भारत में इस्लामी राज्य की स्थापना होनी थी कि हिंदू जनता के हृदय से उत्साह, गर्व और गौरव जाता रहा देव मंदिर गिराये जाने लगे और पूजनीय स्थानों का अपमान हुआ। यह सब जनता ने अपनी आँखों से हृदय पर पत्थर रखकर देखा और सहन किया। हिंदू जीवन में घोर उदासीनता छा गई। धर्म के क्षेत्र में वज्रयानी सिद्ध कापालिक और नाथ पंथी जोगियों का जोर था। धर्म कर्म, ज्ञान और भक्ति तीनों धाराओं में प्रभावित हो रहा था। इस काल में इन तीनों के सामंजस्य की आवश्यकता थी। ज्ञान क्षेत्र में कुछ विचारक आते हैं और कर्म तथा भक्ति का समावेश महाभारत काल के पश्चात् पुराण-काल से मिलता है, कभी कुछ समुन्नत रूप में और कुछ दबे हुए रूप में।
वज्रयानी सिद्धांतों का दृष्टिकोण आत्म-कल्याण और लोक कल्याण विधायक नहीं था। वह जनता को कार्य क्षेत्र से हटाने पर तुले थे। संवत् 1073 में रामानुजाचार्य ने जिस सगुण भक्ति का निरूपण किया, जनता ज्ञान मार्गियों की अपेक्षा उसकी ओर अधिक प्रभावित होती जा रही थी। संवत् 1254-1333 में गुजरात में मध्वाचार्य ने द्वैतवादी वैष्णव संप्रदाय चलाया। इसी काल में जयदेव और विद्यापति के गीतों से कृष्ण भक्ति का जनता में प्रचार हुआ। 15 वीं शताब्दी में रामानुजाचार्य के शिष्य स्वामी रामानंद ने विष्णु के राम-अवतार को लेकर भक्ति मार्ग का प्रतिपादन किया। इस प्रकार वैष्णव संप्रदाय में राम भक्ति शाखा का आविर्भाव हुआ। इसी काल में श्री वल्लभाचार्य ने कृष्ण की प्रेममूर्ति को लेकर कृष्ण भक्ति शाखा का प्रचार किया। इस प्रकार रामोपासक और कृष्णोपासक धाराओं का प्रवाह हिंदू धर्म की मूल प्रवृत्तियाँ बनकर भारत के कोने-कोने में प्रवाहित हो चला।
एक ओर तो यह प्राचीन भक्ति मार्ग सगुणोपासना के आधार पर तैयार हो रहा था, जिसमें भक्तों ने ब्रह्म के ‘सत्’ और ‘आनंद’ स्वरूप का निरूपण किया और दूसरी ओर मुसलमानों के स्थायी रूप में भारत में बस जाने के कारण ‘सामान्य भक्ति मार्ग’ का विकास हुआ। वज्रयान और नाथ संप्रदायों में शास्त्रज्ञ विद्वानों की कमी थी और विशेष रूप से इनका प्रभाव भी भारत की छोटी ही जातियों पर अधिक था। ‘सामान्य भक्ति मार्ग’ का सीधा संबंध भी इन्हीं धाराओं से जुड़ा। यह लोग पूजा-अर्चना को व्यर्थ मानते थे, केवल अंत-मुख साधनाओं द्वारा ईश्वर इनके मत से प्राप्त था। इस धारा के साधु इंगला, पिंगला, सहस्र कमलदल इत्यादि के उल्टे-सीधे नाम लेकर मूर्ख जनता पर अपना प्रभाव सिद्ध बनकर जमाते थे। हिंदू-मुसलमानों में यह भेद नहीं मानते थे। यह धारा हृदय-पक्ष-शून्य थी और इसका सम्मान अंतर्साधना की ओर था।
