साहित्य की सफलता उसकी मार्मिकता में निहित होती है। इस मार्मिकता की योजना के लिए लेखक साहित्य की अनेक रूपों में रचना करता है और उसमें अनेक प्रकार के सिद्धांतों का समावेश करता है। उसमें सत्य, शिव और सुंदर की योजना भी उसके इसी प्रयास का परिणाम है। इन तीनों तत्त्वों को भारतीय तथा पाश्चात्य साहित्य-रचनाओं में व्यापक स्थान प्राप्त है और इनके स्वरूप के संबंध में भी अनेक विद्वानों ने अपने विचार व्यक्त किए हैं।
सत्य
साहित्य में सत्य के समावेश से हमारा तात्पर्य लेखक के अनुभवों को वाणी प्रदान करने से है। जीवन के सामान्य सत्य और काव्य के सत्य में मौलिक अंतर होता है। जीवन का सत्य कोरा यथार्थवाद होता है, किंतु साहित्य में उसे ज्यों का त्यों उपस्थित नहीं किया जा सकता। वहाँ उसे जीवन विकास के लिए अधिक से अधिक उपयोगी बनाने का प्रयत्न किया जाता है। साहित्य का लक्ष्य अपूर्ण को पूर्ण करना होता है। अतः वहाँ सत्य का समावेश जीवन में इसी पूर्णता को लाने के लिए किया जाता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि साहित्य में सत्य कथन से हमारा तात्पर्य यथार्थ का आदर्शत्मिक चित्रण करने से है। यह कथन विभिन्न रूपों में किया जा सकता है और साहित्य के प्रत्येक रूप में इसकी अभिव्यक्ति की प्रणाली में कुछ न कुछ अंतर आ जाता है। उदाहरणार्थ जहाँ गीति काव्य में लेखक इस सत्य को अपनी ओर से प्रकट करता है वहाँ प्रबंध काव्य में वह ऐसा किसी पात्र से भी करा सकता है।
काव्य में सत्य की योजना के लिए लेखक को अपने दृष्टिकोण का विस्तार करना होता है। इसके कारण ही वह जड़ तत्त्वों में भी चेतना के दर्शन करने में सफल हो पाता है। यह दृष्टि साधारण व्यक्तियों के पास नहीं होती। सत्य का प्रतिपादन दार्शनिकों तथा वैज्ञानिकों द्वारा भी किया जाता है, किंतु उसका संबंध क्रमशः बौद्धिक तथा भौतिक जगत् से होता है। इसके विपरीत काव्य के सत्य में भावना तथा कल्पना के योग के कारण हृदय को प्रभावित करने की शक्ति होती है। वह हमारी चेतना का परिष्कार कर हमें विशेष आनंद प्रदान करता है। अभाव में भाव की कल्पना करने की शक्ति केवल उसी के पास होती है। यही कारण है कि जो सत्य दर्शनशास्त्र और विज्ञान में शुष्क रूप में स्थित रहता है वही काव्य में आने पर सरस हो उठता है।
शिव
साहित्य में शिव-तत्त्व के समावेश से हमारा तात्पर्य उसमें कल्याणकारी भावनाओं के संचय से है। वहाँ शिव लोक हित का पर्याप्त है। अतः यह स्पष्ट है कि उसमें आदर्श कथन की प्रणाली को अपनाया जाता है। यह तत्त्व साहित्य को अमरता प्रदान करने वाला है और इसके कारण ही साहित्य का अध्ययन करने वाले व्यक्ति को मानसिक शांति की प्राप्ति हो पाती है। श्रेय तत्त्व से युक्त होने के कारण यह मानव मन को उन्नयन की ओर ले जाता है। इसकी योजना के लिए कविगण प्राय: अनुभव और चिंतन का आश्रय लेते हैं। इन दोनों की सहायता से वर्णन के विषय को एक निश्चित आकार देने के उपरांत वे आवश्यकता के अनुसार उसे कल्पना के माध्यम से विशेष सौंदर्य भी प्रदान करते हैं। जो साहित्य शिव-तत्त्व से शून्य होता है उसका समाज विकास की दृष्टि से कोई महत्व नहीं होता।
