संकेत बिंदु-(1) चरित्र-निर्माण (2) चरित्र-निर्माण का अचूक साधन (3) वर्तमान मानव दिग्भ्रांत (4) विभिन्न कविताओं में मानवीय वृत्तियाँ (5) उपसंहार।
भय, पलायन, वैर-विरोध, संग्रह-निवृत्ति, आत्माभिमान, स्वरक्षा, शरणागति, हास्य, जिज्ञासा, सामाजिकता, जीविकोपार्जन, उदरपूर्ति, भोग, दया, करुणा, संतोष आदि मानव की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ हैं। इन प्रवृत्तियों को संतुलित करते हुए कल्याण मार्ग की ओर अग्रसर होना चरित्र-निर्माण है।
मनुष्य को अपने चरित्र में ईश्वरीय गुणों का सौंदर्य विरासत में मिला है। इसीलिए मनुष्य दिव्य चरित्रवान् है। दूसरी ओर, वह सामाजिक प्राणी है। समाज के नियम उसके व्यक्तित्व को जटिल बना देते हैं। हिंसा, प्रतिहिंसा, स्वार्थ, शोषण आदि अनेक प्रवृत्तियाँ सामाजिक देन हैं। समाज की विषैली वायु से मानव-चरित्र की रक्षा करना चरित्र निर्माण का उद्देश्य है।
व्यक्ति के गुणों का विकास एकांत स्थान में होता है। चिंतन मनन में होता है, किंतु चरित्र का निर्माण सामाजिकता में ही संभव है, अतः गेटे का कथन है, ‘चरित्र का निर्माण संसार के भीषण कोलाहल में होता है।’
चरित्र-निर्माण का अचूक साधन है साहित्य कविता, कहानी, निबंध, नाटक, उपन्यास, जीवन-चरित्र, संस्मरण और पत्रकारिता, सभी ने चरित्र-निर्माण में योग दिया। कबीर, बिहारी, रहीम और वृंद के दोहे; मानस के उपदेश, गिरधर की कुण्डलियाँ, कामायनी का आनंदवाद, महादेवी का विरह, मैथिलीशरण गुप्त की राष्ट्रीयता, ‘निराला’ का विद्रोह, ‘दिनकर’ की ललकार, सुभद्राकुमारी चौहान की ममता, सब चरित्र-निर्माण के साक्ष्य हैं, दस्तावेज हैं।
प्रेमचंद की कहानियाँ-उपन्यास, प्रसाद के नाटक, रामचंद्र शुक्ल के निबंध, महावीरप्रसाद द्विवेदी के लेख, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ के एकांकी चरित्र-निर्माण के दिशा-दर्शन में आकाशदीप सिद्ध हुए हैं।
बिहारी के एक दोहे-‘नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल। अली कली ही सों बंध्यो आगे कौन हवाल ने राजा जयसिंह की भोग मदांधता को भंग कर दिया था। तुलसी का मानस तो हिंदू-चरित्र-निर्माण के प्रासाद की आधारशिला बना। उसने हिंदू जनता के सोचने-समझने की दिशा ही बदल दी। ‘दानवी प्रवृत्तियों को वश में करने या नष्ट करने में ही मानव का कल्याण है, यह शंखनाद ‘मानस’ रूपी पाँचजन्य ने फूँका। भूषण के वीरतापूर्ण पदों ने हिंदू जाति में वीरता का संचार किया। प्रेमचंद की ‘निर्मला’ ने दहेज लोभियों की चित्तवृत्ति का ‘पोस्टमार्टस’ किया।
‘आज का मानव’ शुष्क बौद्धिकता के कारण दिग्भ्रांत है, संकटग्रस्त है। मनसा, वाचा, कर्मणा वह अनेकरूपी है, इसलिए वह असफल है। प्रसाद जीवन की सफलता का रहस्य बताते हैं-
ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है, इच्छा क्यों पूरी हो मन की?
एक दूसरे से न मिल सके, यह विडंबना है जीवन की॥
स्वार्थ पर चोट करते हुए प्रसाद जी ने कहा-
अपने में सब कुछ भर, कैसे, व्यक्ति विकास करेगा?
यह एकांत स्वार्थ भीषण है, अपना नाश करेगा॥
आगे चलकर ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का संदेश देते हुए वे लिखते हैं-
औरों को हँसते देखो मनु, हँसों और सुख पाओ।
अपने सुख को विस्तृत कर लो, सबको सुखी बनाओ॥
ईर्ष्या और द्वेष के वशीभूत मानव अपना जीवन दुखी कर लेगा। इस तथ्य को प्रस्तुत करते हुए तुलसी समझाते हैं-
पर सुख देखि सुनि जरहीं जड़ बिनु आगी।
तुलसी तिनके भाग ते चलै भलाई भागी॥
तुलसी का मानस मानवीय वृत्तियों का बृहत् कोश है। मानस की एक-एक सूक्ति चरित्र-निर्माण की प्रेरक हैं।
मानव को दुखों से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं। प्रसाद कहते हैं-
‘डरो मत अरे अमृत संतान, अग्रसर है मंगलमय वृद्धि।’
अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ विघ्न-बाधाओं में साहस न छोड़ने का उपदेश देते
देख बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहीं।
भूलकर वे दूसरे का मुँह कभी तकते नहीं॥
‘दिनकर’ शौर्य का आह्वान करते हैं-
ले अंगड़ाई उठ, हिले धरा, कल निज विराट् स्वर में निनाद।
तू शैलराट् ! हुँकार भरे फट जाए कुहा, भागे प्रमाद॥
छोटी-छोटी बातों की तकरार मानव में अशांति और शत्रु-भाव उत्पन्न करती है। इस संबंध में रघुवीरशरण मित्र चेतावनी देते हुए कहते हैं-
छोटी-छोटी बात पर, करो न तुम तकरार।
बढ़ जाएगी दुश्मनी, घट जाएगा प्यार॥
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने मनोविकारों का जो सूक्ष्म विवेचन प्रस्तुत किया है, वह चरित्र-निर्माण की अमूल्य निधि है। कतिपय प्रेरणाप्रद सूक्तियाँ देखिए-
(क) ‘मनुष्य के अंत:करण में सात्विकता की ज्योति जगाने वाली यही करुणा है।’
(ख) ‘ईर्ष्या में आलस्य, अभिमान और नैराश्य का योग रहता है।’
(ग) ‘आनंद के वर्ग में उत्साह का जो स्थान है, वही स्थान दुख के वर्ग में भय का है।’
मुंशी प्रेमचंद ने अपने कथा-साहित्य के माध्यम से चरित्र-निर्माण के हर पहलू को दूरबीन से देखा है। वे लिखते हैं-’लज्जा और विनय ही भारत की देवियों का आभूषण है। एक कठोर दंड बरसों के प्रेम को मिट्टी में मिला देता है।’
संपूर्ण साहित्य जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति को अनुशासित करने और उन्हें कल्याण-पथ पर अग्रसर करने के तत्त्व-ज्ञान से ओत-प्रोत है। इस प्रकार स्पष्ट है कि चरित्र-निर्माण में साहित्य का अत्यंत महत्त्वपूर्ण योगदान है।