स्वाधीनता और देश–प्रेम को मुंशी जी ने अपने साहित्य में सर्वोच्च स्थान प्रदान किया है। ‘सोज़े वतन’ में संगृहीत ‘दुनिया का सबसे अनमोल रत्न’ शीर्षक अपनी बहुचर्चित कहानी में उन्होंने लिखा है-“खून का वह आखिरी कतरा जो वतन की हिफाजत में गिरे, दुनिया की सबसे अनमोल चीज है।“
कथा शिल्पी मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई, 1880 को बनारस जिले के लमही गाँव में हुआ था। उनके पिता मुंशी अजायबलाल ने प्रेमचंद का नाम बचपन में धनपतराय रखा था। घर में प्यार से सभी लोग नवाबराय कहते थे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा गोरखपुर व बनारस में हुई थी। वह सन् 1902 में इलाहाबाद ट्रेनिंग कालेज में भरती हुए और 1904 में प्रथम श्रेणी में जे.टी.सी. की परीक्षा पास की। अपनी प्रतिभा के आधार पर मॉडल स्कूल में हेडमास्टर पद पर उन्हें नियुक्ति मिली थी। वर्ष 1905 में कानपुर में स्थानांतरण पर आए थे। यहाँ उनका सम्पर्क मुंशी दयानारायण निगम से हुआ जो उर्दू की सुप्रसिद्ध पत्रिका “जमाना” के संपादक थे। कानपुर प्रवास के दौरान उनकी साहित्यिक प्रतिभा में निखार और परिपक्वता आ चुकी थी।
वर्ष 1908 में मुंशी प्रेमचंद की पदोन्नति हमीरपुर जिले के प्राथमिक शिक्षा विभाग में डिप्टी इंस्पेक्टर पद पर हुई थी। अपनी इस सरकारी सेवावधि में बुंदेलखंड क्षेत्र के उपेक्षित, शोषित, ग्रामीण जन-जीवन को नजदीक से देखने-समझने का उन्हें भरपूर अवसर प्राप्त हुआ। हमीरपुर जिले में लगभग 6 वर्ष तक सरकारी सेवा के दौरान विद्यार्थियों के निरीक्षण हेतु ग्रामीण क्षेत्रों का दौरा करते समय उन्होंने असली भारत के दर्शन किए थे। अपनी साहित्यिक प्रतिभा और अनुभव के आधार पर साहित्य और लेखन के क्षेत्र में उन्होंने नए प्रतिमान स्थापित किए थे। ‘रानी सारन्धा’, ‘राजा हरदौल’, ‘विक्रमादित्य का तेग’ जैसी सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ उनके द्वारा यहीं लिखी गई थीं। मुंशी जी की अमर और यादगार कहानियों की श्रेणी में गिनी जाने वाली कहानी ‘आत्माराम’ स्थानीय विकासखंड के बेचों ग्राम के महादेव सुनार से संबंधित है, जो एक तोते पर आधारित है।
हमीरपुर प्रवास में मुंशी प्रेमचंद ने देश प्रेम, राष्ट्रीय भावनाओं, दासता के विरुद्ध संघर्ष के साथ-साथ परतंत्र भारत की व्यथा को भी साहित्य और कहानियों में प्रमुखता से उजागर किया है। ब्रिटिश सरकार की सेवा में रहते हुए भी साम्राज्यवादी शासकों के विरुद्ध उन्होंने लेखनी को तलवार का रूप देकर तीखे वार किए। डिप्टी इंस्पेक्टर की नौकरी पर रहते हुए ‘सोजे-वतन’ नामक कहानी संग्रह प्रकाशित कराया। ‘सोजे वतन’ का अर्थ है-देश का दर्द। इस कहानी संग्रह में पाँच कहानियाँ थीं –
दुनिया का सबसे अनमोल रतन,
शेख मखमूर,
यही मेरा वतन है,
शोक का पुरस्कार,
सांसारिक प्रेम