इसी काल में महाराष्ट्र में मानव ने साधना तत्त्व के साथ रागात्मक तत्त्व का समावेश करके उस भक्ति मार्ग का आभास दिया जिसे बाद में जाकर कबीरदास ने अपनाया। कबीर ने अपने निगुर्ण-पंथ में जहाँ एक ओर भारतीय वेदांत को अपनाया वहीं दूसरी ओर सूफी प्रेम-धारा को अपनाकर निर्गुण ब्रह्म का भक्ति रूप खड़ा किया। इस प्रकार कबीर ने नाथ पंथ के जनता पर पड़ने वाले शुष्क प्रभाव को नष्ट करके उसमें किसी हद तक सरसता का संचार किया। परंतु खेद की बात यह थी कि सरसता के लिए कबीरपंथ में भी स्थान कम ही था। इस प्रकार इस पंथ की अंतर्साधना में रागात्मक वृत्ति तो मिल गई परंतु कर्म के क्षेत्र में वही पुरानी स्थिति बनी रही। ईश्वर के धर्म-स्वरूप में लोक रंजन की भावना का आविष्कार न हो सका और जनता के जीवन में जो जागृति या सरसता आनी चाहिए थी, वह न आ सकी। “यह सामान्य-भक्ति मार्ग एकेश्वरवाद का अनिश्चित स्वरूप लेकर खड़ा हुआ, जो कभी ब्रह्म-वाद की ओर ढलता था और कभी पैगंबरी खुदाबाद की ओर।”-रामचंद्र शुक्ल। यह सब होते हुए भी निर्गुणपंथियों ने अपने विचारों में सामंजस्य की भावना को विशेष स्थान दिया। एक ओर नाग-पंथ के योगियों से योग-भावना ग्रहण की तो दूसरी ओर नामदेव से भक्ति भावना रामानंद जी से अद्वैतवाद की कुछ स्थूल बातें लीं और साथ ही दूसरी ओर सूफी फकीरों से रागात्मकता, वैष्णव धर्मावलम्बियों से अहिंसावाद और प्रवृत्तिवाद ग्रहण किया। इस प्रकार वह न तो पूर्ण रूप से अद्वैतवादी ही हैं और न एकेश्वरवादी ही दोनों का मिला-जुला रूप इसमें मिलता है। बहु देवोपासना, अवतारवाद और मूर्तिपूजा का इन भक्तों ने खंडन किया है। खंडात्मक प्रवृत्ति इनकी विशेष प्रवृत्ति थी जिसमें नमाज, रोजा, व्रत, कुरबानी यह सब व्यर्थ हो जाते हैं। ब्रह्म माया, जीव, सृष्टि और आनंदवाद की चर्चा इन लोगों ने पूरे ब्रह्म ज्ञानी बनकर की है। विशुद्ध-ईश्वर प्रेम और सात्विक जीवन इनकी विशेषता थी।
सगुणोपासना को भक्तों ने ब्रह्म के सगुण और निर्गुण दोनों ही रूपों में माना है। केवल भक्ति के क्षेत्र में उन्होंने सगुण रूप को ही प्रश्रय दिया है। सगुण भक्त अव्यक्त की ओर संकेत तो करते हैं, परंतु उनके पीछे नहीं पड़ जाते। इस प्रकार सगुण और निर्गुण दो भक्ति धाराएँ विक्रम की पंद्रहवीं शताब्दी के अंत से लेकर सत्रहवीं शताब्दी के अंत तक साथ साथ चलती रहीं। निर्गुण-धारा के अंतर्गत ज्ञानाश्रयी शाखा और प्रेमाश्रयी शाखा थीं। प्रेमाश्रयी शाखा में सूफ़ी प्रेम-धर्म की प्रधानता थी। यह शाखा केवल साहित्यिक क्षेत्र तक ही प्रधानता पा सकी। जनता में इसे कोई विशेष प्रोत्साहन नहीं मिला। जिस प्रकार निर्गुणधारा के अंतर्गत दो शाखाएँ थीं उसी प्रकार सगुण भक्ति उपासकों के भी दो मार्ग थे। एक भक्ति शाखा और दूसरा कृष्ण भक्ति शाखा, जैसा कि हम ऊपर कह आए हैं। मध्य युग में भक्ति के यही प्रधान आंदोलन थे।