साहित्यकार साहित्य की रचना करते समय उसमें मानव जीवन का चित्रण करने की ओर सर्वाधिक ध्यान देता है। अतः यह स्पष्ट है कि अपनी रचना को स्वाभाविक रखने के लिए वह उसमें जीवन के वास्तविक और आदर्शात्मक, दोनों ही रूपों को यथास्थान ग्रहण करता है। जीवन की वास्तविकता साहित्य में यथार्थवाद के रूप में उभरकर आती है और उसके आदर्श रूप को आदर्शवाद कहा जाता है। जीवन के इन दोनों सिद्धांतों में महान् अंतर है। जहाँ यथार्थवादी साहित्यकार जीवन के किसी भी पक्ष को न छिपाकर उसे ज्यों का त्यों अभिव्यक्त कर देता है वहाँ आदर्शवादी लेखक उसके प्रभावों को निरंतर पूर्णता की ओर ले जाने का प्रयास करता है। प्रत्येक व्यक्ति के समक्ष पहले जीवन का यथार्थ स्वरूप आता है और उसके उपरांत वह उसकी आदर्श रूपरेखा को तैयार करता है। अतः साहित्य में भी प्रायः यथार्थ का किसी न किसी रूप में चित्रण करने के अनन्तर ही साहित्यकार उसे आदर्श के रूप में उभारकर लाता है।
साहित्य का समाज से घनिष्ठ संबंध होता है। इस कारण उसमें समाज को अवनति की ओर ले जाने वाले विषयों का चित्रण कभी भी अपेक्षित नहीं होता। यथार्थवाद और आदर्शवाद की उपयोगिताओं को आँकने के लिए हमें इस बात को निरंतर ध्यान में रखना होगा। इस दृष्टि से यथार्थवादी साहित्य में जीवन की यथार्थता को अपूर्ण रूप में चित्रित नहीं किया जाना चाहिए। मानव का स्वभाव है कि वह अच्छाई की अपेक्षा बुराई की ओर अधिक शीघ्रता से दौड़ता है। इस कारण यथार्थवाद से अनुप्राणित साहित्य अधिकांश पाठकों को प्रारंभ में शिक्षा देने के स्थान पर उन्हें उस प्रकार के कार्यों में भाग लेने की प्रेरणा ही प्रदान करता है। इस स्थान पर यह स्मरणीय है कि उग्रता और तीखेपन से युक्त होने के साथ-साथ जब साहित्य किसी विशेष जीवन-धारा के प्रत्येक पहलू को खोलकर सामने रख देता है तब पाठक अनिवार्य रूप से उसके विषय में विचार करता है। वह उसे केवल तभी ग्रहण करता है जब उसके द्वारा उसे अपने जीवन में किसी विशेष लक्ष्य की सिद्धि की आशा होती है अन्यथा वह साहित्य में चित्रित उस विशेष जीवन क्रम से उदासीन हो जाता है।
यथार्थवाद की भाँति साहित्य में आदर्शवाद के चित्रण की भी कुछ परिसीमाएँ होती है। आदर्शवादी साहित्य देश विशेष की संस्कृति पर आधारित रहता है। प्रत्येक देश की संस्कृति में कुछ न कुछ मौलिक अंतर होता है। अंतः उनके आदर्श भी किसी न किसी रूप में भिन्न हुआ करते हैं। भारतवर्ष अध्यात्म प्रधान देश है। यहाँ की जनता नैतिकता और ईश्वर भक्ति में विशेष रुचि रखती है। ये दोनों भावनाएँ जीवन को शांति की ओर ले जाने वाली है। अत: भारतीय साहित्य में आदर्शवाद का मुख्य लक्ष्य मानव- जीवन को शांति की ओर उन्मुख करना रहा है। इस स्थान पर यह स्मरणीय है कि अपने अहंकार के कारण प्राय: मनुष्य उपदेशों की ओर अधिक रुचि नहीं रखता है। इस कारण आदर्शवादी साहित्य में उपदेश देने की प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिए। लेखक को आदर्शो की ओर संकेत मात्र करना चाहिए। इतने ही से मर्मज्ञ पाठकों को उसके उद्देश्य का पता चल जाएगा।
