Sahityik Nibandh

श्री सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’

Sooryakant tripathi nirala jee ka parichay

कविवर ‘निराला’ का जन्म संवत् 1956 में बंगाल प्रदेश के मेदिनीपुर नामक स्थान में हुआ था। इस प्रदेश की संस्कृति का उनके जीवन पर प्रारंभ से ही विशेष प्रभाव रहा है। इस कारण उनकी काव्य रचनाओं पर भी इसका अनिवार्य रूप से प्रभाव पड़ा है। उन्होंने अपनी प्रतिभा का साहित्य के विविध क्षेत्रों में परिचय दिया है। इस दृष्टि से वह हमारे समक्ष कवि, उपन्यासकार, निबंधकार तथा आलोचक के रूप में आते हैं। कवि के रूप में उन्होंने ‘परिमल’, ‘अनामिका’, ‘अपरा’, ‘गीतिका’, ‘नये पत्ते’ तथा ‘तुलसीदास’ आदि अनेक श्रेष्ठ काव्यों की रचना की है। उपन्यास लेखक के रूप में उन्होंने ‘निरुपमा’, ‘अलका, और ‘चोटी की पकड़’ शीर्षक उपन्यास लिखे हैं। निबंध लेखक के रूप में उन्होंने ‘चाबुक’, ‘प्रबंध पद्म’ और ‘प्रबंध प्रतिभा’ शीर्षक ग्रंथों को उपस्थित किया है। आलोचना के रूप में उन्होंने पंत और पल्लव’ शीर्षक स्वतंत्र ग्रंथ की रचना के अतिरिक्त कुछ आलोचनात्मक निबन्धो की भी रचना की है। इसी प्रकार उन्होंने कहानी लेखन के क्षेत्र में भी अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है।

‘निराला’ जी की रचनाओं में समाज – चिंत्रण को मुख्य स्थान प्राप्त हुआ है। उन्होंने अपने काव्य की रचना मुक्तक रूप में की है और गीति काव्य की रचना के अतिरिक्त छंदों में भी काव्य लिखा है। उनकी काव्य-रचनाओं में ‘परिमल’, ‘अपरा’ और ‘गीतिका’ मुख्य हैं। उनके काव्य में छायावाद, रहस्यवाद और प्रगतिवाद, तीनों को स्थान प्राप्त हुआ है। अपने उपन्यासों और कहानियों में भी उन्होंने समाज के विभिन्न रूपों का ही चित्रण किया है। निबंध के क्षेत्र में उन्होंने साहित्यिक विषयों पर निबंध लिखे हैं। इस प्रकार उनमें विषय की दृष्टि से उनके आलोचक रूप के ही दर्शन होते हैं। आलोचना के क्षेत्र में उन्होंने हिंदी साहित्य के कुछ पक्षों की आलोचना करने के अतिरिक्त काव्य और काव्यांगों के स्वरूप पर भी प्रकाश डाला है। अपने ‘गीतिका’ और ‘परिमल’ नामक काव्यों की भूमिकाओं में भी उन्होंने गीति काव्य और मुक्त छंद के स्वरूप पर प्रकाश डाला है।

‘निराला’ जी ने अपनी कविताओं में अनुभव और चिंतन को मुख्य स्थान प्रदान किया है, किंतु उनके काव्य में कल्पना को भी पर्याप्त स्थान प्राप्त हुआ है। उनकी प्रगतिवादी कविताओं में अनुभव का पूर्ण विकास प्राप्त होता है। अपनी छायावादी कविताओं में उन्होंने कल्पना का भी सुंदर प्रयोग किया है। इसी प्रकार उनकी रहस्यवादी कविताओं में चिंतन का भी अच्छा विकास हुआ है। ईश्वर के प्रति अपनी भक्ति भावना को उन्होंने अत्यंत स्पष्ट रूप में उपस्थित किया है। उदाहरण के लिए उनकी निम्नलिखित पंक्तियाँ देखिए-

“मेरे प्राणों में आओ !

शत शत भावनाओं के उर के तार सजा जाओ।

गाने दो प्रिय मुझे भूलकर अपनापन,

अपार जग सुंदर, खुली करुण उर को सीमा पर

स्वाती जल नित बरसाओ।”

‘निराला’ जी ने अपने काव्य में प्रकृति-चित्रण की ओर ध्यान देते हुए प्रकृति के कोमल और कठोर दोनों रूपों का चित्रण किया है। उनके प्रकृति-चित्रों पर छायावादी प्रणाली का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। उन्होंने चरित्र-चित्रण को भी अपने काव्य में स्थान प्रदान किया है। यद्यपि प्रबंध-काव्य की रचना न करने के कारण उनके काव्य में इसके लिए स्थान नहीं था, तथापि उन्होंने अपनी ‘शिवाजी का पत्र’ तथा ‘पंचवटी – प्रसंग’ शीर्षक कविताओं में इस ओर भी उपयुक्त ध्यान दिया है। उपर्युक्त विशेषताओं के अतिरिक्त उन्होंने राष्ट्रीय भावों से युक्त कविताओं की भी रचना की है। इस प्रकार की रचनाओं में उनके राष्ट्र-प्रेम का पूर्ण परिचय प्राप्त होता है। उनकी ‘जागो फिर एक बार’ शीर्षक कविता इसी प्रकार की है। इसमें छायावादी रीति से राष्ट्रीय भावों को उपस्थित किया गया है।

