मानसिक दृष्टि में सौंदर्य का प्रत्यक्षीकरण करना कला का क्षेत्र है। उपयोगिता और फिर सौंदर्य प्रधान उपयोगिता, बस यही कला की विशेषता है। कोनेन खाकर ज्वर उतर जाता है परंतु कोनैन खाने का नाम सुनकर भी ज्वर चढ़ आता है। इसलिए कोनैन उपयोगी होते हुए भी अपने अंदर सौंदर्य का समावेश नहीं रखती। इसके विपरीत एक वीर सैनिक युद्ध क्षेत्र में सन-सनाती हुई गोलियों के समक्ष जा रहा है, रण-वाद्यों को सुनता हुआ मस्त हाथी की तरह और मन में तनिक भी भयभीत नहीं होता। वह रणवाद्य अपने अंदर एक बल रखते हैं और वह बल है उस कला का, संगीत का।
इस प्रकार काल और उपयोगिता दो पृथक-पृथक वस्तुएँ नहीं है जैसा कि कुछ कला के पुजारी या जिन्हें व्यभिचारी कहा जाए, मानते आए हैं। हिंदी-साहित्य के रीति काल में इस भावना ने विशेष जोर पकड़ा था। सभी कलाए कला-उपयोगिता को लेकर चली हैं, केवल कल्पनाओं पर आधारित होकर नहीं चलीं। कल्पना भी यदि सत्य को ठुकराकर चलेगी तो अपना महत्त्व खो बैठेगी; न उनमें सौंदर्य ही रहेगा और न वह मिठास ही।
संक्षिप्त रूप से हिंदी के इतिहास पर भी हम दृष्टि डाल सकते हैं। वीरगाथाकाल का साहित्य पहले उपयोगी था बाद में कलात्मक, इस प्रकार भक्ति काल का साहित्य पहले उपयोगी था उसके पश्चात् कलात्मक, परंतु रीतिकाल में यह दृष्टिकोण बदल गया। बदल इसलिए गया क्योंकि पराधीनता के काल में ऐश और आरामतलबी का साम्राज्य छा गया और भक्ति के प्रतीकों को शृंगार का आश्रय बनाकर कवियों ने प्रयोग किया। कवि जीवन विहीन होकर शृंगारिक कला के हाथों खेलने वाले वह कल-पुर्जे बन गए जो सुई के नकवे में से केवल एक ही नंबर का सूत निकाल सकते थे। कवियों की स्वाभाविकता नष्ट हो गई, उनकी स्वाधीनता नष्ट हो गई, उनकी कल्पना नष्ट हो गई और वहाँ पर रह क्या गई केवल एक प्रणाली के ही अनुसार निर्जीव छंदों को मदारी की तरह इधर-उधर नचाना।
यह था कला का पतन काल। यहाँ कला में उत्थान नहीं था। कला अपने उत्थान में देश का समाज का, जाति और सब के साथ विश्व के उत्थान का संदेश लेकर चलती है। उसमें संकीर्णता नहीं होती, प्रस्फुटन एक विशाल चितन, साथ उपयोगी भी होता है। उसमें होती है व्यापकता, एक महान् आदर्श जो सुंदर होने के साथ-ही-कला की उपयोगिता में सौंदर्य का होना अनिवार्य है।
कला जीवन का ही एक अंग है, इससे पृथक् कोई वस्तु नहीं। उदाहरण के लिए दो युवतियों को ही लीजिए। दोनों एक ही अवस्था की हैं और यौवन के पूर्ण वेग में बह रही हैं परंतु एक में भोलापन हैं और दूसरी में चांचल्य। भोली बालिका फटे वस्त्र पहने है परंतु उसका यौवन फूटा पड़ रहा है, उसने सौंदर्य प्रसाधनों का प्रयोग नहीं किया है परंतु उसके कपोलों की लालिमा गुलाब के पुष्प को भी लजा रही है और दूसरी बालिका ने बाहरी आवरणों में अपने शरीर को सजाया हुआ है। अब यदि दोनों किसी कवि के सम्मुख जाएँ तो उस फटे वस्त्र वाली बालिका को ही वह अपनी कविता की नायिकास्वरूप स्वीकार करेगा। क्योंकि उसके स्वाभाविक सौंदर्य में कला के लिए स्वाभाविक निमंत्रण है। यह निमंत्रण बनावट में कहाँ? कला जीवन की बनावट पर नहीं जाती वह तो आकर्षित होती है जीवन की निर्मलता पर जीवन की पवित्रता पर और सच तो यह है कि वह जीवन की वास्तविकता को प्रेम करती है।
आज का युग क्या चाहता है? क्या है आज के युग की पुकार? वह कहता है वास्तविकता की ओर चलो, बनावट से मानव ऊब चुका है। भारत का कलाकार भी आज वास्तविकता की खोज कर रहा है और उसी में उसे मिली है अपनी कला की उपयोगिता। कला जीवन के लिए है, कला समाज के लिए है, कला देश के लिए है। यह सत्य कला पर विचार करते समय कभी नहीं भुलाना चाहिए।
हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद ने कला का जो दृष्टिकोण संसार के सम्मुख रखा है वह हम गर्व के साथ कह सकते हैं कि विश्व साहित्य में बहुत कम कलाकार रख सके हैं। खेद का विषय है कि उस महान् कलाकार के विचारों को समाज उस समय उचित आदर न दे सका और उसकी रचनाओं का अन्य भाषाओं में प्रकाशन न हो सका, उसे उचित सम्मान और स्थान न मिल सका परंतु वह हिंदी साहित्य में कला का ऐसा रूप प्रस्तुत कर गया कि जिसकी छाप कविता, कहानी, नाटक, सभी पर पड़े बिना न रह सकी। इस उपयोगिता ने ही प्रगतिवाद का रूप ग्रहण किया और रूप के साहित्य तथा विचारावली का भी इस पर प्रभाव पड़ा।
समय बदल गया, युग बदल गया। मूर्ति कला में नंगी तस्वीर बनाने का समय निकल गया। चित्र-कला में भी नग्न नारियों के तन मात्र दिखलाने से आज काम नहीं चलेगा। संगीत में अभी भी नारियों की विरह कथा का बोल-बाला है, परंतु यह तो जीवन की चिरसंगिनी है और उपयोगिता में इसका स्थान किसी प्रकार अन्य भावनाओं से पीछे नहीं रहता। आज भिखारियों के चित्रों को लोग पसंद करते हैं, किसानों के चित्रों में सौंदर्य दिखलाई देता है, किसान काव्यों के विषय बनकर काव्यकार के मस्तिष्क में आते हैं, श्रमजीवी के परिश्रम से प्रभावित होकर कवि रचना लिखते हैं और उनसे प्रभावित होकर समय करवट लेता जा रहा है। यह समय की प्रगति है जो रुक नहीं सकती और रुकनी भी नहीं चाहिए क्योंकि वह जीवन में कर्मण्यता का पाठ पढ़ाती है, अकर्मण्यता का नहीं; प्रगति की ओर ले जाती है रूढ़िवाद की ओर नहीं; कुछ करना सिखाती है, आलस्य में पड़े-पड़े जीवन व्यतीत करना नहीं; जीवन में उपयोगिता लाना चाहती हैं केवल सौंदर्य और वह भी वासनामय सौंदर्य मात्र नहीं। आज का युग इस प्रकार की कला के उत्थान में प्रयत्नशील है और आज के कलाकार जीवन के इस उपयोगितावादी मर्म को भली प्रकार समझ चुके हैं। यह व्यर्थ की झूठी प्रयोजन विहीन कलात्मकता में फँसे रहकर अपनी कल्पनाशील चिंतनशील अनुभवशील भावनाशील मनोवृत्तियों को कुंठित करना नहीं चाहते, वह चाहते हैं उपयोगिता के साथ एक प्रगति, और इस मार्ग में उन्हें सफलता भी कम नहीं मिल रही है। हिंदी के वर्तमान लेखक इस प्रकार का साहित्य सृजन करने में बहुत यत्नशील हैं।
समय-समय पर कला के पुजारियों ने कला के अपने-अपने विचारों के आधार पर अर्थ लगाकर कला की परिभाषाएँ निर्धारित की हैं। वह कहते हैं-
कला कला के लिए है।
कला जीवन के लिए है।
कला उपयोगिता के लिए है।
कला जीवन की वास्तविकता से पलायन के लिए है।
कला सेवा के लिए है।
कला आत्मानंद का दूसरा नाम है। कला आत्माभिव्यक्ति के लिए है।
कला विनोद और विश्राम के लिए है।
कला में सृजनात्मकता होनी आवश्यक है।
हम कला में इन सभी गुणों को देखकर प्रसन्न हो सकते हैं यदि उसमें उपयोगिता का अभाव न हो, क्योंकि उपयोगिता कला का प्रधान गुण होना चाहिए।
आज साहित्य कला पर हमारे देश का भविष्य आधारित है। हमारे बच्चों का जीवन उसी साहित्य के कर-कमलों में पलकर संसार के सम्मुख आएगा। जिस प्रकार का वह साहित्य होगा उसी प्रकार के हमारी आने वाली पीढ़ी के चरित्र भी होंगे। यदि हमारे साहित्य में उपयोगिता का अभाव हो गया तो हमारे बच्चों के जीवन में उपयोगिता कहाँ से आएगी, वे बच्चे होंगे हमारे साहित्य की छाया प्रतिबिंब इसलिए अच्छे कलात्मक साहित्य में उपयोगिता का होना उतना ही आवश्यक है, जितना दूध में घी का होना अथवा उसमें मिठास का होना।