Sahityik Nibandh

काव्य की कसौटी क्या है?

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कोई काव्य हीन है अथवा उत्कृष्ट इसकी कसौटी काव्य के गुण और दोष हैं। इसलिए उस कसौटी का निर्णय करने से पूर्व यह आवश्यक है कि काव्य के उन गुण और दोषों का निर्णय किया जाए  कि जिनके आधार पर काव्य की हीनता और उत्कृष्टता निर्धारित करनी है। आज के समालोचक और प्राचीन विचारकों के मत में अनेकानेक दृष्टिकोणांतर हो गए हैं। प्राचीनतम विचारक अथवा यों कहिए कि काव्याचार्य अलंकार को काव्य की कसौटी मानते थे। इस विचार के प्रवर्तकों के रूप में हम मम्मटाचार्य और आचार्य उद्भट को ले सकते हैं। उस समय अलंकार के अंतर्गत केवल शब्दालंकार और अर्थालंकार ही नहीं आते थे वरन् काव्य के गुण, दोष, शैली इत्यादि सभी विचार इन चमत्कारवादी आचार्यों के विचार से अलंकार के ही अंतर्गत आ जाते थे।

धीरे-धीरे अलंकार का यह स्थूल विचार खंड-खंड होकर रसवाद, रीति-वाद, वक्रोक्तिवाद, ध्वनिवाद इत्यादि के क्षेत्र में अवतीर्ण हुआ और आगामी आचार्यों ने समय-समय पर अपने विचार प्रकट किए। इन सब वादों के आचार्यों ने अपने-अपने बाद को काव्य की कसौटी माना है। परंतु यदि हम विश्लेषणात्मक रूप से विचार करें तो उनमें से एक भी वाद काव्य की सर्वांगीणता के विचार से सुंदर काव्य की कसौटी नहीं बन सकता। यह सभी वाद काव्य के आंगिक निरीक्षण में ही सफल हो सकते हैं विषय की संपूर्ण रूप से विवेचना नहीं कर सकते। पंडितराज जगन्नाथ ने ‘रमणीय अर्थ’ वाले काव्य को सुंदर काव्य कहा है। विश्वनाथ ने ‘रस’ को काव्य की कसौटी माना है। आचार्य उद्भट ने ‘अलंकार’ को काव्य की आत्मा माना है। आचार्य कुन्तक के विचार से ‘वक्रोक्ति’ प्रधान काव्य सर्वोत्तम काव्य है। आचार्य वामन ने ‘रीति’ को ही काव्य का सर्वोत्तम गुण कहा है। इस प्रकार प्राचीनतावलम्बियों ने काव्य की यह पाँच कसौटियाँ निर्धारित की हैं। साहित्य के मर्मज्ञों ने इन्हीं पाँच विचारों के मताधीन ध्वनि-संप्रदाय, रस-संप्रदाय, अलंकार-संप्रदाय, वक्रोक्ति-संप्रदाय ओर रीति-संप्रदाय का निर्माण किया और यह पाँचों धाराएँ समय-समय पर अपनी-अपनी विशेषता के साथ हिंदी साहित्य में प्रवाहित होती आ रही हैं।

ऊपर दी गई पाँचों धाराओं के आचार्यों ने अपना मत निर्धारित करने में हठ से काम लिया है, समन्वय की भावना से नहीं। किसी भी विचार के निर्धारित करने में जब हठ से काम लिया जाएगा तो सत्य को तिलांजलि देनी होगी। यही कारण है कि किसी तथ्य-निरूपण में कभी भी हठ से काम नहीं लेना चाहिए। जब हम काव्य की कसौटी पर विचार करते हैं तो हमें विचारना चाहिए कि हमारा विचार किसी भी ऐसी वस्तु पर केंद्रित न हो कि जिसका संबंध काव्य के किसी आंशिक रूप से हो। आज का विचारक किसी गुण को काव्य की कसौटी न मानकर पाठक या रसिक हृदय काव्य के व्यक्ति के हृदय को काव्य की कसौटी मानता है। रसिक हृदय रचना पढ़कर एकदम कह सकता है कि अमुक काव्य किस श्रेणी का है? जो रचना पाठक के हृदय को जितने निकट से छूने में सफल होती है वह रचना उतनी ही श्रेष्ठ है। इस प्रकार सुसंस्कृत रसिक पाठक या श्रोता का हृदय ही उत्तम काव्य की कसौटी हुआ। सभी रसिक हृदय व्यक्तियों में अंतर होता है और फिर संसार के सभी व्यक्ति सुसंस्कृत या रसिक भी नहीं हो सकते। इसलिए वह कसौटी भी सबके लिए मान्य नहीं हो सकती।