रस- योजना की दृष्टि से ‘निराला’ जी ने अपनी कविताओं में शृंगार रस, शांत रस, करुण रस और वीर रस को विशेष स्थान प्रदान किया है। इनमें से भी वीर रस को उनकी कविताओं में अधिक स्थान प्राप्त नहीं हुआ है। अपनी शृंगार रस की कविताओं में उन्होंने प्राय: छायावाद का आश्रय लिया है। इसी प्रकार शांत रस की कविताओं में उन्होंने ईश्वर भक्ति और रहस्यवादी भावनाओं को स्थान दिया है। करुण रस की कविताओं की रचना उन्होंने स्वतंत्र रूप में भी की है और अपनी प्रगतिवादी कविताओं में भी करुण के समावेश की ओर मुख्य ध्यान दिया है। उनकी करुण रस की कविताओं ‘भिक्षुक’ और ‘विधवा’ शीर्षक कविताएँ विशेष मार्मिक बन पड़ी हैं। आगे हम उनकी ‘विधवा’ शीर्षक कविता से कुछ पंक्तियाँ उपस्थित करते हैं-

“वह इष्टदेव के मन्दिर की पूजा-सी,

वह दीपशिखा-सी शांत,

भाव में लीन,

वह क्रूर काल तांडव की

स्मृति – रेखा- सी

वह टूटे तरु की छुटी लता-सी दीन-

दलित भारत की विधवा है।”

कला-तत्त्व

‘निराला’ जी ने भाव पक्ष की भाँति अपने काव्य में कला-पक्ष की योजना की ओर भी विशेष ध्यान दिया है। उन्होंने अपने काव्य की रचना खड़ीबोली में की है और संस्कृत के तत्सम शब्दों का अधिक प्रयोग किया है। उनकी भाषा का स्वरूप पूर्णतः साहित्यिक रहा है। उन्होंने समास योजना की ओर अधिक ध्यान दिया है। इस कारण उनकी भाषा कठिन हो गई है। उन्होंने छायावाद की प्रकृति के अनुकूल प्रतीकात्मक और लाक्षणिक शब्दों का भी प्रयोग किया है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि उनके काव्य की भाषा सर्वत्र कठिन ही रही है। अपनी अनेक कविताओं में उन्होंने जनता की बोल-चाल की भाषा का भी समावेश किया है। अपनी नवीन कविताओं में वह ग्रामों में प्रचलित अनेक शब्दों को भी ग्रहण कर रहे हैं। उनकी भाषा में ओज गुण को भी मुख्य स्थान प्राप्त हुआ है, तथापि उन्होंने माधुर्य गुण का भी अच्छा प्रयोग किया है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि उन्होंने अपने काव्य में भाषा योजना की और उचित ध्यान दिया है।

शैली प्रयोग की दृष्टि से ‘निराला’ जी ने अपने काव्य में प्रगति शैली, समास शैली और वर्णनात्मक शैली की ओर अधिक ध्यान दिया है। इनके अतिरिक्त उनके काव्य में कुछ अन्य शैलियों को भी स्थान मिला है, किंतु उन्हें उनके काव्य की मुख्य शैलियाँ नहीं कहा जा सकता। आधुनिक युग में प्रगति शैली की योजना में भाग लेने वाले कवियों में उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने अपने गीतों में संगीतशास्त्र के ज्ञान का व्यापक परिचय दिया है। उनके गीतों में संक्षिप्तता, आत्माभिव्यक्ति और प्रवाह आदि विविध विशेषताएँ पूर्ण रूप से वर्तमान हैं। समास शैली की योजना की ओर भी उन्होंने अत्यधिक ध्यान दिया है। इसका प्रयोग उन्होंने अधिकतर अपनी कविताओं की कुछ पंक्तियों में ही किया है और संपूर्ण कविता में इसे स्थान देने की प्रवृत्ति नहीं अपनाई है। इस शैली का परिचय उनकी निम्नलिखित पंक्ति से मिल सकता है-

“शत सहस्र-नक्षत्र चंद्र रवि- संस्तुत

नयन – मनोरंजन।”

‘निराला’ जी ने अपने काव्य में शब्दालंकारों और अर्थालंकारों, दोनों का प्रयोग किया है। छायावाद के अनुकूल उन्होंने कुछ नवीन उपमानों की भी योजना की है। अलंकारों की अपेक्षा छंदों के क्षेत्र में उन्होंने अपनी मौलिकता का अधिक परिचय दिया है। उन्होंने अपने काव्य में मात्रिक छंदों का प्रयोग किया है, किंतु वह काव्य में छंद-प्रयोग को पूर्णतः आवश्यक नहीं मानते।

इसी कारण उन्होंने मुक्त छंद का समर्थन किया है अर्थात् वह छंद-रहित प्रवाहपूर्ण कठिनता के समर्थक हैं। छंद-योजना के लिए भावों में परिवर्तन करना वह उचित नहीं समझते। इस दिशा में उन्होंने अत्यंत सफल रूप में कार्य किया है। उन्होंने मुक्त छंद के स्वरूप पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला है। प्रारंभ में उनके द्वारा लिखी गई छंद-रहित कविताओं का काफी विरोध किया गया, किंतु बाद में अनेक अन्य कवियों ने भी इस दिशा में उनका अनुकररण किया। वर्तमान युग में हिंदी काव्य में छंद-प्रयोग के क्षेत्र में नवीन परिवर्तन उपस्थित करने वाले कवियों में उनका प्रमुख स्थान है। आगे हम उनका एक प्रवाहपूर्ण मुक्त छंद उपस्थित करते हैं-

“जड़े नयनों में स्वप्न

खोल बहुरंगी पंख विहग-से,

सो गया सुरा-स्वर

प्रिया के मौन अधरों में

क्षुब्ध एक कम्पन-सा निद्रित सरोवर में।”

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