नामक यह पाँचों कहानियाँ उर्दू भाषा में थी। सरकारी नौकरी की बंदिशों के कारण मुंशी जी उर्दू में अपने बचपन के नाम नवाबराय के नाम से ही कहानियाँ लिखते थे। इसी नाम से वह पत्र व्यवहार आदि करते थे।
राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत ‘सोजे वतन’ कहानी संग्रह में पराधीनता की विवशता और देश-प्रेम का संदेश निहित था। उनकी इन कहानियों को ब्रिटिश सरकार के प्रति भड़काने वाली कार्यवाही के रूप में माना गया। हमीरपुर के तत्कालीन कलेक्टर ने उपजिलाधीश व खुफिया पुलिस के माध्यम से नवाबराय की खोज कराई। खुफिया पुलिस ने लंबी छान बीन कर पता लगा लिया कि आखिर यह नवाबराय कौन हैं।
तत्कालीन कलेक्टर साहब उन दिनों हमीरपुर जिले की कुलपहाड़ तहसील के दौरे पर थे। उन्होंने खुफिया पुलिस से सटीक खबर मिलते ही मुंशी जी को तुरंत अपने सामने हाजिर करने का हुक्म दिया। मुंशी जी रातोंरात बैलगाड़ी पर सवार होकर कुलपहाड़ तहसील पहुँचकर कलेक्टर साहब के सामने पेश हुए। जिले के कलेक्टर ने मुंशी जी से इन कहानियों के संबंध में लंबी पूछताछ की।
खुफिया विभाग की पक्की खोज खबर और सही रिपोर्ट के आगे मुंशी जी के सामने कोई चारा नहीं था। उन्होंने नवाबराय के नाम से स्वयं को इन कहानियों का लेखक होना और ‘सोजे वतन’ को प्रकाशित कराने की बात स्वीकार कर ली। गुस्से से तिलमिलाए कलेक्टर ने उनको चेतावनी देते हुए कहा कि खैर मनाओ कि अंग्रेज अमलदारी में हो, सल्तनत मुगलिया का जमाना नहीं है, वरना तुम्हारे हाथ काट लिए जाते। तुम बगावत फैला रहे हो। उन्होंने उनके यहाँ से ‘सोजे वतन’ की करीब 500 पुस्तकें जब्त कराकर उन्हें जनता के सामने खुले आम जलवा दिया। कलेक्टर ने मुंशी जी को सख्त हिदायत दी और कहा कि आगे से अपनी कोई भी रचना छपवाने से पहले मुझे अवश्य दिखा लिया करें। कलेक्टर की फटकार से उनका अंतर्मन व्यथित तो हुआ परंतु उन्हें अपने लेखन कार्य से विचलित नहीं कर पाया। उन्होंने अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा कि यह साहित्य लिखना पढ़ना तो मेरा रोज का धंधा ठहरा। हर माह एक मजमून (विषय) कलेक्टर साहब की खिदमत में पहुँचेगा तो वे समझेंगे कि मैं अपनी सरकारी नौकरी के काम में खयानत (सही से काम नहीं करना) कर रहा हूँ। वे मुझ पर काम का और बोझ डालेंगे। इसलिए ‘नवावराय’ मरहूम हुए, उनके जानशीन कोई और साहब होंगे।
‘सोजे वतन’ की भूमिका में अपने नवाबराय नाम से मुंशी जी ने लिखा है कि “हरेक कौम का इल्म-ओ-अदब अपने जमाने की सच्ची तस्वीर होता है, जो ख्यालात कौम के दिमागों को मतहर्रिक (सक्रिय) करते हैं और जो जज्बात कौम के दिलों में गूँजते हैं, वो नज्म-ओ-नस्र (गद्य-पद्य) के सफों में ऐसी सफाई से नजर आते हैं जैसे आईने में सूरत।” हिन्दुस्तान के कौमी ख्याल ने बलोगीयत (बालिकपन, बुद्धिमत्ता) जीने पर एक कदम और बढ़ाया है और हुब्बे वतन के जज्बात लोगों के दिलों में उभरने लगे हैं। क्यूँकर मुमकिन था कि इसका असर अदब पर न पड़ता। ये चंद कहानियाँ इसी असर का आगाज (प्रारम्भ) हैं और यकीन है कि जूं-जूं हमारे ख्याल वसीह (विस्तृत) होते जाएँगे, इसी रंग के लिट्रेचर को रोज अफजो (प्रतिदिन बढ़ना) फरोग (उन्नत) होता जाएगा। हमारे मुल्क को ऐसी किताबों की अशद (सख्त) जरूरत है, जो नई नस्ल के जिगर पर हुब्बे वतन (देशप्रेम) की अजमत (महिमा) का नक्शा जमाएँ।