इस स्थान पर यह प्रश्न उठता है कि जब मनुष्य अपने जीवन में आदर्शो के संचार को ही सफलता का मूल तत्त्व मानता है तब साहित्य में यथार्थवाद की आवश्यकता ही क्या है? साधारणतः यथार्थवादी साहित्य में स्थूलता का आग्रह इतना प्रबल हो जाता है कि वह कुत्सित रुचि के पाठकों को ही परितृप्ति प्रदान करता है। वस्तुतः यथार्थवाद का चित्रण करते समय लेखक को स्थूलता में सूक्ष्मता का संचार करने का प्रयत्न करना चाहिए। ऐसा होने पर ही वह साहित्य में अधिक आदर प्राप्त कर सकता है। इतना होने पर भी हम साहित्य से यथार्थवाद का बहिष्कार नहीं कर सकते। इसका कारण स्पष्ट है। उसके बहिष्कार से आदर्शवाद के स्वरूप में भी शिथिलता आने की संभावना हो जाएगी। सत्य तो यह है कि साहित्य में आदर्शवाद को इतना महत्त्व इसीलिए प्रदान किया जाता है कि वह यथार्थ की उग्रता का विरोध करता है। अतः मानव-भावनाओं में सामंजस्य स्थापित रखने के लिए साहित्य में इन दोनों की स्थिति आवश्यक है।
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि साहित्य में आदर्शवाद और यथार्थवाद एक दूसरे पर आधारित हैं। एक के प्रभाव में दूसरे का उपयुक्त विकास हो सकेगा, इस विषय में तुरंत ही शंका उठ खड़ी होती है। आईसु स्थिति में रचना कार्य की सरलता के लिए साहित्यकारों ने ऐसी एक मध्यम मार्ग खोज निकाला है। इसे आदर्शोन्मुख यथार्थवाद कहा जाता है। इसके अनुसार साहित्य में आदर्शवाद और यथार्थवाद को मिलाकर उपस्थित किया जाता है अर्थात् साहित्यकार जीवन की यथार्थता को आदर्श रूप में उपस्थित करता है। ऐसा करते समय वह न तो यथार्थ की हो उपेक्षा करता है और न आदर्श की ओर ही आवश्यकता से अधिक ध्यान देता है। इस प्रणाली को अपनाने से साहित्यकार हमारे समक्ष अपने विचारों को पूर्णतः संतुलित रीति से उपस्थित कर सकता है।
साहित्य में आदर्शवाद अथवा यथार्थवाद को उपस्थित करने के लिए किसी भी युग की विचारधारा को अपनाया जा सकता है। लेखक अपनी इच्छा है। के अनुसार किसी भी युग के विचारों को उपस्थित कर सकता है। इन दोनों सिद्धांतों की योजना करते समय उसे हृदय और बुद्धि, दोनों पर समान रूप से ध्यान देना होता है अर्थात् उसे भावना और विचार, दोनों को ग्रहण करना होता है। सामान्यतः किसी भी सिद्धांत का संबंध विचार से होता है, किंतु आदर्शवाद और यथार्थवाद की ओर जनता का ध्यान आकृष्ट करने के लिए उनमें मधुर भावनाओं का भी समावेश किया जाता है। इसके लिए इन दोनों को ही स्पष्ट करते समय लेखक आवश्यकता के अनुसार छोटी-छोटी कथाओं का उपयोग कर सकता है। आदर्शवाद की रक्षा के लिए भारतीय साहित्य में प्राप्त होने वाली पुराणों की कहानियाँ इसी प्रकार की है।
हिंदी – साहित्य में स्थिति
आदर्श और यथार्थ की स्थिति प्रत्येक साहित्य में रहती है और युग की प्रवृत्तियों के अनुसार ये क्रमशः मुख्य होते रहते हैं। जब किसी साहित्य में आदर्शवादी विचार प्रमुख होने लगते है तब वहाँ कुछ समय के लिए यथार्थवाद अपना स्थान बना लेता है। इसके उपरांत आदर्शवाद फिर से अपना स्थान बना लेता है। इन दोनों के मध्य में आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की धारा भी निरन्तर चलती रहती है। हिंदी – साहित्य में भी हमें ये तीनों ही स्थितियाँ प्राप्त होती हैं। इस दृष्टि से वीरगाथा -काल में हमें यथार्थ को बढ़ा-चढ़ाकर कहने की प्रवृत्ति प्राप्त होती है। इस