कविवर विद्यापति ने काव्य की रचना चौदहवीं शताब्दी में की थी। उन्होंने अपने काव्य की रचना अधिकतर गीति काव्य के रूप में स्वतंत्र पदों में की थी। इस समय उनकी कविताओं का एक संग्रह ‘विद्यापति की पदावली’ के नाम से मिलता है। इस कृति को मैथिली भाषा में लिखा गया है। इसके अतिरिक्त उनका अपभ्रंश भाषा में लिखा गया ‘कीर्तिलता’ नामक एक अन्य काव्य भी प्राप्त होता है। विद्यापति कृष्ण भक्त कवि थे। उन्होंने अपनी पदावली में राधा-कृष्ण प्रेम की चर्चा को मुख्य स्थान प्रदान किया है। इस दिशा में उन्होंने संस्कृत के प्रसिद्ध कवि जयदेव के ‘गीत-गोविंद’ से विशेष रूप से प्रेरणा ली है। इसी कारण उन्हें ‘अभिनव जयदेव’ कहा जाता है। उन्होंने अपने काव्य में मैथिली भाषा का अत्यंत मधुर और मनोहारी प्रयोग किया है। इसलिए उन्हें ‘मैथिल कोकिल’ की पदवी भी प्रदान की गई है।
विद्यापति के काव्य पर जयदेव के काव्य के अतिरिक्त बंगला के प्रसिद्ध कवि चण्डीदास की रचनाओं का प्रभाव पड़ा है। उनके काव्य में शृंगार रस को मुख्य स्थान प्राप्त हुआ है। इस दृष्टि से उन्होंने शृंगार रस को पूर्णता की ओर ले जाने वाले उसके सभी सहायक अंगों को अपने काव्य में स्थान प्रदान किया है। शृंगार रस के अंतर्गत उन्होंने उसके संयोग और वियोग नामक दोनों पक्षों का अच्छा चित्रण किया है। संयोग शृंगार की दृष्टि से उन्होंने नायिका की शोभा, नायक-नायिका प्रेम और मिलन आदि विविध स्थितियों का मधुर चित्रण किया है। इसी प्रकार विरह के अवसर पर नायक और नायिका की विकलता को भी उन्होंने मार्मिक रूप में उपस्थित किया है। उदाहरण के लिए नायिका की विरह के समय की निम्नलिखित उक्ति देखिए-
“सखि हे ! हमर दुखक नहिं ओर।
ई भर बादर, माह भादर, सून मन्दिर मोर॥”
शृंगार रस के अतिरिक्त विद्यापति ने अपने काव्य में शांत रस का भी सुंदर समावेश किया है। उनके काव्य में भक्ति के विविध रूप प्राप्त होते हैं। इसी कारण आलोचकों ने अपने-अपने मत के अनुसार उन्हें शाक्त, वैष्णव और शैव सिद्ध करने का प्रयास किया है। हमारा मत है कि वह शुद्ध अर्थों में शैव थे। उन्होंने काव्य में विष्णु, दुर्गा एवं गंगा आदि की स्तुति अवश्य की है, किंतु वह ठीक उसी प्रकार की है जैसी गोस्वामी तुलसीदास द्वारा की गई गणेश और पार्वती आदि की भक्ति है। जिस प्रकार इतना होने पर भी तुलसी को मूल रूप से राम का भक्त माना जाता है उसी प्रकार विद्यापति को शिव का भक्त मानना चाहिए। आगे हम उनके काव्य में शांत रस का श्रेष्ठ प्रयोग दिखाने के लिए श्रीकृष्ण की भक्ति से संबंधित कुछ पंक्तियाँ उपस्थित करते हैं-
“माधव हम परिनाम निरासा।
तहुँ जगतारन अक्षप तोहर
दोन दयामय, विसवासा॥”
विद्यापति ने अपने काव्य में रस- सौंदर्य का अत्यंत आकर्षक रूप में समावेश किया है। उन्होंने कृष्ण और राधा के चरित्रों को अत्यंत स्पष्ट रूप में उपस्थित किया है। उनके काव्य में प्रकृति के भी अनेक सुंदर चित्र प्राप्त होते हैं। प्रायः उन्होंने प्रकृति के उद्दीपनात्मक रूप का चित्रण किया है। अपनी भावनाओं को विशेष प्रभावशाली बनाने के लिए उन्होंने कल्पना के प्रयोग पर भी उचित ध्यान दिया है। उनके काव्य में सौंदर्य – चित्रण को मुख्य स्थान प्राप्त हुआ है। इस दृष्टि से उन्होंने मानव-सौंदर्य और प्रकृति-सौंदर्य, दोनों का पर्याप्त चित्रण किया है।
