आज की कहानी का स्वरूप निर्धारित करते समय यह निस्संकोच कहा जा सकता है। कि नई कहानी नई कविता की भाँति उद्भूत नहीं हुई। “नई कहानी” में “नई” विशेष रूप से पिछली परंपरा से भिन्नता दिखाने के लिए ही प्रयुक्त किया गया। नई कहानी से पूर्व नई कविता विशिष्ट प्रवृत्ति के रूप में स्थान प्राप्त कर चुकी थी। सभी बंधनों से मुक्त नई कविता अपने रूप में दूर से झलक उठती है। वास्तविकता तो यह है कि रूप और शिल्प की नवीनता शीघ्र आकृष्ट करती है। कहानी में रूप परिवर्तन की वह गुंजाइश नहीं होती जो काव्य में हो सकती है। हिंदी में नई कहानी के आंदोलन का नेतृत्व आरंभ में कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव तथा मोहन राकेश ने किया और इन्होंने भीष्म साहनी, अमरकांत, रमेशवक्षी, मार्कण्डेय, मन्नू भण्डारी, राजेन्द्र अवस्थी, दूधनाथ सिंह, शैलेश मटियानी, ज्ञान रंजन, प्रयाग शुक्ल, रवीन्द्र कालिया आदि की कहानियों को नई बताते हुए ‘पुरानी’ कहानियों को वास्तविक यथार्थ की कहानी न कह कर उन पर जड़ आदर्शवादिता का आक्षेप लगाया। यद्यपि नई कहानी के बीजों को पुराने कहानीकारों में न देख सकने की हिम्मत “नए” कथाकार नहीं कर सके। नई कहानी आंदोलन की प्रतिष्ठा में कमलेश्वर का सर्वाधिक महत्व है। उनके अनुसार पुरानी कहानी की जीवंतता और चेतना समाप्त हो चुकी है तथा नई कहानी जीवन की समग्रता को अभिव्यक्त करने में सक्षम है। नए कहानीकार “नए” को “सृजन की पहली शर्त” मानकर आगे आए। उनकी दृष्टि में “नया या आधुनिकता कोई संज्ञा या विशेषता मात्र न होकर एक प्रक्रिया है जिसकी चेतना ने समकालीन कथा की भूमिका को बदल दिया है।” (देवेश ठाकुर : कथा क्रम से)।
जो भी हो, सन् 1943-1952 के आसपास से ही वैचारिक स्तर पर और “नई एप्रोच” के आग्रह से रूप के स्तर पर जो नई तरह की कहानियाँ सामने आई, उन्हें नई कहानी के नाम से अभिहित किया गया। परंतु इसके बाद इसी प्रवृत्ति से जुड़कर अनेक नए आयाम स्थापित हुए, अनेक बिंदु बने, उस परिधि में आने वाली विशिष्टताओं को नए-नए नाम दिए गए और लेखन के प्रति अपनी ईमानदारी का डंका भी पीटा गया, अपनी महत्ता भी स्थापित की गई। नई कहानी के साथ-साथ ही “समकालीन” कहानी नाम भी चल रहा था, यह संयम, संक्षिप्तता और सम-सामयिकता का पक्षधर था। तंदतर सचेतन कहानी, अकहानी, अकथा, समानांतर कहानी जैसे नाम भी छोटे-छोटे आंदोलनों के रूप में सामने आए।