Sahityik Nibandh

समालोचना और साहित्य का संबंध – एक लघु निबंध

samalochana sahitya me kya bhumika rakhata hai

समालोचक साहित्यकार का पथ प्रदर्शक होता है और आलोचना-साहित्य का निर्धारित मार्ग। आलोचना के विषय में पहले एक बात समझ लेनी चाहिए कि इस विषय पर लेखनी उठाने का साहस केवल विषय के पंडितों को ही करना चाहिए अन्यथा वह आलोचना पथ भ्रष्ट करने वाले मूर्ख गाइड का कार्य करेगी जिससे लेखक, रचना और विशेष रूप से साहित्य की हानि होगी। आलोचना करने का अधिकार केवल उस व्यक्ति को ही है जो विषय का भली प्रकार ज्ञाता हो, विषय के ऊँच-नीच को समझता हो तथा उसके पक्ष और विपक्ष पर अपनी राय प्रकट कर सके।

आलोचना क्षेत्र में जो कुछ भी कार्य हुआ है वह गद्य-युग में ही समझा जा सकता है। वैसे संस्कृत साहित्य में भी हमें बड़े-बड़े ग्रंथों के भाष्य मिलते और उसकी सुंदर  टीकाएँ भी हुई हैं परंतु उस काल की और वर्तमान काल की टीका प्रणाली में महान अंतर है। प्राचीन आलोचना को हम समालोचना कहें, भाष्य कहें, टीका कहें, प्रशंसा कहें या और भी इसी प्रकार का कोई शब्द खोजा जा सकता है, परंतु यह मानना होगा कि आचार्यों ने सभी ग्रंथों के केवल एक पहलू पर विचार किया है या दूसरे पर नहीं। यदि प्रशंसा करने पर तुल गए हैं तो राई को पर्वत कर दिया है और यदि बुराई पर उतर आए हैं तो पर्वत को राई बना दिया है। संस्कृत साहित्य के महावीरप्रसाद द्विवेदी युग तक हमें यह प्रणाली देखने को मिलती है। पंडित पद्मसिंह शर्मा की बिहारी सतसई की टीका को देखने से यह पता चलता है कि शर्मा जी ग्रंथ हाथ में लेकर इस बात पर तुल गए थे कि उन्हें ग्रंथ की प्रशंसा ही करनी है। यदि ग्रंथ में कहीं पर ज्योतिष का कोई शब्द आ गया है तो वैद्यराज। इसी प्रकार एक-एक शब्द से शर्मा जी ने बिहारी को न जाने कितनी उन विद्याओं का प्रकांड पंडित ठहराया है जिन्हें एक-एक को सीखने में मनुष्य का जीवन चला जाता है और उनका अध्ययन समाप्त नहीं होता।

खैर, यह थी प्राचीन प्रणाली। आज का आलोचक या समालोचक इस दृष्टिकोण से यदि चलेगा तो वह लेखक का तो मार्ग अवरुद्ध करेगा ही अपना भी मार्ग अवरुद्ध कर लेगा। आज केवल तारीफ़ करने वाली आलोचना काम नहीं देती। समालोचक को विषयका विश्लेषण करना होता है। विषय के अच्छे-अच्छे तत्त्वों को एक ओर निकालना होता है और न्यूनता प्रदर्शित करने वाले तत्त्वों को एक तरफ फिर समालोचक को यह भी प्रदर्शित करना होता है कि लेखक के उन तत्त्वों में कमी रह जाने का कारण क्या है और जिन तत्त्वों में सौंदर्य आया है, उनमें सौंदर्य लेखक की किस विशेषता के कारण आया। आज के समालोचक को रचना के साथ-साथ लेखक को भी समझना होता है। समालोचक का कर्तव्य केवल अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा भर कह कर समाप्त नहीं होता। यदि वह किसी चीज को बुरा कहने का साहस करता है तो उसे अच्छी वस्तु का उदाहरण देना होता है, उसके अनुकूल परिस्थितियों का संकेत करना होता है और लेखक के सम्मुख एक सुझाव रखना होता है जिससे वह भविष्य में इस प्रकार की भूल अपनी रचनाओं में न करे। ऐसा करने का साहस साधारण समालोचक नहीं कर सकता।