भावपक्ष की भाँति विद्यापति के काव्य का कला पक्ष भी सुंदर बन पड़ा है। उन्हें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और मैथिली नामक चार भाषाओं का ज्ञान था। अपनी पदावली में उन्होंने मैथिली भाषा का रमरणीय प्रयोग किया है। उनके काव्य में प्राप्त होने वाली मैथिली भाषा वर्तमान मैथिली से पर्याप्त भिन्न है। उन्होंने अपनी भाषा में मधुर और कोमल शब्दों के प्रयोग पर विशेष ध्यान दिया है। वह अपनी भाषा की मधुरता पर स्वयं मुग्ध रहा करते थे।
उनके पश्चात् मैथिली भाषा में कदिवर गोविंददास ने पद-रचना की थी। उन्होंने विद्यापति की भाषा की स्वच्छता की प्रशंसा की है। अपनी शैली को प्रवाहपूर्ण बनाने के लिए उन्होंने अपने काव्य में मुहावरों और लोकोक्तियों का भी व्यापक प्रयोग किया है। यथा-
(क) बड़हु भुखल नहिं दुहु कर खाय।
(ख) बिनु साहस अभिमत नहिं पूर।
विद्यापति ने अपने काव्य में शब्दालंकारों के स्थान पर अर्थालंकारों का अधिक प्रयोग किया है। इस दृष्टि से उन्हें उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा नामक अलंकार विशेष प्रिय रहे हैं। उन्होंने अपनी पदावली की रचना गीति काव्य के रूप में की है। अतः उसमें छंद-योजना का प्रश्न ही नहीं उठता। आगे हम उनके गीति काव्य की विशेषताओं पर पृथक् से प्रकाश डालेंगे।
विद्यापति का गीति-काव्य
गीति काव्य की सफल रचना के लिए यह आवश्यक है कि कवि उसमें संगीत का व्यापक आश्रय ले। इसके अतिरिक्त कवि को उसमें अपने हृदय की भावनाओं को संक्षिप्त रूप में उपस्थित करना चाहिए। विद्यापति ने अपने गेय पदों में इन दोनों आवश्यकताओं को सफलतापूर्वक पूर्ण किया है। हिंदी में गीति काव्य को व्यापक आधार पर उपस्थित करने का श्रेय उन्हीं को प्राप्त है। उन्होंने अपने गीतों की रचना करते समय भावना और कला, दोनों ही की दृष्टि से जयदेव के ‘गीत-गोविंद’ का अनुकरण किया है। इन गीतों में हृदय को प्रभावित करने की असीम शक्ति है। इसके प्रभाव के विषय में यह प्रसिद्ध है कि चैतन्य महाप्रभु कीर्त्तन करते समय इन्हें गाते-गाते आत्म-विह्वल होकर प्रायः मूर्च्छित हो जाते थे। उनके अधिकांश गीतों में संगीत का सुंदर निर्वाह मिलता है। उदाहरणार्थं निम्नलिखित गीत – पंक्तियों में श्रीकृष्ण के विरह का चित्रण देखिए-
“बिरह व्याकुल बकुल तरुतर पेखल
नंदकुमार रे।
नोल नीरज नयन सच सखि
ढरइ नीर श्रपार रे॥”
विद्यापति के गीतों में लोक-गीतों की सहजता और सरलता का सुंदर समावेश हुआ है। इसी कारण मिथिला, भोजपुर और उत्तर प्रदेश के कुछ गाँवों में उनके गीतों का अत्यधिक प्रचार मिलता है। यहाँ तक कि कुछ लोक-गीत लिखने वाले कवियों ने उनके नाम से अपने अनेक गीतों को भी प्रचलित कर दिया है। मिथिला में उनके गीति काव्य का सबसे अधिक प्रचार मिलता है। आगे हम उनके गीतों की प्रशंसा में कविवर रामधारीसिंह ‘दिनकर’ की कुछ पंक्तियाँ उपस्थित करते हैं-
वैशाली के भग्नावशेष से,
पूछ लिच्छवि धान कहाँ ?
ओ री उदास गण्डकी बता,
कवि विद्यापति के गान कहाँ ?
‘दिनकर’ जी ने गण्डकी नदी की धारा से विद्यापति के गीतों के विषय में यह प्रश्न पूछकर यह स्पष्ट कर दिया है कि विद्यापति के गीत अपनी सरसता के कारण सदैव वातावरण में गूंजते रहते थे।