युग के कवियों ने अपने आश्रयदाता नरेशों की वीरता का वर्णन करने में सत्य और कृत्रिमता, दोनों का आश्रय लिया है। इसके उपरांत भक्ति काल में आदर्शवाद को मुख्य स्थान प्राप्त हुत्रा है। इस युग के कवियों ने भक्ति और नीति के क्षेत्रों में आदर्श विचारों को उपस्थित किया है। यह भक्ति उस समय की यथार्थता भी थी। अतः यह स्पष्ट है कि हिंदी साहित्य के प्रारम्भिक दो युगों में आदर्शवाद को ही मुख्य स्थान प्राप्त हुआ, किंतु यथार्थ की पूर्ण उपेक्षा किसी भी युग में नहीं हुई। इनमें से भक्ति काल के आदर्श वीरगाथा – काल के आदर्शों से अधिक श्रेष्ठ हैं।
हिंदी साहित्य के रीति-काल में आदर्शवाद के स्थान पर यथार्थवाद को मुख्य स्थान प्राप्त हुआ है। इस युग के कवियों ने राधा और कृष्ण के चरित्रों को स्पष्ट करने के माध्यम से तत्कालीन स्थिति को ही अपने काव्य में व्यक्त किया है। उस समय शासन और जनता, दोनों ही विलासिता की ओर उन्मुख थे। अतः रीतिकालीन कवियों ने अधिकतर शृंगार रस को ही विभिन्न रूपों में उपस्थित किया है। इसके उपरांत आधुनिक काल के भारतेंदु युग में यथार्थ और आदर्श को समान रूप में उपस्थित किया जाता रहा। इस युग में धर्म, शासन और समान व्यवस्था आदि विभिन्न विषयों को साहित्य में स्थान प्राप्त हुप्रा। इस युग में आदर्शवाद यथार्थवादी विचारों के अंचल में पोषित होता रहा।
रीति काल के यथार्थवाद का विरोध करने के लिए द्विवेदी युग में आदर्शवाद को मुख्य स्थान प्राप्त हुप्रा। इस युग में कवियों ने साहित्य को सर्वत्र आदर्शों से युक्त रखा और कहीं-कहीं उनके प्रदर्श अत्यंत स्थूल भी हो गए। इस स्थूल आदर्शवादिता की प्रतिक्रिया के रूप में छायावाद का जन्म हुआ है। इस काव्यधारा में आदर्शवाद के सूक्ष्म रूप को मुख्य स्थान प्राप्त हुआ है। इस सूक्ष्मता के विरोध में इसके उपरांत प्रगतिवाद का आविर्भाव हुआ। इसके अंतर्गत भोजन और वस्त्र आदि की दैनिक जीवन की समस्याओं को लेकर उनका उग्र यथार्थवादी शैली में चित्रण किया गया। इस काल में यथार्थ की अभिव्यक्ति प्रमुखतम रही है। इसके उपरांत हिंदी में हालावाद और प्रयोगवाद के नाम से दो नवीन काव्य-धाराएँ आरंभ हुई। इन दोनों में भी यथार्थवाद और स्थूल की अभिव्यक्ति को मुख्य स्थान प्राप्त हुआ है। तथापि वर्तमान युग का हिंदी काव्य केवल यथार्थवादी नहीं है। इस समय का काव्य अनेक धाराओं में विभाजित है और उनमें से आदर्शवाद को स्थान देने वाले काव्य-विषय ही अधिक हैं। अंत में हम यह कह सकते हैं कि संतुलित दृष्टि से अध्ययन करने पर यथार्थवाद और आदर्शवाद, दोनों ही मानव जीवन के विकास में उपयोगी हो सकते हैं। इन चिन्ता – धाराओं के अपने गुण-दोष इतने नहीं हैं जितने अस्पष्ट प्रतिपादन और अपूर्ण अध्ययन के कारण वे प्रतीत होते हैं।
अंत में हम यही कहेंगे कि यथार्थ और आदर्श में परस्पर गहन संबंध है। जिस प्रकार यथार्थ के अभाव में आदर्श की आवश्यकता ही नहीं पड़ती उसी प्रकार आदर्श के अभाव में यथार्थ का स्वरूप भी निरंतर विकृत होता चला जाता है। यद्यपि यह सत्य है कि प्रत्येक युग और प्रत्येक देश में प्रदशों का स्वरूप बदल जाता है, तथापि साहित्य उनमें जीवन की एकता और सौंदर्य का संचार करने का निरंतर प्रयत्न करता रहता है।