भारत में संपूर्ण रूप से मुसलमान शासन सत्ता स्थापित हो जाने पर हिंदू गौरव और वीरता के लिए बहुत कम स्थान रह गया था। स्थान-स्थान पर देव मंदिर गिराए जा रहे थे, और उनके स्थान पर मस्जिदें बन रही थीं। मुसलमान पूरी तरह भारत भूमि में बसते चले जा रहे थे; शासक और शासित होते हुए भी दो जातियों का एक दूसरे से पृथक् रहकर जीवन निर्वाह करना कठिन था। इसलिए दिन-प्रतिदिन इन दोनों को एक दूसरे के निकट आना पड़ा और आपस के मिलने की भावना को प्रचारित करने के लिए कुछ संत कवियों ने इस काल में जन्म लिया।
ऐसी परिस्थिति में देश के अंदर एक ‘सामान्य भक्ति मार्ग’ का विकास हुआ जिसमें हिंदू तथा मुसलमान दोनों ने ही सहयोग दिया। इस ‘सामान्य भक्ति मार्ग’ के विकास का मार्ग वीरगाथा-काल में ही सिद्ध और नाथपंथी योगी निर्धारित कर चुके थे; परंतु उस काल में उसे देश की अव्यवस्थित राजनीति होने के कारण कोई व्यवस्थित रूपरेखा नहीं दी जा सकी थी सिद्ध और नाथ योगियों के मत से वेद, शास्त्र, पूजा, अर्चना, सब व्यर्थ था; ईश्वर को वह घट घट में मानते थे। हिंदू और मुसलमान इनके निकट एक थे और वह जाति-पाँति के भेद-भाव में विश्वास नहीं रखते थे। इसी समय दक्षिण से आने वाली शक्ति की लहर ने भी हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतिपादन किया और (संवत्1328-1408) महाराष्ट्र के प्रसिद्ध भक्त नामदेव ने भी इसी मत का प्रचार किया।
हिंदी-साहित्य में इस विचार को लेकर एक युग का निर्माण करने वाला व्यक्ति संत कबीर था। कबीर ने एक ओर तो निराकार ब्रह्म के निरूपण में भारतीय वेदांत को अपनाया और दूसरी ओर भक्ति के क्षेत्र में प्रेम-तत्त्व का निरूपण करने के लिए सूफी सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। नाथपंथियों के नीरस उपदेशों से शुष्क पड़े जनता के हृदयों में कबीर ने सूफी प्रेम-भावना का स्रोत बहाकर उन्हें परिप्लावित कर दिया। कबीर ने अपनी कविता में मानवता के महान् आदर्शों का निरूपण किया और जनता के हृदयों से जातीयता की संकुचित भावना को नष्ट करके प्रेम-भावना भरने का भरसक प्रयत्न किया।
कबीर तथा अन्य निर्गुण-पंथी संतों ने भक्ति तथा योग का संयोग करके कर्म के क्षेत्र में नाथपंथियों के ही सिद्धांतों को अपनाया। संतों के लिए ईश्वर का स्वरूप ज्ञान और प्रेम तक ही सीमित रहा। धर्म के क्षेत्र में वह पदार्पण नहीं कर सके। ईश्वर के जिस धर्म-स्वरूप को लेकर लोकरंजन की महान भावना के साथ रामभक्ति शाखा का निर्माण गोस्वामी तुलसीदास जी ने किया उसका संत-साहित्य में सर्वथा अभाव ही बना रहा।
संत कबीर का एकेश्वरवाद इस प्रकार एक अनिश्चित रूप को लेकर खड़ा हुआ, जिसमें कभी ब्रह्मवाद की झलक दिखाई देने लगती है और कभी पैगंबरों को खुदाबाद की। संत कबीर का यह पंथ निर्गुण-पंथ कहलाया। इस पंथ में जो प्रधान प्रगति पाई जाती है वह है एकता की भावना, जाति-भेद, समाज-भेद, स्थान-भेद और काल-भेद रहित। निर्गुण पंथ में हिंदू और मुसलमानों ने समान रूप से आस्था रखी है। ‘राम रहीम’ की एकता का वर्णन संत कवियों ने उन्मुक्त कण्ठ से किया है।
संत कवियों की वाणी इतनी स्पष्ट नहीं है जितनी कि वैष्णव कवियों की कविता में मिलती है। इसका प्रथम कारण यही है कि वह लोग ज्ञान और प्रेम को मिलाकर जो विचार प्रकट करते थे उसे अटपटी भाषा में कहना उनके लिए कठिन हो जाता था। इस मत के प्रतिपादकों में विद्वत्ता का अभाव रहा है इस-लिए साहित्यिक दृष्टि से उसमें उतना सौंदर्य नहीं आ पाया है जितनी विचारों की गहनता। संत कबीर ने रूपकों और अन्योक्तियों द्वारा अपने भावों का प्रदर्शन किया है। और कहीं-कहीं पर भाव इतने गहन हो गए हैं कि उनका सही अर्थ लगान भी कठिन हो जाता है।
कबीर, रैदास, धर्मदास, गुरु नानक, दादू दयाल, सुंदरदास, मलूकदास इत्यादि इस धारा के प्रधान कवि हैं।