संकेत बिंदु-(1) साहित्य में राष्ट्र-निर्देशन की शक्ति (2) परतंत्रता में साहित्यकार की भूमिका (3) स्वतंत्रता आंदोलन को तीव्र करने में (4) अखंडता, सुरक्षा और सुख-शांति की स्थापना में (5) उपसंहार।
भूमि, जन और जन की संस्कृति के समन्वित रूप को राष्ट्र कहते हैं। प्रत्येक नागरिक पर राष्ट्र के प्रति तीन प्रकार के ऋण हैं-देवऋण, पितृऋण तथा ऋषिऋण। साहित्यकार जहाँ साधारण नागरिक की स्थिति में देवऋण तथा पितृऋण चुकाने का प्रयास करता है, वहाँ वह साहित्य-सर्जन करके ऋषि-ऋण भी चुकाता है। अतः राष्ट्र-निर्माण में साहित्य का योगदान शाश्वत प्रक्रिया है, ध्रुव सत्य है।
साहित्य में राष्ट्र के मार्ग निर्देशन की अद्भुत शक्ति है, इस तथ्य को प्रमाणित करने वाले उदाहरणों से इतिहास भरा हुआ है। साहित्य ने पोप की प्रभुता को कम किया, फ्रांस में प्रजा की सत्ता का उदय और उन्नयन क्रिया, पदाक्रांत इटली का मस्तक ऊँचा उठाया, परतंत्र भारत में स्वतंत्रता के लिए मर मिटने की अग्नि प्रज्ज्वलित की। इतना ही नहीं, स्वाधीन राष्ट्र के पुनर्निर्माण में शासकों को परामर्श दिया और सचेत किया।
परतंत्र भारत का साहित्यकार विदेशी चाबुक की मार से चौंक उठा। उसने अपने साहित्य को राष्ट्र देवता के चरणों में श्रद्धांजलि रूप में अर्पित कर दिया। भारत के ‘इंदु’ हरिश्चन्द्र की वाणी से जो साहित्य-रूपी सुरसरि प्रवाहित हुई, वह जयशंकरप्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, सुभद्राकुमारी चौहान, माखनलाल चतुर्वेदी, रामधारीसिंह ‘दिनकर’, प्रेमचंद, यशपाल, अमृतलाल नागर, फणीश्वरनाथ ‘रेणु’, राहुल सांकृत्यायन, अज्ञेय, धर्मवीर’ भारती’ रूपी धाराओं में प्रवाहित होती हुई आज भी भारत-राष्ट्र को सिंचित और पल्लवित कर रही है।
‘हा हा! भारत-दुर्दशा न देखी जाई ‘कहकर भारतेंदु रो पड़े और उन्होंने अंग्रेजों की लूट पर भारतवासियों को सचेत किया।
भीतर भीतर सब रस चूसे हँसि हँसि के तन-मन धन मूसे।
जाहिर बातिन में अति तेज, क्यों सखि साजन, नहिं अंग्रेज॥
इसी प्रकार माखनलाल चतुर्वेदी नवयुवकों को स्वतंत्रता के लिए बलिदान की प्रेरणा देते हुए कहते हैं-
मुझे तोड़ लेना वनमाली! उस पथ पर देना तुम फेंक।
मातृ-भूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक॥
बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ का हृदय क्रांति का आह्वान करते हुए चीख उठता है-कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाए।
देश-स्वातंत्र्य के पश्चात् देश की राजनीति पर निरंतर छाते फैलते कुहरे को देखकर राष्ट्र का साहित्यकार चुप न बैठ सका। वह कहीं सपाट ढंग से और कहीं व्यंग्यात्मक शैली में राजनीतिज्ञों का मार्ग-दर्शन करने लगा। दिनकर सोमवलकर ने आज की राजनीति के तीन अभिशापों को किस प्रकार मार्मिक वाणी दी है-
पूछा एक टूरिस्ट ने
‘आपने क्या बनाया है सरकार।’
बोले-
‘तीन राष्ट्रीय उद्योग :
भाषण, भूख, भ्रष्टाचार।
दूसरी ओर, धार्मिक सहिष्णुता से देश की अखंडता, सुरक्षा, सुख-शांति के साथ सत्य की प्रतिष्ठापना के लिए भारतीय साहित्यकार एक हजार वर्ष से सतत प्रयत्नशील है। कबीर का सांप्रदायिक सद्भाव आज भी हिंदु-मुस्लिम एकता का संदेश दे रहा है। उन्होंने जिस मानवीय एकता का प्रचार किया, वह स्वतंत्रता आंदोलन के कर्णधारों का संबल बना। कबीर के ये शब्द कितने प्रेरणास्पद हैं-
हिंदू-तुरुक की एक राह है, सतगुरु इहै बताई।
कहै कबीर सुनो हे समधो, राम न कहेउ खुदाई।
तुलसीदास ने रामचरितमानस के माध्यम से जाति, वर्ण, भाषा एवं मत-मतांतरों के भेद को समाप्त कर हिंदू धर्म में समन्वय को विराट् चेष्टा की और धर्म का आदर्श रूप प्रस्तुत किया। रामचरितमानस न केवल हिंदी-साहित्य के लिए गौरव-ग्रंथ है, अपितु वह धर्म के क्षेत्र में महान् क्रांतिकारी पुस्तक भी है।
मुंशी प्रेमचंद, वैद्य गुरुदत्त, सुदर्शन, यशपाल, धर्मवीर ‘भारती’ के कथा-साहित्य ने धर्माडंबरों पर कुल्हाड़ा चलाया है, तो उपेन्द्रनाथ ‘ अश्क’, रामकुमार वर्मा, लक्ष्मीनारायण मिश्र, जयशंकर प्रसाद, जगदीशचंद्र माथुर, लक्ष्मीनारायण लाल आदि के नाटकों ने धर्म का सत्य रूप प्रस्तुत किया है।
सामाजिक विषमता, विपन्नता, परस्पर द्वेष-घृणा आदि समाज को पतन की ओर ले जाने वाले हैं, राष्ट्र-निर्माण में बाधक हैं। समाज में व्याप्त आडंबरों को देखकर ‘दिनकर’ का दिल दहल उठा। वे चीत्कार कर उठे-
क्रांति-धात्रि कवित्ते ! जाग उठ, आडंबर में आग लगा दे।
पतन, पाप, पाखंड जले, जग में ऐसी ज्वाला सुलगा दे॥
बढ़ते वेतन भी चढ़ती महँगाई का सामना नहीं कर पा रहे, इसके दर्द की पुकार करते हुए चिरंजीत लिखते हैं-
वेतन भत्ते से अधिक महँगाई उत्थान,
लो कलयुग में पिट गया
सुरसा से हनुमान।
इस प्रकार समय-समय पर राष्ट्र की माँग के अनुसार राष्ट्र का साहित्यकार अपनी कृतियों से राष्ट्र के निर्माण में सदा योगदान देता रहा है, दे रहा है और देता रहेगा।