Sahityik Nibandh

निराला का दार्शनिक प्रकृतिवाद- एक लघु निबंध

Sooryakant Tripathi nirala ka prakriti chitran ek laghu nibandh

‘निराला’ के साहित्य में स्पष्ट अद्वैतवाद की झलक है। ‘परिमल’ में अद्वैतवाद का स्पष्टीकरण हमें कई कविताओं में प्रस्फुटित होता हुआ दिखाई देता है। ‘जागरण’ कविता में आत्मा की चरम सत्ता में स्थिति को सच माना है। मानव आत्मा को माया जनित जड़ता के कारण परमात्मा से पृथक् किए हुए है। मानव की यह जड़ता सत्य नहीं असत्य है। कवि के शब्दों में यह ‘अगणित तरंग’ के रूप में है। चिदात्म तत्त्व गुणों से परे है, उसमें गुणों का आरोप हम नहीं कर सकते। हमें अपने चारों ओर जो जड़ सृष्टि दिखाई देती है यह सब माया-जनित है, वासनाओं से जन्म लेकर आती है, सत्य नहीं हैं। यह सब भिन्नता और परिवर्तन जो हमें विश्व में दिखलाई देता है यह सब हमारे अज्ञान का ही कारण है। जड़ इंद्रियाँ हमें स्खलन और पतन की ओर ले जाती हैं। कवि का मत है कि ज्ञान से मानव उस माया जाल को भेदकर ब्रह्म तत्त्व तक पहुँच सकता है। माया के आवरणों को भेदना जीवात्मा के लिए अत्यंत आवश्यक है। बिना उन आवरणों को भेदे आत्मा अपने निश्चित लक्ष्य पर नहीं पहुँच सकती। ज्ञान प्राप्त होने पर आत्मा की जो आनंदमय स्थिति होती है उसका कवि इस प्रकार चित्रण करता है-

अविचल निज शांति में

क्लांति सब खो गई !

डूब गया अहंकार

अपने विस्तार में

टूट गये सीमा-बंध

छूट गया जड़ पिंड

ग्रहण देश काल का।

ज्ञान का आकर्षण पाकर आनंदमय ब्रह्म में जहाँ सृष्टि रचना की इच्छा होती है वहीं मोह नहीं होता है, होता है शुद्ध प्रेम। ब्रह्म अपनी माया का प्रसार प्रेम के रूप से करता है, छल फैलाने के लिए नहीं। वह त्रिगुणात्मक रूप रचता है और मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार और पंचभूत, रूप, रस, गंध, स्पर्श विकसित हो जाते हैं। माया को कवि ने असत्य माना है। वह आनंद की अभिव्यक्ति हो सकती है, प्रेम का निरूपण मात्र कर सकती है और यह भी तब जब मन उसे उसके विशुद्ध रूप ग्रहण करे, छलना रूप में ग्रहण करने को में भूल कर जाए।

कवि के दर्शन पर कबीर के निर्गुण तत्त्व का प्रभाव स्पष्ट दिखलाई देता है। कबीर की प्रकृति में राम की झलक थी और ‘निराला’ की प्रकृति स्वयं राम है, अंतर केवल इतना ही है। कबीर ने माया को बिल्कुल असत्य मानकर छलना रूप दिया है परंतु ‘निराला’ ने उसे प्रेम का रूप माना है, घृणा का नहीं। ‘परिमल’ और ‘गीतिका’ का अध्ययन करने से हमें कवि के दार्शनिक दृष्टिकोण का पता चलता है। ‘निराला’ की कविता में वेदांती दर्शन हैं। अद्वैतवाद का उन्होंने प्रतिपादन किया है परंतु ‘निराला’ का अद्वैतवाद विशुद्ध अद्वैतवाद नहीं है। अद्वैतवाद के साथ प्रेम का समावेश करके ‘निराला’ जी जायसी के निकट पहुँच जाते हैं। सूफी प्रेम की झलक पाकर कविता में रस का संचार हो गया है अथवा उसमें वही रूखापन बना रहता जो कबीर की कविता में मिलता है। परिमल की पंचवटी में कई दार्शनिक दृष्टिकोण कवि ने एक स्थान पर लाकर जुटा दिए हैं। कवि कहता है-

भक्ति योग, कर्म ज्ञान एक हैं

यद्यपि अधिकारियों के निकट भिन्न दीखते हैं !