भारतीय साहित्य में शिव-तत्त्व आदि से अंत तक व्याप्त रहा है। भारतीय विद्वानों ने साहित्य को जीवन से अनिवार्यतः संबंधित मानकर उसमें लोक- हित की योजना का निरंतर ध्यान रखा है। इसके विपरीत पाश्चात्य साहित्य प्रचलन के कारण कहीं-कहीं इस तत्त्व का उपयोगिता में में ‘कला कला के लिए’ नामक सिद्धांत के साहित्य में शिव-तत्त्व का अभाव हो गया है। कोई सन्देह नहीं है, किंतु इतना आवश्यक है कि इसकी योजना करते समय सत्य की उपेक्षा न की जाए। शिव-तत्त्व के अंतर्गत काल्पनिक प्रदर्शवाद की सृष्टि कभी भी प्रशंसनीय नहीं होती।
सुंदर
साहित्य में सौंदर्य के संचार के विषय में कोई भी व्यक्ति विपरीत मत नहीं रख सकता। साहित्य के प्रारंभ से अब तक लेखक उसे अधिकाधिक सुंदर रूप में उपस्थित करने का प्रयास करते आए हैं और विभिन्न साहित्य- सिद्धांत भी उनकी इसी प्रवृत्ति की सूचना देते हैं। इस सौंदर्य की योजना के लिए सामान्यतः लेखक निम्नलिखित दो प्रणालियों का आश्रय लेते हैं-
(1) भावात्मक सौंदर्य –
साहित्य में भावों का महत्त्व वही है जो मानव शरीर में आत्मा का होता है। अतः लेखक अपने भावों को सुंदर और प्रभावशाली रूप में उपस्थित करने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहते है। इसके लिए वे अनुभव के अतिरिक्त कल्पना का भी आधार ग्रहण करते है। साधारण रूप से काव्य के विषय प्रकृति, मानव जगत् और भक्ति से संबंधित रहते हैं। प्रतः कवि इन विषयों को सुंदरतम् अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए कल्पना का यथास्थान प्रयोग करते हैं। काव्य में भावात्मक सौंदर्य का अभाव होने पर उसका प्रभाव लगभग समाप्त हो जाता है।
(2) कलात्मक सौंदर्य-
भावों की भाँति काव्य में उन्हें उपस्थित करने की रीति को भी आकर्षक रूप प्रदान करने की आवश्यकता होती है। ग्रतः कवि भाषा, शैली, अलंकार आदि विविध कलात्मक उपकरणों की सहायता से अपने काव्य को कला-सौंदर्य प्रदान करते हैं।
भावना और कला के योग से साहित्य में जिस सौंदर्य की सृष्टि होता है वह अनुपम होता है। यह सौंदर्य मन को विशेष आनंद प्रदान करने वाला होता है और पाठक की थकी हुई चेतना को विश्राम प्रदान करता है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में सौंदर्य की खोज करने में लीन रहता है। श्रतः काव्य में भी सौंदर्य का समावेश होने पर ही पाठक को संतोष प्राप्त होता है।
तुलनात्मक अध्ययन
साहित्य में सत्य, शिव और सुंदर को एक दूसरे से पृथक् रखकर नहीं देखा जा सकता। वे तीनों परस्पर अंतर्ग्रथित है और एक-दूसरे के लिए पूरक का कार्य करते हैं। जब साहित्य में इन तीनों को सम्मिश्रित रूप में उपस्थित किया जाता है तभी उसमें वास्तविक प्रभाव का संचार हो पाता है। इसी कारण इन्हें न्यूनाधिक रूप में विश्व की सभी भाषाओं की रचनाओं में ग्रहण किया जाता है। इन तीनों के मूल में आदर्शवाद की स्थिति रहती है अर्थात् साहित्यकार अपनी रचनाओं में इन्हें उपस्थित करते समय इन्हें अधिक से अधिक प्रदर्श रूप प्रदान करने की चेष्टा करते हैं।