वास्तव में काव्य के परखने के लिए किसी निश्चित कसौटी को निर्धारित करना एक समस्या है। काव्य समीक्षा के लिए किसी निश्चित सिद्धांत का निरूपण करना कठिन है। किसी भी काव्य को परखने के लिए ऊपर दिए गए वादों को भी ध्यान में रखना चाहिए। यह सत्य है कि उनमें से पूर्ण एक भी नहीं है परंतु आंशिक रूप से सभी का अच्छे साहित्य में किसी न किसी रूप में समावेश रहा है। रीति वक्रोक्ति और अलंकार यह काव्य के गुण और शैलियाँ भी कही जा सकती हैं। गुण और शैली दोनों का हो काव्य में महत्त्व है। जिस सीमा तक इनका काव्य में महत्त्व है, उसी सीमा तक यह काव्य की कसौटियाँ भी हैं। यह तीनों ही काव्य के गुण हैं, संपूर्ण काव्य के नहीं, किसी-किसी काव्य में इनमें से एक की प्रधानता भी हो सकती है और किसी में दो की।

‘रीति’, ‘वक्रोक्ति’ और ‘अलंकार’ के बाद रह जाते हैं ‘ध्वनि’ और ‘रस’। कुछ आचार्य ‘ध्वनि’ को काव्य मानते हैं और कुछ रस को परंतु हम इन पाँचों के समन्वय को काव्य कहते हैं। ‘ध्वनि’ और ‘रस’ काव्य के प्रधान गुण हैं जिन्हें कि आचार्य आत्मा कहकर पुकारते हैं। काव्य में भाव, विभाव और संचारी भाव, यह सभी खोजने पड़ते हैं परंतु यह आवश्यक नहीं कि अच्छे काव्य में यह सभी प्रचुर मात्रा में मिल सके। किसी काव्य में किसी विशेष गुण का आधिक्य होता है तो दूसरे में किसी दूसरे का।

ऊपर काव्य के अंतर्गत जिन-जिन तत्त्वों का हमने विवेचन किया है उनमें बौद्धिक तत्त्व पर विचार नहीं किया गया। आज के युग में मनोविज्ञान का स्थान साहित्य में प्रधान है। केवल रस और ध्वनि के आधार पर कोई साहित्य सर्वगुण संपन्न नहीं हो सकता। आज का समालोचक साहित्य के अन्य तत्त्वों पर विचार करने से पूर्व मनोवैज्ञानिक तत्त्व को खोजता है। ‘रस’ का संबंध हृदय से है। मनोविज्ञान का संबंध मस्तिष्क से है। इस प्रकार मानव में हृदय और मस्तिष्क यही दो वस्तु प्रधान प्रतीत होती हैं, जिनका साहित्य से संबंध है। किसी काव्य में हृदय तत्त्व की प्रधानता रहती है तो किसी में बुद्धि-तत्त्व की। दोनों ही प्रकार के उच्च कोटि के साहित्य हो सकते हैं हिंदी के भक्ति-साहित्य में हृदय-पक्ष प्रधान है तो संत साहित्य में बुद्धि-पक्ष। जिस साहित्य में दोनों पक्षों का सामंजस्य हो वह सबसे सुंदर काव्य हो सकता है। इस प्रकार हमने काव्य का विवेचन करके उसके पाँच वादों पर विचार किया और अंत में काव्य के हृदय-पक्ष और बुद्धि-पक्ष पर दृष्टि डाली। अब प्रश्न रह जाता है उत्तम काव्य की कसौटी के निर्धारित करने का। इसलिए काव्य की कसौटी पाठक का हृदय और उसकी बुद्धि ही ठहरते हैं। इन्हीं दो मानव के पक्षों पर उत्तम काव्य का मापदंड निर्धारित किया जा सकता है।

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