संकेत बिंदु-(1) पाश्चात्य विद्वान सिसरो के अनुसार (2) यश और धन–प्राप्ति (3) लोक व्यवहार का ज्ञान (4) समाज को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा (5) उपसंहार।
ज्ञान-राशि के संचित कोष का नाम ही साहित्य है। दुख-दग्ध जगत और आनंदपूर्ण स्वर्ग का एकीकरण साहित्य है। प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का प्रतिबिंब होता है।
पाश्चात्य विद्वान् सिसरो का मत है कि ‘साहित्य का अध्ययन युवकों का पालन-पोषण करता है, वृद्धों का मनोरंजन करता है, उन्नति का शृंगार करता है। साहित्य विपत्ति में धीरज देता है, घर में प्रमुदित रखता है और बाहर विनीत बनाता है।’ मुंशी प्रेमचंद का मत है कि ‘जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें गति और शांति न पैदा हो, हमारा सौंदर्य-प्रेम न जागृत हो, जो हममें सच्चा संकल्प और कठिनाइयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता उत्पन्न न करे, वह साहित्य आज हमारे लिए बेकार है, वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं।
प्राचीन आचार्यों ने साहित्य के उद्देश्य की विस्तारपूर्वक चर्चा की है। इस संबंध में आचार्य मम्मट का कहना है कि काव्य अर्थात् साहित्य का प्रयोजन यश प्राप्ति, धन प्राप्ति, लोक-व्यवहार का ज्ञान, दुखों का नाश, अलौकिक आनंद की प्राप्ति तथा प्रिया के वचनों के समान मधुर-शैली में उपदेश देना है।
श्रेष्ठ साहित्यकार को अपने साहित्य के माध्यम से यश प्राप्त होता है। यश अजर और अमर होता है। नश्वर शरीर छोड़ने के बाद साहित्यिक कृतियाँ साहित्यकार के यश को अक्षुण्ण रखती हैं। अतः श्रेष्ठ साहित्यकार कभी मरता नहीं। सूर, तुलसी, निराला, पंत, प्रेमचंद, प्रसाद आदि इसके प्रमाण हैं।
साहित्य के लेखन, प्रकाशन एवं बिक्री पर साहित्यकार को धन प्राप्त होता है। कभी-कभी उत्कृष्ट साहित्यिक रचनाओं पर पुरस्कार भी मिलते हैं। अनेक प्रान्तीय सरकारें साहित्यकारों को हजारों / लाखों के पुरस्कार प्रदान करती हैं। भारतीय ज्ञानपीठ तो उत्कृष्ट साहित्यिक रचना पर डेढ़ लाख रुपये का पुरस्कार प्रदान करता है। सहस्रों साहित्यकार मसिजीवी हैं। वे कलम की कमाई से न केवल परिवार पालन ही करते हैं, अपितु ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं।
साहित्यकारों को राज्याश्रय की प्राप्ति रीतिकाल तक तो स्पष्टतः प्रचलित रही है, किंतु अब उसका रूप बदल गया है। भारत सरकार साहित्यकारों को पद्मश्री, पद्म विभूषण, पद्म भूषण आदि उपाधियों से सम्मानित करती है। प्रान्तीय सरकारें विधान परिषद् में तथा केंद्रीय सरकार राज्यसभा में साहित्यकारों को नामांकित करती हैं।
साहित्यकारों की वाणी लोक-व्यवहार का ज्ञान कराती है। रामचरितमानस को पढ़कर हम सहज ही सीख लेते हैं कि ‘हमें राम की तरह आचरण करना चाहिए, रावण की तरह नहीं।’ कामायनी पढ़कर इच्छा, क्रिया और ज्ञान के समन्वय में ही जीवन की सार्थकता का पता चलता है।
साहित्य-निर्माण करते हुए एवं उसका अध्ययन करते हुए भावनाएँ परिष्कृत होती हैं। इससे दुखों का नाश हो जाना स्वाभाविक है। सत् साहित्य का अध्ययन बुद्धि की कुँजी है, सम्मान का द्वार है, सुख का भंडार है और आनंद का कोष है। न केवल साहित्यनिर्माता को, अपितु सत्साहित्य के अध्ययन से पाठक को भी अद्वितीय आनंद की अनुभूति होती है।
साहित्य का महान् उद्देश्य समाज को कुमार्ग छोड़कर सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देना है। यह प्रेरणा वह गुरु की भाँति उपदेश द्वारा नहीं; अपितु प्रियतमा के समान मधुर शैली में करता है। कविवर बिहारी के एक ही दोहे ‘नहि पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल’ ने नवविवाहिता रानी के प्रेमपाश में बँधकर राजकाज से विमुख हुए जयपुर नरेश को राजकाज देखने के लिए प्रेरित कर दिया था। मुंशी प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों ने भारतीय जीवन में व्याप्त कुरीतियों, कुप्रथाओं, कुसंस्कारों का पर्दाफाश ही नहीं किया, अपितु समाज में उनके प्रति घृणा भी उत्पन्न की।
साहित्य समाज का दर्पण होता है। साहित्य की सरिता जब जनता के हर्ष-विषाद से तरंगित होगी, तभी जनता उसे गंगा की धारा मानकर उसमें अवगाहन करेगी, अन्यथा वह कर्मनाशा के तुल्य त्याज्य है। 1947 से पूर्व भारतीय साहित्यकारों ने अपनी लेखनी द्वारा परतंत्रता के विरुद्ध शंखनाद किया और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश की चहुँमुखी प्रगति के स्वर को बुलन्द करते हुए कहा-
गा कोकिल! बरसा पावक कण,
नष्ट भ्रष्ट हो जीर्ण पुरातन।
साहित्य एक कला है। ललित कलाओं में उसका स्थान सर्वोपरि है। इस कला से विहीन व्यक्ति बिना पूँछ और सींग के साक्षात् पशु है। कारण, साहित्य आत्माभिव्यक्ति का माध्यम है। समाज में आदर्श भावों को जगाने तथा पशु-वृत्तियों का दमन कर मानवता का विकास करने के विचार से प्रेरित होकर जिन रचनाओं की सृष्टि होती हैं, वे ही साहित्य की कोटि में आती हैं।
मानवता का हित चिंतन, राष्ट्रीयता का संरक्षण, जीवन की सद्गति, उदात्त भावनाओं का विकास तथा प्रचार-प्रसार साहित्यकार का कर्तव्य है और यही है साहित्य का उद्देश्य।