समालोचना पर साहित्य का भविष्य आधारित है। यदि आलोचनाएँ उचित हैं और उनका मार्ग प्रदर्शन ठीक है तो कोई कारण नहीं कि साहित्य का भविष्य उज्ज्वल न होगा और यदि आलोचनाओं में स्वार्थ और द्वेष की बदबू आती है तो समझ लो कि उन आलोचनाओं से प्रभावित होने वाला साहित्य भी सड़ जाएगा और एक न एक दिन उससे भी बदबू आने लगेगी। यदि अच्छे लेखक को प्रोत्साहन न मिला तो वह लिखना बंद कर देगा और यदि खराब लेखक की प्रशंसा हुई, उसे प्रोत्साहन मिला तो वह अपनी त्रुटियों को साहित्य में ज्यों-का-त्यों रखकर गले सड़े साहित्य-भडार को भर देगा और कोई कारण नहीं है कि फिर उसके संपर्क में आकर अच्छे साहित्य में भी सड़न पैदा न हो जाए। अच्छे लेखक उसका अनुकरण करना आरंभ कर देंगे और इस प्रकार एक ऐसी गलत प्रणाली का साहित्य में आविष्कार होगा कि आवे का आवा (पूरा समूह) ही खराब हो जाएगा और फिर कुम्हार के उस आवे में से जो बर्तन भी निकलेगा वह या तो टूटा हुआ होगा, या कच्चा होगा। परिपक्वता नहीं आ पाएगी और साहित्य में एक कमज़ोर उथलापन आ जाएगा। वह साहित्य उच्च कोटि के साहित्यों में गिना जाना बंद हो जाएगा। वह अन्य साहित्य से दौड़ में पछड़कर पीछे रह जाएगा और इस सबका दोष जाएगा समालोचकों के सिर पर।

समालोचना स्वयं भी एक साहित्य है। यह न केवल साहित्य के समझने में सहायक के रूप में ही प्रशंसनीय है वरन् स्वतंत्र रूप से भी अपने में अपनापन रखती है। कहानी, उपन्यास इत्यादि के पढ़ने में जिस प्रकार पाठक आनंद-लाभ करते हैं उसी प्रकार अच्छी समालोचना के पढ़ने पर भी पंडितों के सिर झूम जाते हैं और वह लेखक के प्रति वाह-वाह कहे बिना नहीं रहते। समालोचना उथला विषय नहीं है, गूढ़ विषय है, खोज का विषय है जिसमें लेखक को मस्तिष्क और भावुकता दोनों से काम लेना होता है। लेखक की खोज करते हुए भी समालोचक को लेखक के प्रति भावुकता को नहीं खो देना होगा। समालोचक चाहे डॉक्टर की भाँति लेखों को काट-छाँटकर फेंक दे परंतु उसका उद्देश्य सर्वदा लेखक का सुधार करना ही होना चाहिए। नश्तर मारने वाला डॉक्टर भी हमें प्रिय लगता है और वह समाज का सबसे बड़ा हितैषी है। इसी प्रकार समालोचक भी साहित्य का सबसे बड़ा हितैषी होता है। डाक्टरों की भाँति इनके भी दो भेद हैं। एक वह जो मीठी तथा पैनी छुरी से काम लेता है और दूसरा वह जो भावुकता को पास तक नहीं फटकने देता। वह यदि कोनैन देना चाहता है तो खांड चढ़ी हुई गोलियाँ नहीं देता, बस साधारण ही दे डालता है।

इस प्रकार समालोचना साहित्य का प्राण है, स्फूर्ति है। मार्ग-दर्शक है, न्यूनता निवारण विधि है, सहयोग है, प्रोत्साहन है, क्या नहीं है आलोचना, यदि वह वास्तव में अपने कर्त्तव्य को समझकर लिखी गई है। एक बच्चे का बनना और बिगड़ना जिस प्रकार एक शिक्षक पर आधारित है उसी प्रकार एक लेखक का बनना और बिगड़ना उसके समालोचकों पर आधारित है।

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