यद्यपि महात्मा कबीर के जीवन के विषय में निश्चित सूचनाएँ प्राप्त नहीं होतीं, तथापि खोज के द्वारा उनकी जीवन घटनाओं का कुछ विवरण एकत्रित करने का समय-समय पर प्रयास किया गया है। इस आधार पर उनका जन्म सम्वत् 1456 तथा मृत्यु सम्वत् 1575 माना गया है। उनकी जाति के विषय में भी पर्याप्त विवाद मिलता है। सामान्यतः यह माना गया है कि वह जाति के हिंदू थे, किंतु उनका पालन-पोषण काशी के एक मुसलमान जुलाहा परिवार में हुआ था। उनकी रुचि बचपन से ही मुसलमान धर्म की अपेक्षा हिंदू धर्म की ओर थी, किंतु अपने काव्य में उन्होंने इन दोनों धर्मो को समान स्थान दिया है और दोनों की कुरीतियों की निंदा की है।
महात्मा कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। वह अपने सिद्धांतों का प्रचार करने के लिए पद बनाया करते थे। उनके शिष्यों ने इन पदों और छंदों को लिखकर ‘कबीर-बीजक’ नामक ग्रंथ के रूप में इनका संग्रह कर दिया। प्रशिक्षित होने पर भी कबीर के काव्य में ज्ञान का अपूर्व भंडार भरा हुआ है। उन्होंने सज्जन सत्संग और गुरु के उपदेशों के द्वारा ही अपने ज्ञान का संचय किया था। वह स्वामी रामानंद को अपना गुरु मानते थे। उनके काव्य में आत्म-चिंतन का भी व्यापक समावेश हुआ है। अपने अनुभव और चिंतन के आधार पर उन्होंने श्रेष्ठ नीति और भक्ति संबंधी काव्य की रचना की है। यद्यपि यह सत्य है कि भाषा की सूक्ष्मताओं का ज्ञान न होने के कारण कबीर अपने काव्य के कला-पक्ष को अधिक सुंदर नहीं बना सके है, तथापि भाव-पक्ष की दृष्टि से उनका काव्य पर्याप्त समृद्ध बन पड़ा है।
भाव-पक्ष
महात्मा कबीर के काव्य का अध्ययन करने पर हमें उसमें निम्नलिखित भाव संबंधी विशेषताएँ प्राप्त होती है-
(1) रस- योजना
कबीर के काव्य में शांत रस को मुख्य स्थान प्राप्त हुम्रा है। उन्होंने ब्रह्म, जीव, माया और मोक्ष के विषय में श्रेष्ठ विचार उपस्थित किए है। उन्होंने शृंगार रस को शांत रस के मुख्य सहायक रस के रूप में उपस्थित किया है। इस दृष्टि में उन्होंने साधक को पत्नी और परमात्मा को पति के रूप में चित्रित करते हुए प्रेम द्वारा भक्ति की स्थापना की है। अन्य सहायक रसों के रूप में उन्होंने साधक को शूरवीर के समान चित्रित कर वीर रस की योजना की है, संसार के कष्टों और मृत्यु का चित्रण कर करुण रस को उपस्थित किया है और सृष्टि की उत्पत्ति तथा उसके विस्तार से संबंधित पदों में अद्भुत रस का सनावेश किया है।
(2) भक्त पद्धति –
कबीर ने प्रारंभ में भगवान् द्वारा अवतार लेने और संसार की लीलाओं में भाग लेने का वर्णन कर सगुण भक्ति का प्रतिपादन किया था। इसके पश्चात् सगुण भक्ति के क्षेत्र में फैले हुए जाति-भेद का विरोध करते हुए उन्होंने निर्गुण भक्ति का प्रतिपादन किया। उन्होंने आत्म-साधन पर बल देते हुए अपने काव्य में दार्शनिक विचारों को भी व्यक्त किया है। इस दृष्टि से उन पर शंकराचार्य के अद्वैतवाद का प्रभाव मिलता है। अपने कुछ पदों में उन्होंने सिद्धि प्राप्त करने के लिए हठयोग का आश्रय लेने पर भी बल दिया है।
(3) रहस्यवाद-
महात्मा कबीर ने अपने काव्य में प्रायः साधनात्मक रहस्यवाद का प्रतिपादन किया है। उनके कुछ पदों में भावात्मक रहस्यवाद का भी सुंदर चित्रण मिलता है। इस प्रकार के पदों में उन्होंने परमात्मा के विरह में आत्मा की विकलता का चित्रण किया है। हिंदी में रहस्यवादी काव्य की रचना करने वाले कवियों में उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनके रहस्यवादी काव्य पर एक ओर तो अद्वैतवाद का प्रभाव मिलता है और दूसरी ओर उन्होंने सूफियों की प्रेम-भावना से भी पर्याप्त प्रेरणा ली है। इसी कारण जहाँ उन्होंने ईश्वर को प्राप्त करने के लिए ज्ञान के द्वारा माया के प्रभाव को नष्ट करने को आवश्यक माना है वहाँ उन्होंने ईश्वर के प्रति स्वार्थ रहित प्रेम को भी ईश्वर प्राप्ति का एक उपाय माना है। सूफी विचारधारा से प्रेरणा लेकर ही उन्होंने गुरु द्वारा बताए गए मार्ग पर चलकर ईश्वर को प्राप्त करने को सरल कहा है। उनकी रहस्यवादी विचारधारा पर सूफी प्रेम-साधना के प्रभाव का एक उदाहरण देखिए-