एक ही है दूसरा नहीं है कुछ-

द्वेत भाव भी है भ्रम।

तो भी प्रिये,

भ्रम के ही भीतर से

म के पार जाना है।

मुनियों ने मनुष्यों के मन की गति

सोच ली थी पहले ही।

इसलिए द्वंत-भाव-भावुकों में

भक्ति की भावना भरी।

इस कविता में संबंध की भावना मिलती है तर्क की नहीं। वेदांत का आश्रय तर्क है, परंतु संबंध में तर्क को एक ओर रख देना होता है ओर लोक-हित के लिए संबंध की भावना का होना कवि के लिए आवश्यक है। ‘निराला’ की कविता में अद्वैतवाद के साथ-साथ प्रेम और भक्ति के दर्शन होते हैं। यह ‘निराला’ की अपनी विशेषता है जिसे प्रकृति का सहारा लेकर कवि ने साहित्य में प्रस्तुत किया है। ‘निराला’ का दर्शन ज्ञानमूलक है। जायसी की भाँति प्रकृति और परब्रह्म में वह एकात्मक न मानकर भिन्नता मानते हैं।

‘निराला’ के प्रकृति-चित्रण साधारण नहीं हैं, उनमें दर्शन की विशेषता होने के कारण चित्रणों में भी विशेषता आ गई है। प्रकृति की प्रत्येक शक्ति में उन्हें ब्रह्म की छटा दिखाई देती है। प्रकृति के रंग उन्हें गहरे लगते हैं, पवन में पराग और कुमकुम मिली दिखलाई देती है। दार्शनिक कवि पवन को देखता और रंगों से बातें करता है। ‘निराला’ ने प्रकृति का वह स्वरूप नहीं देखा जो जायसी ने देखा है। जिसमें कवि प्रकृति में मिलकर उसे अपने विरह का अंग बना लेता है। कवि प्रकृति को रहस्यवादी और अर्द्ध तवादी रूप में देखता है। ‘निराला’ की ‘जूही की कली’ में प्रकृति आत्मा और परमात्मा लीलाओं का स्थल बनकर आई है। पवन ईश्वर का स्वरूप है और कली आत्मा का। इन प्रतीकों को मानने में ‘निराला’ में पूर्ण भारतीयता के दर्शन होते हैं। काव्य में प्रेम का समावेश करने पर भी ईश्वर को नारी रूप में कवि ने नहीं देखा। कवि ने अपनी दूसरी कविता ‘शैफाली’ में भी प्रकृति का चित्रण इसी प्रकार किया है। प्रकृति का निरीक्षण कवि ने एक विशुद्ध वेदांती बन कर किया है। ‘निराला’ के प्रकृति चित्रण में प्रकृति को स्वतंत्र रूप नहीं मिल पाया। यही कारण है कि प्रकृति-चित्रण का वह विकास जो जायसी की पद्मावत या वर्तमानकालीन पंत’ की भी कविता में प्राप्त नहीं हो सका। इस प्रकार हमने देखा कि ‘निराला’ का दार्शनिक प्रकृतिवाद प्रकृति माया का प्रेम-क्षेत्र है जिसमें आत्मा और परमात्मा की क्रीड़ाएँ होती हैं। यह लीलाएँ छल के प्रभाव से न होकर प्रेम के प्रभाव से होती हैं। मानव ज्ञान से इस आनंदमय सृष्टि के दर्शन कर सकता है और अपने को उसका एक अंग बना सकता है।

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