Sahityik Nibandh

श्रीमती महादेवी वर्मा

Mahadevi Verma ka parichay

महादेवी जी का जन्म संवत्  1964 में संयुक्त प्रांत के फर्रुखाबाद नामक स्थान पर हुआ था। वर्तमान युग में हिंदी काव्य की रचना करने वाली महिलाओं में उनका सर्वप्रमुख स्थान है। साहित्य-रचना के साथ-साथ वह चित्रकारिता में भी रुचि रखती हैं और उसमें उन्हें पूर्ण कुशलता प्राप्त है। उनके ‘यामा’ शीर्षक ग्रंथ में हमें उनकी कला के ये दोनों ही रूप प्राप्त होते हैं। ‘यामा’ में उनकी ‘नीहार’, ‘नीरजा’, ‘रश्मि’ और ‘सांध्यगीत’ शीर्षक काव्य-कृतियों का संग्रह मिलता है। इनके अतिरिक्त उन्होंने ‘दीप-शिखा’ नामक एक अन्य काव्य की भी रचना की है। उनकी कविताओं का संबंध आत्म-साधना से रहा है। उन्होंने आत्मा को पत्नी के रूप में कल्पना करते हुए परमात्मा को पति के रूप में ग्रहण किया है अतः उनके काव्य में परमात्मा के विरह में आत्मा की करुण स्थिति का मार्मिक चित्रण हुआ है।

पद्य रचना की भाँति महादेवी जी गद्य रचना में भी पूर्णतः कुशल हैं। उन्होंने ‘शृंखला की कड़ियाँ’, ‘अतीत के चलचित्र’ और ‘स्मृति की रेखाएँ’ शीर्षक तीन श्रेष्ठ गद्य-ग्रंथ लिखे हैं। इनमें से प्रथम ग्रंथ में नारी – जीवन का चित्रण हुआ है और शेष दोनों में उन्होंने अपने जीवन में आने वाले कुछ व्यक्तियों के संस्मरण उपस्थित किए हैं। उनकी गद्य शैली मौलिक होने के अतिरिक्त एक विशेष अपनापन लिए हुए है। हिंदी के संस्मरण – साहित्य में उनके इन दोनों ग्रंथों का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। वह गद्य और पद्य दोनों की एक ही जैसी कुशलता के साथ रचना कर सकती हैं और इन दोनों के ही क्षेत्रों में उन्होंने खड़ीबोली को विशेष सौंदर्य प्रदान किया है। आगे हम उनके काव्य की विविध विशेषताओं पर क्रमशः प्रकाश डालेंगे।

रस- योजना

महादेवी जी के काव्य में शांत रस और करुण रस को मुख्य स्थान प्राप्त हुआ है। इसके अतिरिक्त उन्होंने शृंगार रस के भी अनेक मार्मिक चित्र उपस्थित किए हैं, किंतु उनका संबंध स्पष्ट रूप से आध्यात्मिक भावनाओं से रहा है। उन्होंने परमात्मा के वियोग में आत्मा की करुण स्थिति का चित्रण करते हुए करुण रस की योजना की है। इसी प्रकार परमात्मा के महत्त्व को स्पष्ट करने वाली तथा आत्म बोध से सम्वन्धित कविताओं में उन्होंने शांत रस की भी उपयुक्त योजना की है। यद्यपि यह सत्य है कि कबीर, सूर और तुलसी की रचनात्रों में प्राप्त होने वाले शांत रस का महादेवी के शांत रस- संबंधी काव्य से ऊँचा स्थान है, तथापि महादेवी जी की कुछ कविताओं में भी इस रस का अच्छा समावेश प्राप्त होता है। इन रसों के अतिरिक्त उन्होंने शृंगार रस के संयोग और वियोग नामक दोनों पक्षों को भी अपने काव्य में स्थान प्रदान किया है। इस रस की योजना करते समय उन्होंने आत्मा द्वारा परमात्मा को पति के रूप में ग्रहण करने की कल्पना की है। यद्यपि यह सत्य है कि इस प्रकार की कविताओं में साधारण लौकिक प्रेम की भी स्थिति हो सकती है, तथापि इनमें आध्यात्मिकता की स्थिति को स्वीकार करने में हमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। आगे हम परिचय के लिए उनके काव्य से संयोग शृंगार से संबंधित कुछ इसी प्रकार की पंक्तियाँ उपस्थित करते हैं-

“क्यों वह प्रिय आता पार नहीं ?

