Sahityik Nibandh

पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता (लघु विचार)

prithviraj raaso ki pramanikata aur uske bare men hindi laghu nibandh

पृथ्वीराज रासो वीरगाथा-काल का उसी प्रकार प्रतिनिधि ग्रंथ है जिस प्रकार चंदबरदाई इस काल का प्रतिनिधि कवि। पृथ्वीराज रासो 69 समय (अध्याय) का एक बृहद ग्रंथ है। यह ग्रंथ दोहा, तोमर, त्रोटक तथा रोला इत्यादि आर्य-छंदों में लिखा हुआ है। इस ग्रंथ के लेखक के रूप में जिस कवि का नाम आता है वह महाकवि चंदबरदाई ही है; परंतु इस विषय में बहुत से मतभेद भी हैं। पहले हम ग्रंथ की विवेचना करके फिर उसकी प्रामाणिकता अथवा अप्रामाणिकता पर विचार करेंगे।

इस ग्रंथ में आद्योपांत कवि द्वारा महाराज पृथ्वीराज के यश का ज्ञान किया गया है। यह इस काल के ग्रंथ के लिए कोई नई बात नहीं थी। किसी-न-किसी का यह वर्णन होना तो उसमें आवश्यक भी था और फिर इसमें तो हिंदुत्व के उस काल के प्रतीक का चरित्र चित्रण था, फिर क्यों न यह हिंदू जनता में प्रसिद्धि पाता? कल्पना की उड़ानों के साथ-साथ उक्तियों और अलंकारों का इस ग्रंथ में विशेष प्रयोग किया गया है। अनेकों स्थलों पर युद्ध-कला का बहुत सजीव चित्रण मिलता है तथा वीर और वीभत्स का बहुत सुंदर प्रवाह इस पुस्तक में है।

समस्त ग्रंथ पढ़ने पर यह ज्ञात होता है कि यह ग्रंथ एक ही काल नहीं लिखा गया। इसकी भाषा में भी स्थान-स्थान पर बहुत अंतर है। कहीं पर विशुद्ध संस्कृति-गर्भित हो जाती है तो कहीं पर उसमें ग्रामीणता आ जाती है, कहीं पर उर्दू का-सा ठाठ दिखलाई देने लगता है तो कहीं पर कबीरकालीन शब्दावली मिल जाती है।

इस ग्रंथ की प्रामाणिकता अथवा अप्रामाणिकता एक ऐसा विषय है जिस पर हिंदी के विद्वानों में सर्वदा से मतभेद रहता चला आया है। दोनों ही पक्ष में टक्कर के विद्वान हैं, इसलिए हम दोनों ही मतों को यहाँ पर प्रकट करेंगे। पहला मत जो इस ग्रंथ को अप्रामाणिक मानता है उसे प्रतिपादित करने वाले प्रधान व्यक्ति पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा, श्यामलदान और मुरारीदान हैं। यह अपने मत की पुष्टि में उसी काल के काश्मीरी कवि जयानक-रचित पुस्तक ‘पृथ्वीराज-विजय’ को प्रस्तुत करते हैं। इस पुस्तक के आधार पर यदि देखा जाए  तो चंद्रबरदाई उस काल के कवि ही नहीं ठहरते। जयराज ने अपने काल के सभी प्रसिद्ध कवियों का उल्लेख अपने ग्रंथ में किया है, परंतु उसमें कहीं पर भी राज कवि पृथ्वीराज का नाम नहीं आया। दूसरा प्रमाण जो वह देते हैं, वह यह है कि उस काल के शिला लेखों और दान पात्रों पर जो संवत् दिया है वह रासो के संवतों से मेल नहीं खाता। तीसरी बात जो रासो में लिखी है, कि पृथ्वीराज ने गौरी को सात बार रण में हराया, वह ऐतिहासिक सत्य नहीं है। चौथा प्रमाण इसकी भाषा है। ग्रंथ की भाषा स्थान-स्थान पर बदलकर ऐसी जान पड़ती है कि इस ग्रंथ की पूर्ति कई कालों में जाकर हुई और जब-जब यह लिखी गई उस काल की भाषा की छाप इसमें आ गई। पाँचवा प्रमाण जो पहलों से अधिक प्रबल है वह यह है कि इस ग्रंथ में चंगेज़ तथा तैमूर के भी नाम आते हैं और यह लोग भारत में इस काल के पश्चात् आए हैं। छठा प्रमाण यह है कि ‘पृथ्वीराज-विजय’ के आधार पर संयोगिता-हरण और पृथ्वीराज का अपने नाना की गोद जाना दोनों ही बातें असत्य हैं। सातवाँ प्रमाण यह है कि हाँसी के शिलालेख और ‘पृथ्वीराज-विजय’ के अनुसार पृथ्वीराज की माता का नाम कर्पूर देवी है। यह बात रासो द्वारा प्रतिपादित नहीं होती।

जिस प्रकार अप्रामाणिक मानने वाले विद्वान् तर्क देते हैं, उसी प्रकार प्रामाणिक मानने वाले भी उनके पीछे नहीं हैं। इस ग्रंथ की प्रामाणिकता सिद्ध करने वाले प्रधान व्यक्ति हैं पंडित मोहनलाल विष्णुलाल जी, मिश्रबंधु और बाबू श्यामसुंदरदास जी। इनका मत है कि यह ग्रंथ पूर्णरूप से प्रामाणिक है। हाँ, इतना अवश्य है कि अधिक पुराना होने के कारण साहित्य-प्रेमियों द्वारा गाया जाने के कारण, इसकी भाषा में कुछ अंतर अवश्य आ गया है। कश्मीरी कवि जयानक ने अपने ग्रंथ ‘पृथ्वीराज-विजय’ में जो चंदबरदाई के विषय में कुछ नहीं लिखा इसका कारण कलाकारों का आपस का द्वेष हो सकता है। संवतों के अंतर के विषय में मोहनलाल विष्णुलाल जी कहते हैं कि अंतर सब संवतों में 90 वर्ष का है और प्रत्येक स्थान पर यह अंतर निश्चित होने से यह सिद्ध होता है कि कवि ने इसे जान-बूझ कर रखा है। नंद वंशीय शूद्र राजाओं का 90 वर्ष का काल कवि ने अपने संवतों में नहीं गिना। मिश्रबंधु कहते हैं, शाहबुद्दीन गौरी का सात बार हराया जाना, मुसलमान इतिहासज्ञों द्वारा स्वीकार न करना उनकी कमजोरी है। बाबू श्यामसुंदरदास जी चंद को पृथ्वीराज का समकालीन मानते हैं, परंतु उनका यह मत है कि इस ग्रंथ का अंश प्रक्षिप्त अवश्य है; कितना है, इसका आज निर्णय करना कठिन है। फ़ारसी शब्दों के विषय में ओझा जी की शंका का समाधान मिश्रबंधु इस प्रकार करते हैं कि मुसलमान यहाँ पहले से ही आए हुए थे और चंद क्योंकि लाहौर के निवासी थे इसलिए उनकी भाषा पर उनका प्रभाव पड़ा।

इस प्रकार दोनों ही मत प्रबल हैं। पृथ्वीराज रासो इस काल की ही नहीं, हिंदी साहित्य की एक अनुपम कृति है, जिस पर साहित्य को गर्व है और रहेगा।

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