काव्य का मूल आधार सत्य होता है। जब कवि को संसार के सत्य का ज्ञान हो जाता है तभी वह काव्य की रचना कर पाता है| सत्य को अधिक प्रभावशाली बनाने और उसके महत्त्व को चिरस्थायी रखने के लिए साहित्यकार उसमें शिव-तत्त्व और सौंदर्य का मिश्रण करता है। इन दोनों से रहित होने पर सत्य का स्वरूप शुष्कता से युक्त रहता है। यद्यपि सत्य का स्वरूप व्यापक होता है, किंतु शिव-तत्त्व से युक्त होने पर व्यापकता में वृद्धि हो जाती है। उस अवस्था में सत्य कटु प्रतीत नहीं होता और वह एक प्रकार से मानवता- वाद का रूप धारण कर लेता है।
शिव-तत्त्व का संबंध मानव के आंतरिक सौंदर्य से है। उसका स्वरूप विशेष प्रभावशाली होता है। इसी कारण सत्य से संयुक्त होने पर वह उसके स्थूल रूप को कल्याणकारी रूप में परिवर्तित कर देता है। जो बात लोक-हित से संबंधित होती है उसे सत्य से दूर नहीं रखा जा सकता। इसी प्रकार ऐसी बात में सौंदर्य का प्रभाव भी नहीं हो सकता। वास्तव में देखा जाए तो शिवत्व को सौंदर्य का मापदंड ही कहना चाहिए। ऐसी अवस्था में सत्य और सौंदर्य का आश्रय लेते हुए यदि साहित्य में शिव-तत्त्व का त्याग किया जाएगा तो उससे साहित्य का गौरव कम ही होगा। जो रचना जन हित के प्रश्न को सब से प्रमुख नहीं मानती उसका जनता द्वारा उचित सम्मान कदापि नहीं किया जा सकता।
काव्य में सौंदर्य-योजना के लिए कवि शेष दोनों तत्वों की उपेक्षा नहीं कर सकता। सत्य और सौंदर्य के संबंध पर विचार करने पर हम देखते हैं कि जहाँ सत्य किसी ठोस धरातल पर खड़ा होता है वहाँ सौंदर्य की आधार- भूमि कल्पना होती है। सत्य और कल्पना एक दूसरे से सर्वथा विपरीत हैं। अतः साहित्यकार को अपनी कृति में कल्पना को अधिक उन्मुक्त नहीं होने देना चाहिए। केवल कल्पना – विलास को उपस्थित करना साहित्य का लक्ष्य नहीं है। साहित्य में कल्पना का प्रयोग तभी तक करना चाहिए जब तक वह पाठक को स्वाभाविक प्रतीत हो। सौंदर्य का शिव तत्त्व से अधिक निकट का संबंध है। जो भाव कल्याण रहित होता है वह सौंदर्य की सृष्टि करने में भी असमर्थ रहता है।
उपर्युक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि साहित्य में इन तीनों तत्त्वों को मिलाकर उपस्थित किया जाना चाहिए। इस ओर उचित ध्यान न देने से साहित्य में कृत्रिमता, अश्लीलता, कुरुचि और शुष्कता आदि विविध दोषों का किसी न किसी रूप में समावेश होने लगता है। जो लेखक इनमें जितनी ही अधिक कुशलता से सामंजस्य स्थापित करता है उसकी रचना उतनी ही अधिक मार्मिक हो जाती है। इस दृष्टि से हिंदी साहित्य का अध्ययन करने पर हम उसके वीरगाथा काल में इस सामंजस्य का प्रभाव पाते है। भक्ति काल में यह सामंजस्य अपने पूर्ण विकसित रूप में उपलब्ध होता है। इसके उपरांत रीति काल में इसकी फिर से स्थापना न हो सकी है। आधुनिक काल में इस सामंजस्य को स्थापित रखने का यथासंभव ध्यान रखा जाता रहा है, किंतु प्रगतिवादी, हालावादी और प्रयोगवादी साहित्य में इसका स्पष्ट प्रभाव है।