शशि के दर्पण में देख-देख,

मैने सुलझाये तिमिर केश,

गूंथे चुन तारक -गरिजात,

अवगुंठन कर किरणें अशेष,

क्यों आज रिझा पाया उसको,

मेरा अभिनव शृंगार नहीं?”

रहस्यवादी काव्य

‎महादेवी जी ने प्रमुख रूप से रहस्यवादी काव्य की रचना की है। आधुनिक युग के रहस्यवादी कवियों में उनका सर्वप्रमुख स्थान है। उन्होंने अपने काव्य में ईश्वर-प्रेम के अनुभव को विविध रूपों में उपस्थित किया है। उन्होंने अपने रहस्यवाद में एक ओर तो जायसी के सर्वबाद (ईश्वर विश्व में सब ओर प्राप्त है।) के सिद्धांत को स्थान प्रदान किया है और दूसरी ओर कबीर की भाँति आत्मा को पत्नी तथा परमात्मा को पति मानकर रहस्यवाद में भावात्मकता को स्थान दिया है। उन्होंने अपनी कविताओं में रहस्यवाद की जिज्ञासा, साधना और मिलन की तीनों स्थितियों का चित्रण किया है। उन्होंने अपने से पूर्व लिखे गए रहस्यवादी काव्य से प्रेरणा लेने के अतिरिक्त अनेक स्थानों पर अपने मौलिक चिंतन का भी परिचय दिया है। अपने ‘आधुनिक कवि’ शीर्षक काव्य-संग्रह में उन्होंने रहस्यवाद के स्वरूप पर भी व्यापक प्रकाश डाला है। यद्यपि यह सत्य है कि कहीं कहीं अनुभव की अपूर्णता के कारण उनकी रहस्य- वादी भावनाएँ अस्पष्ट हो गई है तथापि प्रायः उन्होंने अपनी कविताओं में आत्म-वेदना को सजीव रूप में ही उपस्थित करने का प्रयास किया है। यथा –

“छिपा है जननी का अस्तित्व,

रुदन में शिशु के अर्थ-विहीन।

मिलेगा चित्रकार का ज्ञान,

चित्र की हो जड़ता में लीन।

दृगों में छिपा अश्रु का हार,

सुभग है तेरा ही उपहार !”

छायावादी काव्य

आधुनिक युग में छायावाद की रचना करने वाले कवियों में महादेवी जी

का महत्त्वपूर्ण स्थान हैं। उन्होंने अपनी कविताओं उसकी भावना और में कला-संबंधी सभी विशेषताओं को स्थान दिया है। इन दोनों क्षेत्रों में उन्होंने अपनी मौलिकता को भी अनेक स्थानों पर प्रकट किया है। इस दृष्टि से उन्होंने भाव- क्षेत्र में कल्पना, सौंदर्य, प्रकृति आदि को छायावादी प्रणाली के अनुसार सूक्ष्म रूप में उपस्थित किया है। इसी प्रकार उन्होंने छायावाद की शैली संबंधी विशेषताओं के समावेश की ओर भी पूर्ण ध्यान दिया है। ‘आधुनिक कवि’ (प्रथम भाग) की भूमिका में उन्होंने छायावाद के विषय में अपने विचारों को भी विस्तार के साथ स्पष्ट किया है।

