन्न होता है। यह नाद कुछ सिद्धांतों के आधार पर सात स्वरों में बाँटकर उत्पन्न किया जाता है। एक गायक इसी नाद द्वारा अपने मानसिक भावों को श्रोता के सम्मुख प्रस्तुत करता है। यह प्रभाव बहुत व्यापक होता है और यहाँ तक कि अच्छा गायक जीव-जंतुओं को भी अपने संगीत के वशीभूत कर लेता है। कहते हैं गान-विद्या में इतनी शक्ति भी रही है कि उसने अपने वश में प्रकृति की शक्तियों को भी वश में कर लिया था। दीपक-राग, मेघ-राग, के विषय में तानसेन इत्यादि की अनेकों किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। यदि उन्हें केवल किंवदंतियाँ भी मान लें तब भी इतना तो सत्य ही है कि संगीत में रुलाने और हँसाने की शक्ति विद्यमान है। यह मानव को क्रोध में उन्मत बना सकता है और साथ ही फिर शांत रस में भी डुबो सकता है। अच्छे गायक के गान के का नेत्र बंद करके सुनने से श्रोता अपने सामने उसी दृश्य का अनुभव कर सकता है जिसका वर्णन वह अपने राग में कर रहा है। तलवारों की झंकार, विरहिणी का रोदन, पक्षियों का कलरव, विजली की चमक, मेघों की गड़गड़ा-हट-यह सब भाव रागों में बहुत सुंदर ढंग से प्रदर्शित किए जाते हैं। संगीत मानव की आत्मा को प्रभावित करता है। काव्य-कला के अतिरिक्त मानव को प्रभावित करने में संगीत कला अन्य सब ललित कलाओं से अधिक सफल है।
“संगीत-कला और काव्य-कला में परस्पर बड़ा घनिष्ठतम संबंध है। उनमें अन्योन्याश्रय-भाव है, एकाकी होने से दोनों का प्रभाव बहुत कुछ कम हो जाता है।”
-बाबू श्यामसुंदर दास, बी० ए०।
काव्य-कला का स्थान सब ललित कलाओं में सर्वोच्च है। काव्य-कला का आधार कोई मूर्त पदार्थं नहीं है। इसका अस्तित्व केवल शब्दों पर अवलंबित है। काव्य-कला नेत्र-गम्य और श्रव्य-गम्य दोनों ही प्रकार की होती है। नाटक काव्य का एक विशेष अंग है जिसका रंगमंच से ही संबंध रहता है और रंग-मंच का सौंदर्य नेत्रों के ही क्षेत्र के अंतर्गत आता है। काव्यों के पठन-पाठन में भी नेत्रों से ही काम लेना होता है और उन्हीं के द्वारा काव्य को मस्तिष्क और हृदय तक पहुँचाया जाता है। संसार की सभी वस्तुओं के संकेत भाषा के पंडितों ने निश्चित कर लिए हैं और भाव तथा ध्वनि के आधार पर उनमें वह अर्थ भी व्यापक हो चुके हैं जो इंद्रियों द्वारा मस्तिष्क या हृदय अनुभव करता है। जीवन की घटनाओं और चित्रणों को केवल आँखों से देखना ही एक काव्य-कार के लिए आवश्यक नहीं, वरन् वह तो अपने शब्दों द्वारा ऐसा चित्र पाठक के सम्मुख प्रस्तुत करेगा कि एक क्षण के लिए पाठक अपने को भूलकर कवि-कल्पना में झूलने लगेगा और वह अनुभव करेगा कि वास्तव में वही चित्र जिसे वह पढ़ रहा है उसके नेत्रों का सत्य बन गया है। इन्हीं मानसिक चित्रों द्वारा काव्य का पंडित दूसरों के हृदय में अपनी पैठ करता है और वह अपनी पैनी दृष्टि द्वारा दूसरों के हृदय की परख कर लेता है। यह सब कार्य भाषा द्वारा होता है। इसलिए एक लेखक की भाषा उसकी वही वस्तु है जो मूर्ति कलाकार की छैनी और पत्थर चित्र कलाकार की तूलिका और कागज और संगीतकार की मधुर ध्वनि और यंत्र इसी के द्वारा वह अन्य जगत् से अपना संबंध स्थापित करता है।
संसार की सभी वस्तुओं का तथा भावनाओं और कल्पनाओं का ज्ञान हमें बाह्य साधनों द्वारा और आंतरिक साधनों द्वारा होता है। बाह्य साधनों द्वारा प्राप्त किया हुआ ज्ञान बाह्य ज्ञान कहलाता है और आंतरिक साधनों द्वारा प्राप्त आंतरिक ज्ञान कहलाता है। पूर्व संचित अनुभवों और कल्पनाओं के द्वारा प्राप्त आंतरिक ज्ञान होता है और संसार की वस्तुओं को आँखों से देखकर, हाथों से छूकर और नाक से सूंघकर बाह्य ज्ञान के साधनों पर विचार किया। लेखक अपनी और अपने पूर्ववर्ती लेखकों की कल्पना शक्ति का अपने काव्य में प्रयोग करता है और इस प्रकार बाह्य तथा आंतरिक ज्ञान दोनों का ही प्रयोग वह अपने साहित्य की साधना के लिए करता है। साहित्य कला को हमने ऊपर अन्य सभी कलाओं पर प्रधानता दी है और उसका एक प्रधान कारण यह भी बतलाया है कि काव्य-कला में आय कलाओं की अपेक्षा बहुत कम मूर्त्त आधार है, बल्कि यों कह सकते हैं कि बहुत कुछ हद तक है ही नहीं और मानसिक आधार को ही विशेष स्थान दिया गया है। काव्य-कला ही एक ऐसी कला है कि जो बाह्य ज्ञान का बिना आश्रय लिए मानसिक भावनाएँ उत्पन्न करती है वरना इसे छोड़कर अन्य सभी कलाओं को किसी-न-किसी रूप में बाह्य ज्ञान का आश्रय लेना होता है। काव्य-कला पूर्ण रूप से आंतरिक ज्ञान पर अवलंबित है। काव्य मन के आधार पर स्थिर है और काव्य की कल्पनाओं और भावनाओं का मूल स्रोत है। साहित्य का उद्गम स्थान मन होने से यह स्पष्ट है कि उसका प्रभाव भी अन्य कलाओं की अपेक्षा मानव पर अधिक गहरा होगा। काव्य का भंडार प्रतिक्षण और प्रतिफल वृद्धि की ही ओर चलता जाता है। उसका विनाश नहीं होता, वह तो कंजूस की तिजोरी है जो उसमें कुछ डालना सीखा है निकालना नहीं। मूर्तियाँ नष्ट हो जाती हैं, चित्र फट जाते हैं परंतु साहित्य जो एक बार संसार में आ चुका फिर जाने वाला नहीं मानव सृष्टि के आरंभ से मानव ने जो अनुभव किया, देखा, सोचा और कल्पनाएँ कीं वह सब उसके साहित्य में सुरक्षित रखा है। मानव के लिए यह महाजन की कितनी मूल्यवान धरोहर हो सकती है इससे इसका अनुमान लगाया जा सकता है।