“नयनन की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाय।
पलकन की चिक डारि के पिय को लोन रिभाय॥”
इस स्थान पर यह उल्लेखनीय है कि कबीर के रहस्यवादी काव्य का कुछ अंश कठिन भी हो गया है, किंतु साधारणत: उन्हें उसकी रचना में सफलता ही प्राप्त हुई है।
(4) लोक दर्शन–
कबीर के लोक-दर्शन संबंधी काव्य से हमारा तात्पर्य उनकी ऐसी रचनाओं से है जिनमें उन्होंने समाज के लिए उपयोगी बातों की चर्चा की है। दूसरे शब्दों में इसे नीति-काव्य भी कह सकते हैं। महात्मा कबीर ने इस प्रकार के काव्य की व्यापक रूप में रचना की है। इसके लिए उन्होंने अपने गंभीर अनुभव को सर्वत्र आकर्षक रूप में अभिव्यक्त किया है। सरल भाषा में लिखित होने के कारण उनके नीति-काव्य का साधारण जनता के लिए भी अपार महत्त्व है। आदर्शों, उपदेशों और चिंतन से युक्त होने के कारण यह काव्य मानव मन को निश्चय ही शांति और उन्नति की ओर ले जाने वाला है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि महात्मा कबीर ने अपने काव्य की रचना इसलिए की थी कि वह अपने भावों को जनता के हृदय तक पहुँचा सकें और हिन्दुओं तथा मुसलमानों के भेद को मिटाकर दोनों को एक दूसरे के पास ला सकें। उनकी वाणी का लक्ष्य समाज की बुराइयों को मिटाकर उसे आदर्श रूप प्रदान करता रहा है। निर्गुण भक्ति का प्रचार भी उन्होंने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया था। इस भक्ति संप्रदाय के सभी सिद्धांतों को उनके काव्य में उत्कृष्ट स्थान प्राप्त हुआ है। उनके बाद के निर्गुण भक्त कवियों ने इस विषय में उनसे सर्वत्र प्रेरणा ली है। जनता को मंगल संदेश प्रदान करने में कबीर को पूर्ण सफलता प्राप्त हुई थी। यद्यपि यह सत्य है कि अपनी निर्भीक प्रवृत्ति के कारण उन्होंने कही कहीं समाज की बुराइयों की अत्यंत कटु शब्दों मैं निंदा की है, किंतु यह निंदा समाज हित के लिए ही है। अतः कतिपय दोषों के होने पर भी जनहित से संबंधित होने के कारण कबीर की वाणी की प्रशंसा ही की जाएगी।
कला- पक्ष
किसी भी कवि के काव्य के कला-पक्ष का अध्ययन करने के लिए हमें उसके काव्य में भाषा-शैली, अलंकारों और छंदों की स्थिति का अध्ययन करना होता है। जिस प्रकार काव्य में भाव – सौंदर्य की स्थिति अत्यंत आवश्यक होती है उसी प्रकार कला – सौंदर्य के बिना भी उसमें पूर्ण आकर्षण नहीं आ पाता
महात्मा कबीर ने अपने काव्य में भावों की व्यापकता की ओर तो उचित ध्यान दिया है, किंतु अशिक्षित होने के कारण कला-तत्त्वों का वह अधिक सफल संयोजन नहीं कर सके है। उनका संपूर्ण ज्ञान संत्संग और भ्रमण पर आधारित है और इस कारण उन्हें भिन्न-भिन्न देशों के व्यक्तियों से मिलने का अवसर प्राप्त होता रहता था। अतः उनके काव्य में ब्रजभाषा, अवधी, राजस्थानी, अरबी, फारसी, खड़ीबोली आदि अनेक भाषाओं का मेल प्राप्त होता उनके काव्य की शैली सरस और स्वाभाविक है। उन्होंने वर्णानात्मक शैली, उद्बोधन शैली, प्रगति शैली आदि अनेक शैलियों का प्रयोग किया है और इन सभी के प्रयोग में उन्हें पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है।
महात्मा कबीर को काव्यशास्त्र का उपयुक्त ज्ञान नहीं था। इस कारण उनके काव्य को कला तत्त्वों का प्रौढ़ रूप उपलब्ध नहीं होता। इसी प्रकार उनका विविध रूपों में प्रयोग भी उनके काव्य में उपलब्ध नहीं होता। उनके काव्य में छंदों और अलंकारों की स्थिति इसी प्रकार की है। उन्होंने मुख्य रूप से ‘दोहा’ छंद में काव्य-रचना की है, किंतु छंद-शास्त्र में प्राप्त होने वाले दोहे के लक्षण के अनुसार उनके सभी दोहे ठीक नहीं कहे जा सकते। अलंकारों का प्रयोग करने में उन्हें अधिक सफलता प्राप्त हुई है। यद्यपि उनके काव्य में अधिक अलंकार प्राप्त नहीं होते, तथापि अलंकारों के स्वाभाविक प्रयोग की दृष्टि से उनके काव्य को प्रायः सफल कहा जा सकता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि उन्होंने कला – सौंदर्य का अपने काव्य में साधारण रूप में ही परिचय दिया है, किंतु भाव-सौष्ठव की दृष्टि से निश्चय ही भक्तिकाल के कवियों में उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है।