अन्य भाव संबंधी विशेषताएँ

उपर्युक्त विशेषताओं के अतिरिक्त महादेवी जी के काव्य में कुछ अन्य विशेषताओं को भी स्थान प्राप्त हुआ है। इस विषय में हम उनके काव्य में प्राप्त होने वाले प्रकृति-चित्रण, कल्पना समावेश, राष्ट्र-भावना और दार्शनिकता पर विचार करेंगे। उन्होंने प्रकृति को छायावादी प्रणाली में चित्रित किया है। इसी कारण उन्होंने प्रकृति में मानव के भाव विकास के दर्शन किए हैं। यद्यपि उनकी कविताओं में प्रकृति के स्वतंत्र चित्र अधिक प्राप्त नहीं होते, तथापि उन्होंने अपनी कविताओं में प्रायः प्रकृति-चित्रण की ओर ध्यान दिया है। उनके काव्य में कल्पना का समावेश भी अधिकतर इन प्रकृति चित्रों के विषय में ही हुआ है। यद्यपि कहीं कहीं उनकी कल्पनाओं में समानता और गति का प्रभाव रहा है, तथापि उनकी कल्पनाओं में आकर्षण का भी समावेश हुआ है। महादेवी जी ने अपनी कुछ कविताओं में राष्ट्र भावना को भी स्थान दिया। इस प्रकार की कविताओं में राष्ट्र की दुर्दशा और जनता को वेदना का चित्रण किया गया है। यह उनके काव्य की मुख्य प्रवृत्ति नहीं है, किंतु इसमें कोई संदेह नहीं है कि उन्होंने इसकी अत्यंत प्रभावशाली रीति से योजना की है। इनके अतिरिक्त उनके काव्य की एक अन्य विशेषता दार्शनिक विचारों का समावेश है। रहस्यवाद से युक्त होने के कारण इसके लिए उनके काव्य में पर्याप्त अवकाश रहा है। इस दृष्टि से उन्होंने अपनी रचनाओं में अद्वैतवाद, द्वैतवाद और द्वैताद्वैतवाद का समावेश किया है।

कला-तत्त्व

महादेवी जी ने अपने काव्य में कला तत्त्वों की ओर भी उपयुक्त ध्यान दिया है। उन्होंने अपने काव्य की रचना खड़ीबोली में की है और अपनी भाषा में मधुरता तथा कोमलता का विशेष रूप में समावेश किया है। उनकी कविताओं में शब्द-योजना के विविध रूप उपलब्ध होते हैं, किंतु उन्होंने अपनी भाषा को कहीं भी कृत्रिम नहीं होने दिया है। कहीं-कहीं उन्होंने लोकगीतों की शब्दावली का प्रयोग कर अपनी भाषा को विशेष सहजता और मधुरता भी प्रदान की है। उन्होंने अपनी भाषा को माधुर्य गुण पर आधारित किया है। प्रतीकों और लाक्षणिक प्रयोगों द्वारा उन्होंने अपनी भाषा को छायावाद की कला-संबंधी सूक्ष्मताएँ भी प्रदान की हैं।

शैली प्रयोग की दृष्टि से महादेवी जी ने अपने काव्य में मुख्य रूप से चित्र-शैली और प्रगीत शैली का प्रयोग किया है। उन्होंने अपने संपूर्ण काव्य की रचना गीतों के रूप में की है। अत: प्रगीत शैली ही उनके काव्य में मुख्य रही है। उन्होंने अपनी कविताओं में गीति काव्य की सभी स्थूल और सूक्ष्म विशेषताओं का निर्वाह किया है। इन दोनों शैलियों के अतिरिक्त उन्होंने संबोधन शैली, उद्बोधन शैली और प्रश्न शैली का भी प्रयोग किया है। प्रगीत शैली के कारण उनके काव्य में छंदों के प्रयोग का प्रश्न नहीं उठता तथापि उनके छंदों की कुछ पंक्तियों में गीतिका और सार आदि विविध,मात्रिक छंदों के लक्षण भी प्राप्त होते हैं। छायावाद के अन्य कवियों की भाँति अलंकार प्रयोग के क्षेत्र में उन्होंने भी नवीन उपमानों का प्रयोग किया है। उनकी नवीन अलंकार-दृष्टि का परिचय निम्नलिखित छंद में प्राप्त होने वाले उपमा और रूपक नामक अलंकारों से हो सकता है-

“प्रिय ! सांध्य गगन, मेरा जीवन!

यह क्षितिज बना धुंधला विराग,

नव अरुण अरुण मेरा सुहाग।

छाया-सो काया वीतराग,

सुधि-भीने स्वप्न रंगीले घन॥”

Leave a Comment

You cannot copy content of this page