मुंशी जी ने सरस्वती पत्रिका में ‘सोजे वतन’ किताब का रिव्यू प्रकाशित करने के लिए 20 सितम्बर, 1908 को पत्रिका के संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को एक पत्र लिखा था। उन्होंने अपने पत्र में स्पष्ट तौर पर लिखा था कि किताब नफा-ए-आम (जनहित) में लिखी गई है। इस लिहाज से कीमत भी रखी गई है। जाती (निजी) नफा मक्सद (उद्देश्य) नहीं है।
शोषणमुक्त समतामूलक समाज की स्थापना के वह पक्के हिमायती थे। सामाजिक अभियान के इस संघर्ष की वाणी प्रदान करने में ही वे साहित्य सार्थकता समझते थे। ‘कहानी कला’ शीर्षक निबंध में उन्होंने लिखा “शक्ति तो संघर्ष में है। हमारा मन सब बाधाओं को परास्त करके अपने स्वाभाविक कर्म को प्राप्त करने की सदैव चेष्टा करता रहता है। इसी संघर्ष से साहित्य की उत्पति होती है। शोषणवादी शक्तियों के विरुद्ध शोषित वर्ग अनवरत संघर्ष ही प्रेमचंद के साहित्य का मूल स्वर दृष्टिगत होता है।
हमीरपुर जनपद का ऐतिहासिक महोबा आल्हा ऊदल की शौर्य गाथाओं के लिए मशहूर है। बुंदेलखंड की इस वीरभूमि की कुलपहाड़ तहसील में ब्रिटिश कलेक्टर द्वारा ज़ब्त किए गए, ऐतिहासिक साहित्यिक दस्तावेज वा नाम है-सोजे वतन। इन जब्ती और किताबों को होली जलाने का परिणाम हुआ पिता अजायबलाल द्वारा का प्यार-दुलार से रखे गए नाम ‘नवाबराय का अन्त। बचपन का नाम धनपतराय, घर का प्यार-दुलार का नाम नवाबराय, कानपुर के प्रकाशित ‘जमाना’ के संपादक मुंशी दयानारायण निगम के सुझाव पर प्रेमचंद के रूप में तपकर निखरकर दुनिया के सामने आया। बुंदेलखंड के हमीरपुर जिले की इस घटना ने दुनिया को कहानी सम्राट और विश्व कथाशिल्पी मुंशी प्रेमचंद के रूप में नई पहचान दी। मुंशी प्रेमचंद के साहित्य में आदर्श के स्थान पर यथार्थवादी साहित्यिक यात्रा की शुरूआत भी यहीं से हुई थी, के जीवनपर्यन्त जारी रही।
हमीरपुर जिले में लगभग 6 वर्ष को लंबे सरकारी सेवा के बाद वर्ष 1914 में मुंशी जी का स्थानांतरण बस्ती जिले के लिए हो गया था। सरकारी नौकरी की व्यस्तताओं, विवशताओं और बाधाओं के फलस्वरूप उन्होंने वर्ष 1921 में सेवा से त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद बनारस में सरस्वती प्रेस की स्थापना कर लेखन व प्रकाशन कार्य में सक्रिय रूप से संलग्न हो गए। महान कथाशिल्पी, देश-प्रेमी और गरीबों, शोषितों का मसीहा 8 अक्टूबर 1936 को अपना पार्थिव शरीर त्यागकर इस संसार से विदा हो गए।
सौजन्य : डॉ. ए. एन, अग्निहोत्री